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Tuesday 22 May 2018

क्या संविदा नौकरी सरकार द्वारा प्रायोजित शोषण नहीं है?


डॉ. नीरज मील


भारत में संविदा पर नौकरी रखना किसी एक राज्य की नीति नहीं है। लेकिन क्या शोषण करना सरकार की जिम्मेदारी है? या मजबूरी या फिर किसी की मजबूरी का फायदा उठाकर मजाक बनाना? हाल ही में आज राजस्थान एनआरएचएम कार्मिको के द्वारा नियमितीकरण की मांग को लेकर सरकार से लड़ाई में उन्होंने दूसरी बार हड़ताल करते हुए 85वां दिन पूरा कर लिया है। इस हड़ताल के पीछे उनकी एकमात्र मांग है राज्य सेवा में स्थायीकरण। राज्य में करीब 1 लाख 80 हजार कार्मिक एक दशक से इनकी 10 सालों से अल्प मानदेय पर सरकार को अपनी सेवाएं दे रहे हैं। जनकल्याण कार्यकर्मों एवं राष्ट्रीय कार्यकर्मों में अपनी सेवाएं दे रहे हैं। हकीकत ये है कि अब ये कहीं जाने की काबिल भी नहीं रहे हैं। क्योंकि कुछ आयु सीमा पार कर चुके है तो अधिकतर संविदा सेवा में करवाए जा रहे अत्यधिक कार्य के कारण शैक्षणिक वस्तुस्थिति से दूर हो चुके है। ऐसे में क्या सरकार की नैतिक जिम्मेदारी नहीं बनती कि वह इन्हें  स्थाई करें। कमोबेश प्रत्येक राज्य में यही स्थिति हैI

राज्य में एनआरएचएम में इन हडताली कार्मिकों के साथ ही आयुष चिकित्सक, एएनएन, जीएनएमम, फार्मासिस्ट, इत्यादि कुल मिलाकर करीब 38 हज़ार कार्मिक 2007से 2009 के दरमियां संविदा पर लगे थे। 2014-15 में करीब 36हज़ार स्टाफ की भर्ती बोनस अंकों के आधार पर हो चुकी है। माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने भी इस बोनस अंकों के आधार पर की गयी भर्ती को जायज माना था। लेकिन मैनेजमेंट कैडर के अंतर्गत कार्यरत कार्मिकों को छोड़ दिया। मैनेजमेंट कैडर में काम कर रहे इन कार्मिकों की हालत और स्थिति आज भी बदतर है। उनकी कोई सुध लेने वाला नहीं है जबकि इनके साथ ही संविदा पर लगे आयुष चिकित्सक कंपाउंडर के साथ-साथ लैब तकनीशियनों व फार्मासिस्ट इत्यादि सब को स्थाई कर दिया गया है। मैनेजमेंट कैडर में कार्यरत इन कार्मिकों को आज भी स्थाई नहीं किया गया। इसी वजह से ये संविदा कार्मिक 45 दिनों की हड़ताल से इस से पहले इन्होंने 2017 में भी कर चुके हैं लेकिन कोई सुनवाई नहीं हुई। देखा जाए तो आज कुल मिलाकर 131 दिन का अपना मानदेय ताक़ पर रखकर सरकार के सामने विरोध जता रहे हैं और अपने स्थायीकरण की मांग को आगे बढ़ाया है। लेकिन अफसोस और विडंबना देखिए कि सरकार के जूं तक नहीं रेंगी। ऐसे में एक प्रश्न बहुत ही तीखा खड़ा होता है कि क्या संविदा पर नौकरी करवाना सरकार द्वारा गुलामी करना या गुलामी को बढ़ावा देना वाला कृत्य नहीं है जबकि सरकार एक आदर्श नियोक्ता है? अगर राज्य सरकार ही संविदा जैसे तुच्छ कार्य करेगी और अल्प मानदेय पर लोगों को रखेगी तो फिर निजी क्षेत्र के सामने क्या उदाहरण पेश किया जाएगा? यहां पर यह महत्वपूर्ण है कि क्या संविदा पर कार्य कर रहे लोगों के साथ उनकी सामाजिक सुरक्षा जुड़ी हुई नहीं होती? क्या उनके साथ परिवार जुड़े हुए नहीं होते? क्या संविदा पर कार्यरत नागरिक अपने भविष्य को लेकर सुनिश्चित नहीं हो सकता? ऐसे तमाम सवाल है जो सरकार को कटघरे में खड़ा करते हैं।
वैसे तो सरकार को जो चाहे वह कटघरे में खड़ा कर सकता है! वर्तमान परिपेक्ष में यही बात आम हो चुकी है। लेकिन ऐसी स्थिति क्यों बनती है? वर्तमान स्थिति के हिसाब से कहा जा सकता है कि ऐसी स्थिति इसलिए बनती है कि सरकार के पास जो अफसरशाही की एक लंबी जमात होती है वह अपने सिवा किसी दूसरे का हित चाहती ही नहीं। ऐसे में यह कहना उचित मुनासिब होगा कि सरकार अंधी होती है, बहरी भी। आंदोलनों के हिसाब से देखा जाए तो शहीद-ऐ-आजम भगत सिंह ने कहा था कि ‘बहरी सरकार को सुनाने के लिए धमाकों की जरूरत होती है।’ ऐसे में एक बहुत ही गंभीर किन्तु अनिवार्य प्रश्न उठता है कि ‘क्या वर्तमान परिपेक्ष में एनआरएचएम और इसी तरह के संविदा कार्मिकों को धमाका करना चाहिए?’ अगर शहीद-ऐ-आजम भगत सिंह के सिद्धांत के पालन और वर्तमान वस्तुस्थिति को मध्यनजर रखते हुए बात की जाए तो यह धमाका अनिवार्य है। लेकिन ऐसे में क्या हमारा सामाजिक ताना बाना छिन्न-भिन्न नहीं होगा?

लगातार हो रहे शोषण के विरुद्ध जब शांतिपूर्वक आवाज उठाई जाए और उस आवाज को सुनाया जाए ऐसे में आंदोलनकारियों द्वारा अनैतिक और गलत रास्तों पर चले जाना कोई बड़ी बात नहीं होती। वर्तमान परिपेक्ष को देखते हुए माओवादी और इसी तरह की जो हथियारबंद जमात है उसके पीछे भी कहीं न कहीं एक अन्याय और अनैतिक कृत्य जरुर कारण रहा होगा। ऐसे में एनआरएचएम संविदा कार्मिक जो एक दशक से ज्यादा अल्प मानदेय पर कार्य कर रहे हैं, अपने आप का शोषण के लिए सरकार द्वारा मजबूर हैं और सरकार इनका शोषण बदस्तूर कर रही है, स्थिति भयावह है। अब शोषण की इंतिहा ही है इसलिए मुझे ख़ौफ़ है कि कहीं यह आवाज उठाते उठाते हथियार न उठा ले। लेकिन सरकार के फिर भी शायद ही कोई फर्क पड़ेगा। सरकार के पास एक ऐसी मशीनरी है ऐसा मैकेनिज्म है जो इनकी आवाज को बंद करने के लिए काम में लिया जा सकता है। भले ही सरकार लोकतंत्र और न्याय की तमाम बातें करती हो लेकिन हकीकत यही है कि लोकतंत्र भी नहीं है और न्याय भी कहीं नजर नहीं आता है। आप पूछें जाकर उस शोषित वर्ग से जिनका लगातार शोषण हो रहा है। पूछिए कि न्याय कहां है? यह भी पूछिए उनका जो शोषण ज हुआ है वह कितना जायज है? और देश में कितना लोकतंत्र है? तो ये संविदा कार्मिक एक विचित्र ही उत्तर देंगे और सरकार एक अलग ही हास्यास्पद विचार रखेगी। संविदा कार्मिकों के उत्तर इतने गंभीर और इतने बड़े हैं कि उनको किसी भी स्तर तक हम समझ ही नहीं पाएंगे क्योंकि यह तर्क इतने असामान्य हैं और इतने ही मजबूत भी की इनको समझना एक बड़ा महाभारत ही सिद्ध होगा।

8 मार्च को जो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की एक जनसभा के दौरान इन संविदा कार्मिकों ने काले झंडे दिखाए। उन काले झंडों को सरकार द्वारा इन एनआरएचएम कार्मिकों का सरकार के खिलाफ विरोध ना मानकर विपक्षी दलों की करतूत करार देना सरकार की निजी और घटिया सोच ही सामने आती है। माना कि ये विरोध को विपक्ष की करतूत है तो फिर एनआरएचएम कार्मिकों पर राज्य कार्मिकों को भयाक्रांत करने, राज कार्य में बाधा डालने, आमजनता में भगदड़ होने की संभावनाओं जैसे आरोपों में गिरफ्तार करने का क्या औचित्य है? कई धाराएं लगाकर एनआरएचएम कार्मिकों एक देशद्रोही के रूप में पेश किया गया क्या यह उचित था? जहां भारत सरकार कश्मीर में पत्थरबाजी के आरोप में नामजद 9000 पत्थरबाजों को एक साथ रिहा कर देती है, उन पर से सारे चार्ज हटा लेती हैं, वहीँ आज 80 दिन गुजर जाने के बाद भी एनआरएचएम कार्मिकों पर लगे कोई भी चार्ज नहीं हटाए। वास्तव में यह सरकार की मानसिकता का एक बहुत ही ताजा उदाहरण है। और लोकतंत्र का एक काला सच भी जिससे कोई नहीं मुकर सकता। हमें सोचना होगा कि हम किस ओर जा रहे हैं? यह लेख किसी पार्टी विशेष का न तो विरोध करता है और नहीं समर्थन करता है। लेकिन लोकतंत्र के मायने को जरूर सबके सामने रखने का प्रयास करेगा। पत्रकारिता का जहां तक सवाल है मीडिया को लोकतंत्र का चौथा आयाम या चौथा स्तंभ भी कहा जाता है लेकिन आज आप देखिए कि मीडिया कितनी लाचार हो गई है। वह लिफाफों को लेकर इतनी संवेदनशील हो चुकी है कि पत्रकार कोई भी सवाल अपने विवेक से नहीं पूछता है। लिफाफे के साथ जो सवाल दिया जाता है वही सवाल वह पूछता है। क्यों एक पत्रकार कभी भी प्रति-प्रश्न नहीं करता है? अब इससे बड़ी अलोकतांत्रिक बात और क्या होगी कि पत्रकार प्रतिप्रश्न नहीं करता बल्कि नेताजी के सामने हाथ जोड़कर निवेदन करता है!
देश में अप्रैल 2005 में एनआरएचएम की शुरुआत की गई थी और जो कालांतर में भी अपना विस्तार करते हुए इसे एनएचएम बना दिया गया है यानी कि जो राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन था उसको शहरी क्षेत्र एवं ग्रामीण क्षेत्र हर जगह स्वास्थ्य मिशन लागू है। यह एक बहुत बड़ा मिशन बन चुका है वर्तमान संदर्भ में देखा जाए तो यह एक इतनी बड़ी जिम्मेदारी है जिसको हम निचले स्तर को कमतर नहीं आ सकते। लेकिन विडंबना ही देखिए कि इतना बड़ा कार्यक्रम होने के बावजूद इसमें सर्विस बे-रूल्स आज तक नहीं बनाए गए जबकि जब स्टेट हेल्थ सोसाइटी का गठन कर दिया गया और सहायक विकेन्द्रीकरण हेतु जिला हेल्थ सोसायटी बना दी गई। क्या यह एक मिशन निदेशक, जो इसमें सर्वे सर्वा नौकरशाह होता है उसकी अकर्मण्यता नहीं है? सर्विस बे-रूल्स के हिसाब से ही आप कार्मिकों की भर्ती कर सकते हैं, उन्हें वेतन दे सकते हैं। लेकिन आज दिनांक तक इनका निर्माण ना करना इस बात की ओर इशारा कर रहा है कि सरकारी मशीनरी किस तरह से अकर्मण्यता को प्राप्त कर रही। यह कर्तव्य के प्रति एक बहुत ही बड़ी लापरवाही और उदासीनता है। अफसर आते हैं अपने हिसाब से नियम बनाते हैं अपने हिसाब से लोगों को काम करवाते हैं,लोगों का शोषण करते हैं और अपने आप को सुप्रीम मानकर खुश हो जाते हैं। ये बड़े बाबू जी ही है जो अनिवार्य रूप से आवश्यक कार्यों लंबित रख कर अपनी उपयोगिता सिद्ध कर रहे है। क्या यही संविधान हैं? क्या यही लोकतंत्र है? क्या यही सरकारी मैकेनिज्म है? आप देखिए कि 2005 के बाद कितनी सरकारें बदल गयी, कितने मंत्री बदले और कितने अफसर बदले लेकिन स्थिति वही ढाक के तीन पात वाली रही। मुद्दे पर आएं तो सर्विस बे-रूल्स की तरफ किसी ने भी ध्यान नहीं दिया। कोई रेगुलेशन नहीं, कोई नियम नहीं। आपने एक बेरोजगार को बर्बाद करने के लिए मानदेय के रूप में 8000 रूपये दिए तो भी ठीक, आपने 5000 रूपये दिए तो भी ठीक। जबकि 2005 के बाद करीब दो पे कमीशन आ चुके। लेकिन इन कार्मिकों की स्थिति वही की वही है। अर्थात सरकारी मैकेनिज्म और सरकार के हिसाब से इन संविदा कार्मिकों पर न किसी महंगाई का असर हुआ है या किसी और परिस्थिति का असर हुआ है! शर्म की बात है। देश में आज भी स्थिति वही है जो आजादी से पहले थी। एक निष्पक्ष और उचित विश्लेषण से ज्ञात होता है किए जो अफसरशाही है जो किसी भी स्तर पर हो वह वास्तव में देश को पीछे धकेलने के लिए काफी है।

यहां यह जिक्र करना आवश्यक होगा कि अभी हाल ही में राजस्थान  पंचायती राज मंत्री राजेंद्र राठौड़ ने एक बयान जारी किया। एक सवाल के जवाब में कहा कि एक लाख अस्सी हज़ार संविदा कार्मिकों को स्थाई करने की कोई सरकारी योजना नहीं है। महाशय जी, आप से अगर कोई प्रति-प्रश्न पूछता तो बेहतर होता। लेकिन मैं यहां इस आलेख के माध्यम से पूछना चाहूंगा कि आपने सुराज संकल्प यात्रा के दौरान यह वादा किया था कि संविदा कार्मिकों को स्थाई करने के लिए एक नीति बनेगी। लेकिन आज जब सरकार अपना संपूर्ण कार्यकाल लगभग पूरा कर चुकी है उसके बावजूद भी ऐसी कोई योजना या नीति आप ने नहीं बनाई तो क्या यह सरकार की विफलता नहीं है? यह सिर्फ एक मुद्दा नहीं है, ऐसे बहुत सारे मुद्दे हैं जो अभी तक यूँ यहीं पड़े हैं। ऐसे में प्रश्न यह उठता है कि सरकार ने क्या कार्य किया? सिद्ध हो चूका है सरकार में आने के लिए नेताजी और पार्टियाँ सिर्फ वादें ही करती और बाद में वायदों के इर्द-गिर्द जनता को घुमाते हैं, शोषण करते हैं, जनता को मूर्ख बनाते हैं और राज कर जाते हैं अपना कोटा पूरा कर लेते हैं।


स्वास्थ्य के क्षेत्र में बड़े बड़े घोटाले देश में बहुत देखने को मिले हैं। यूपी-बिहार, राजस्थान, व गुजरात सहित कई राज्यों में एनआरएचएम में बड़े घोटाले उभरकर सामने आए। ऐसे में सवाल उठता है कि क्या सरकार का मैकेनिज्म सिर्फ घोटाले करने के लिए है? बहुत सारी योजनाएं ऐसी हैं जिनका कोई औचित्य नहीं है फिर भी वे जारी है। इन योजनाओं में हजारों करोड़ रुपए खर्च होते जा रहे हैं और सरकार के पास इन संविदा कर्मियों को स्थाई करने के लिए, इनको उचित मानदेय देने के लिए पैसा नहीं। काश इन संविदा कार्मिकों को स्थायी करने के लिए भी कोई घोटाला हो। वर्तामान में इन सविदा कार्मिकों को स्थाई करना न केवल राज्य का नैतिक कर्तव्य है बल्कि वर्तमान में राज्य के बेहतर भविष्य की अनिवार्यता भी। आगे से सरकार को संविदा की ये नीति छोड़ दे। स्पष्ट है संविदा नौकरी रखना सरकार द्वारा प्रयोजित शोषण है...इंक़लाब जिंदाबाद।


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