-डॉ. नीरज मील
भारत एक ऐसा देश है
जहां जुबान पर नारे या स्लोगन जल्दी सवार हो जाते हैं। लेकिन इसके बाद हम मूल
लक्ष्य को पूर्णत: भूल जाते हैं। यही हाल ‘बेटी
बचाओ बेटी पढ़ाओ’ अभियान का रहा है। इस अभियान के लिए हाल ही में देश के कम लिंगानुपात वाले दो सौ चवालीस जिलों के
जिलाधिकारियों के साथ सरकार की एक बैठक हुई। इस बैठक में यह खुलासा हुआ कि देश के
तेरह राज्यों के कुल 382 जिलों में बहुत ही ख़राब स्थिति है। बेहद कम लिंगानुपात
वाले इन जिलों में मध्यप्रदेश के 50, बिहार के 38, महाराष्ट्र के 35, राजस्थान के 33, तमिलनाडु के 32, ओडिशा के 30 कर्नाटक के 30, गुजरात के 26, झारखंड के 24, जम्मू कश्मीर के 22, उत्तर प्रदेश के 21, हरियाणा के 21 और पंजाब के 20 जिले शामिल है। इन सभी जिलों में लिंगानुपात दर राष्ट्रीय औसत
दर 918 से कम या लगभग बराबर है।
इस संदर्भ में हाल
ही की प्रगति की का विश्लेषण किया जाए तो हरियाणा, पंजाब, राजस्थान को ‘बेटी बचाओ
बेटी पढ़ाओ’ अभियान अच्छी तरीके से लागू करने के लिए सराहा गया है, हालांकि ये
सुधर इस हेतु खर्च की गयी राशि और वांछित लक्ष्यों के अनुरूप नहीं है। वहीं बिहार
और जम्मू कश्मीर ऐसे राज्य जिनमें उनकी मांग के अनुरूप कोष के आवंटन और उनके
द्वारा उसके उपयोग के बावजूद साबित हुए हालात बहुत गंभीर है। कुछ राज्यों में
हालात बहुत ही बदत्तर हैं। हालांकि बिहार में इस अभियान असलता का दोष कोष का कभी
भी जिलों नहीं पंहुचा पाना और कई मामलों में जिलाधिकारियों का जल्दी-जल्दी तबादला हो
जाना बताया जा रहा है। जोकि सरकारी तंत्र द्वारा अपनी अकर्मण्यता को छिपाने का
प्रयास हो सकता है। हरियाणा, पंजाब व राजस्थान की स्थिति का विश्लेषण करें तो बात
सामने आती है वो भी संतोषजनक नहीं है। इन तीनों राज्यों में स्थिति इतनी नहीं
सुधरी है कि उसे लेकर संतोष व्यक्त किया जा सके। लेकिन कुछ जगहों पर बेहतरीन
परिणाम सामने आए जिनको प्रोत्साहित और प्रचारित करने की जरूरत है। हरियाणा के
झज्जर इसका अनुपम और सशक्त उदाहरण है। जिले में अप्रैल 2017 में लिंगानुपात की दर महज 822 थी जो अप्रैल 2018 में 982 पहुंच गई है। जिले का यह प्रयास न केवल प्रशंसा का
हकदार है बल्कि इस मामले पिछड़े हुए जिलों के लिए अनुकरणीय भी है।
सरकार द्वारा चलाए जा रहे युद्ध स्तर
के कार्यकर्मों और पानी की तरह बहाए जा धन के बावजूद भी हमारे समाज में बेटी में
फर्क करने की मानसिकता में बदलाव लाने और लड़कियों की दशा में अपेक्षित सुधार नहीं
हो पाया है। बड़े स्तर पर चलाए गए अभियानों के बावजूद लिंगानुपात की स्थिति बेहद चिंताजनक है। नीति आयोग के
अनुसार उत्तर प्रदेश में अभी भी प्रति हजार पुरुषों पर महिलाओं की संख्या मात्र 879 है, जबकि बिहार में यह संख्या 916 के बराबर है।
‘स्वस्थ राज्य और प्रगतिशील भारत’
नामक एक रिपोर्ट से पता चला था कि देश के 21 बड़े राज्यों में लिंगानुपात में गिरावट दर्ज की गई
है। रिपोर्ट के मुताबिक जन्म के समय लिंगानुपात के मामले में गुजरात की हालत सबसे
खराब है। गुजरात में लिंगानुपात की स्थिति भयावह तरीके से ध्वस्त हुई है। यहां
प्रति हज़ार पुरुषों के मुकाबले महिलाओं की संख्या 907 से घटकर मात्र 854 रह गई है। हालांकि कन्या भ्रूण हत्या के लिए बदनामी का दंश झेल रहे हरियाणा लिंगानुपात मामले में 35 अंकों की गिरावट के साथ दूसरे स्थान पर रहा है। इसके बाद क्रमश: राजस्थान में 32, उत्तराखंड में 27, महाराष्ट्र 18, हिमाचल प्रदेश में 14, छत्तीसगढ़ में 12, और कर्नाटक में 11 अंकों की गिरावट दर्ज की गई है। हालांकि उत्तर प्रदेश में लिंगानुपात में
सुधार हुआ है, जो आशाजनक तो है पर स्थिति अभी ऐसे भी नहीं है जिसे लेकर हम ज्यादा
उत्साहित हो सके। लिंगानुपात में मामूली सुधार के बावजूद इन राज्यों की स्थिति भी
इस मामले में कोई बहुत बेहतर नहीं है।
‘बेटी बचाओ, बेटी
पढ़ाओ’, ‘लाडली बेटी योजना’, ‘सुकन्या समृद्धि योजना’, ‘शुभ लक्ष्मी योजना’,
‘भाग्यश्री योजना’, ‘सेल्फी विद डॉटर’, ‘धनलक्ष्मी योजना’ जैसी सरीखी योजनाओं नारी
सशक्तिकरण की दिशा में बहुत अच्छा प्रयास है। अगर आंकड़ों पर नजर डालें तो इन
महत्वकांक्षी योजनाओं के परिणाम आशाजनक नहीं रहे। भारत में कन्या भूण हत्या रोकथान
को लेकर जिस तरह से कार्य किये जा रहे, जिस तरह सरकारी प्रयास किए जा रहे हैं,
हत्या रोकने के लिए जिस तरह से सरकारी योजनाओं को अमली जामा पहनाया जाता है या जा
रहा है, उसके बावजूद भी लिंगानुपात का बिगड़ता संतुलन गंभीर चुनौती है। ऐसे में
सवाल यही है कि लिंगानुपात की स्थिति क्यों नहीं सुधर रही है? आखिर कहां कमी रह गई
है हमारे प्रयासों में? ऐसे में इन योजनाओं के निर्माण और क्रियान्वयन और तंत्र
में लगे लोगो की अकर्मण्यता और इसके सम्पूर्ण तंत्र पर सवाल उठना स्वभाविक है। कोष
का सही तरीके से सही जगह पर उपयोग न हो पाने और इस महत्वपूर्ण कार्य के लिए इसमें
लगे व्यक्तियों में सामाजिक सुरक्षा के प्रति अस्थिरता प्रमुख है।
हालांकि उक्त कारणों के अतिरिक्त किसी सामाजिक कार्यक्रम अथवा सांझा प्रयास के
असफल होने में सामाजिक स्थिति भी सबसे अहम कारण होता है। यहां सरकार और तंत्र समाज
की रूढ़िवादी मानसिकता में खास बदलाव नहीं कर पाया। लिंग परीक्षण को लेकर देश में
कड़े कानूनों के होने के बावजूद भी आज अधिकांश लोग बेटे की ख्वाहिश के चलते लिंग
परीक्षण का सहारा ले रहे हैं और कन्या भ्रूण हत्याएं जारी हैं। आर्थिक सर्वे 2017-18 की रिपोर्ट देश के नागरिकों की सामूहिक सामाजिक अभिव्यक्ति प्रदर्शित करता है।
इस अभिव्यक्ति में इस दौरान करीब दो करोड़ लड़कियों का जन्म न चाहते हुए भी हुआ
अर्थात लड़कों की आस में लड़कियों का जन्म हो गया। एक अन्य रिपोर्ट में उजागर हुआ कि
जिसके चलते देश में महिलाओं की संख्या पुरुषों के मुकाबले करीब 5 करोड़ कम है क्योंकि पिछले कुछ वर्षों में प्रतिवर्ष देश में 3 से 7 लाख कन्याओं की ह्त्या उनको भूर्ण में ही नष्ट कर दी जाती हैं।
यह सर्व विदित हो
जाना चाहिए कि किसी भी देश के अन्दर सामाजिक, आर्थिक, रानीतिक व इसी तरह के अन्य
असंतुलन की वजह देश में शिक्षा का न होना होता है। लिंगानुपात के असंतुलन का सबसे
बड़ा कारण शिक्षा का न होने के साथ अंधविश्वास का ज्यादा फैलाव है। इसी कारण लड़के
और लड़कियों में भेदभाव किया जाता रहा है। आज तथाकथित शिक्षित समाज में भी यह
समस्या नासूर की भांति फैल रही है। सवाल यह है कि हमारा तथाकथित आधुनिक समाज किस
दिशा में जा रहा है? वह क्या सोच रहा है? क्या आज इस बात पर विचार किया जाना अनिवार्य
नहीं है कि ऐसा क्यों हो रहा है? आज भी हमारा शिक्षित समाज मध्यकालीन सोच से
ग्रस्त क्यों है? अगर उच्च शिक्षित, संपन्न शहरी लोग भी यह धारणा पाले बैठे हैं कि
उनका उनका वंश बेटे से ही चलेगा, तो अनपढ़ परिवेश से जुड़े लोगों की सोच पर किस
मूह से सवाल उठाएं? और हम विकास की बात कैसे कर सकते हैं? जब तक हमारे दिलो-दिमाग
में बेटे से ही वंश चलने की सोच बरकरार रहेगी, तब तक महज सरकारी योजनाओं के सहारे
हालात सुधरने की उम्मीद करना बेमानी होगी और सुधरने की उम्मीद भी नहीं की जा सकती।
बिना मानसिक सशक्तिकरण के संतुलन की उम्मीद नामुमकिन है।
विश्व के ज्यादातर देशों ने आजादी के बाद सामाजिक स्तर पर काफी विकास किया
लेकिन भारत में हम यहाँ भी पिछड़े ही साबित हुए। देश में जहां वर्ष 1950 में लैंगिक
अनुपात नौ सौ के करीब था, वह वर्ष 2011 की जनगणना के अनुसार नौ सौ उनतालीस रह गया है। गत दिनों सुप्रीम कोर्ट ने अनुपात में आई गिरावट को लेकर चिंता
जताते हुए इसका कारण जानना चाहा था। यहां एक सरकारी अध्ययन का ज़िक्र करना भी लाज़मी है
जिसमे यह निष्कर्ष निकाला गया कि अगर यही हालात रहे तो वर्ष 2031 तक प्रति एक हज़ार लड़कों के मुकाबले लड़कियों की संख्या 898 रह जाएगी। स्पष्ट है कि करीब 102 लड़के तो कुंवारे
ही रहेंगे। लिंगानुपात के बढ़ते असंतुलन के खतरनाक परिणामों का आभास इसी से हो जाता
है कि आज देश में राजस्थान, हरियाणा जैसे राज्यों में लोगों द्वारा बेटे की शादी
के लिए दूसरे राज्य से गरीब परिवारों की लड़कियां खरीद कर लाई जा रही हैं जिसमें
लोग ठगी के तो शिकार हो ही रहे हैं साथ दास प्रथा के प्रचलन को भी जाने-अनजाने में
फिर से शुरू कर रहे हैं। कन्या भ्रूण हत्या के लिए बदनाम हरियाणा जैसे राज्य में
तो इस सम्बन्ध में ‘मोलकी’ नामक प्रथा भी शुरू हो चुकी है। अब आलम ये है कि ये
प्रथा देश के दुसरे राज्यों में भी जहां लिंगानुपात ख़राब है किसी न किसी रूप में ज्यादा
ही प्रचलित हो रही है। दूसरी और लड़कों के विवाह के लिए लड़कियों के अपहरण की
घटनाएं भी जिस तेजी से बढ़ रही है। राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो की 2016 की रिपोर्ट छियासठ हज़ार दौ सौ पच्चीस लड़कियों के अपहरण में 33855 तैतीस हज़ार आठ सौ पचप्पन लड़कियों का अपहरण तो सिर्फ
शादी के लिए किया गया। इन कृत्यों से हमारा सामाजिक ताना बाना बुरी तरह से
छिन्न-भिन्न हो रहा है और समाज असामाजिकता की गुलामी की ओर अग्रसर हो चुका है।
क्या हमें अब नहीं सोचना चाहिए कि हम किधर जा रहे हैं? स्थिति कितनी भयावह हो चुकी
है? हमारी स्थिति इस मामले ठीक वैसी ही हो गई है कि कोई ज्वालामुखी के मुख पर
बैठकर भी आनंदमग्न हो!
भात के नीति आयोग ने भी अपनी रिपोर्ट में लिंगानुपात के असंतुलन को अत्यंत
गंभीर मानते हुए पूर्व गर्भाधान और प्रसव पूर्व निदान तकनीक अधिनियम अर्थात
पीसीपीएनडीटी एक्ट 1994 को लागू करने और लड़कियों के महत्व के बारें में
प्रचार करने के लिए जरुरी कदम उठाने की जरुरत पर बल दिया है। इसी एक्ट में राज्यों
को लिंग चयन कर गर्भपात की प्रवृति पर कड़ाई से अंकुश लगाने का आग्रह किया गया है।
इसी बीच यह सुखद बाद है कि हमारे समाज के सभी क्षेत्रों में महिलाओं की भागीदारी
बढ़ रही है, बल्कि कई क्षेत्रों में तो लडकियां लड़कों से आगे हैं। लेकिन लैंगिक
असमानता को लेकर जब तक लोगों की मानसिकता में अपेक्षित बदलाव नहीं आता, हालात में
सुधार की उम्मीद बेमानी होगी। जहां तक लोगो की मानसिकता में बदलाव लाने की बात है
तो नारी सशक्तिकरण एयर बेटियों को गरिमामय जीवन देने के लिए सरकार द्वारा कई योजनाएं चलाई जा रही है।
लेकिन यहां यह ध्यान रखना होगा कि कहीं ऐसा न हो कि विभिन्न सरकारी योजनाएं सरकारी
फाइलों या विभिन्न मंचों पर सरकारी प्रतिनिधियों द्वारा फोटो खिंचवाने की प्रथा तक
ही सिमित होकर भ्रष्टाचार को ही समर्पित हो जाएं। इसके लिए युद्ध स्तर पर जनजागर
अभियान की महती आवश्यकता है। इन योजनाओं के क्रियान्वयन में काफी अपेक्षित परिणाम
प्राप्त हुए है। लेकिन जमीनी स्तर पर इन योजनाओं को अमली जामा पहनाने वाले कर्मठ
व्यक्ति आज भी संविदा प्रथा के तहत स्वास्थ्य सेवाओं में एक दशक से अल्प मानदेय पर
कार्य कर रहे है। इसलिए सरकार को चाहिए कि
वो इन कार्मिकों की सामाजिक सुरक्षा की ज़िम्मेदारी को स्वीकारते हुए इनकी संविदा
नौकरी को स्थाई नौकरी में बहाल करने का कार्य करें।....इंक़लाब जिंदाबाद।
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