-डॉ.
नीरज मील ‘नि:शब्द’
29 अप्रैल 2018 को कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी के नेतृत्व में दिल्ली
अवस्थित रामलीला मैदान में एक जन आक्रोश रैली का आयोजन किया गया। इस आयोजन में राष्ट्र के प्रत्येक कोने से कांग्रेस
कार्यकर्ताओं का जमावड़ा रहा। इसी रैली पर यह
आज का आलेख आधारित है। मेरे हिसाब से
लेखक को हमेशा स्वतंत्र लेखनी के साथ आगे बढ़ना चाहिए। इस आलेख में मैं यह प्रयास करूंगा। जन आक्रोश रैली को संबोधित करते हुए भारतीय जनता पार्टी को
न केवल आड़े हाथों लिया कोंग्रेस अध्यक्ष ने इस रैली के माध्यम से भारतीय जनता
पार्टी को सीधी चुनौती भी दे डाली। उन्होंने कहां
की भारत की धर्मनिरपेक्षता पर हर भारतीय को गर्व रहा है। तात्कालिक परिस्थितियों पर तंज कसते हुए राहुल गांधी ने
कहा कि पिछले 4 साल में भाजपा के
राज में भारत की विकास व प्रगति की रफ्तार मानो थम गयी है। आम जनता विशेषकर गरीब आदमी का सरकार से विश्वास उठ गया है। उन्होंने यह भी आरोप लगाया कि नोटबंदी और जीएसटी से
भारत के आर्थिक ढांचे को तो नुकसान पहुंचा ही है बल्कि इस नुकसान के साथ-साथ
ग्रामीण अर्थव्यवस्था तो चारों खाने चित आई है। लघु उद्योग के चौपट होने की बात भी कही। मजदूरों में मजदूरी के अवसर खत्म होने, इंडिया और
भारत के बीच की दूरी बढ़ने एवं भ्रष्टाचार पर भी लगाम न कसने का आरोप भी राहुल
गांधी द्वारा इस रैली के माध्यम से लगाया गया। कुल मिलाकर यह रैली कार्यकर्ताओं में जोश भरने के लिए
आयोजित की गई थी। जितनी उम्मीद थी
उससे कम भीड़ हुई। वास्तव में
राहुल गांधी का भाषण सुनने में बड़ा ही मधुर और आरोपों के दरमियां बहुत ही उम्दा
साबित हुआ। लेकिन इस बीच यह
भाषण कितना अच्छा रहा? कितना बुरा रहा? कितना प्रभावी रहा? और कितना अप्रभावी रहा?
ये भी एक चर्चा का विषय बन गया। लेकिन निष्पक्ष
मुल्यांकन करें तो हमें देखना चाहिए कि उन्होंने विशेष सुझाव क्या दिए? विपक्ष के
नेता के रूप में, विपक्ष की पार्टी के नेता के रूप में या फिर अपने आप को भावी
प्रधानमंत्री पद के लिए प्रस्तुत करने की दृष्टि से! जो भी हो लेकिन सुझाव पक्ष
नदारद ही रहा। ऐसी दशा में हम
निष्कर्ष के रूप में यह नहीं कह सकते कि उनका भाषण अच्छा था या आरोप अच्छे थे या फिर तमाम प्रकार की बातें। लेकिन यह सच है कि राज कांग्रेस का हो या फिर भारतीय
जनता पार्टी का, बेरोजगारों की कोई सुध लेने वाला नहीं है। देश में बेरोज़गारी की स्थिति इतनी भयावह है कि एक चपरासी
पद के लिए भी पोस्ट ग्रेजुएट क्या पीएचडी किया हुआ भी कतार में लगा हुआ दिखाई दे
रहा है। सत्ता में शामिल
लोग इस बात से बेफिक्र हैं कि युवाओं को क्या चाहिए। युवाओं को जो चाहिए उसके बारे में कोई सोचना ही नहीं चाहता। सरकार जो कर रही हैं उससे युवाओं को कोई फायदा नहीं। ऐसी स्थिति में भी सत्तासीनों को नसीहतें गढ़ते ही
देखा गया है। कभी पकोड़ों से देश को रोज़गार मिल जाता है तो कभी जिओ से। सत्ता में शामिल लोग खुद बलात्कारियों की हिमाकत
करते नजर आते हैं। हर आर्थिक व
सामाजिक समस्या को हिंदू मुसलमान के चश्मे से देखने की नसीहतें गढ़ी जाती है या फिर
कुछ और परोस दिया जाता है कि सब कुछ उसी के पीछे लगा दिया जाता है। देश अपनेआप बदल रहा है वास्तव में देखा जाए तो 2014 में जनता द्वारा
सारे रिकोर्ड, धारणाएं ताक़ पर रखते हुए एक पार्टी को पूर्ण बहुमत की अवधारणा के
चलते मोदी सरकार की ताजपोशी की थी। लेकिन वर्तमान
परिपेक्ष में देखें और जनता के दिल की टटोलने की कोशिश करें तो जनता न इस सरकार से
खुश हैं और उन्हें कांग्रेस को सत्ता सौपने के मूड में। ऐसे में क्या कहा जाए है? वर्तमान में देश में दो ही
पार्टियां नजर आती है एक भारतीय जनता पार्टी तो दूसरी कांग्रेस। कहने को मुल्क में बहु-दल योजना है लेकिन यहां पर
सिर्फ द्विदल व्यवस्था ही नजर आ रही है।
वैसे भारत कभी भी किसी राजनीतिक दल का गुलाम नहीं रहा है
लेकिन भारत के लोगों के पास विकल्प भी नहीं हैं। राहुल गांधी ने अपने भाषण में कहा कि भारत में 1952 के आम चुनाव
जिनमें पंडित जवाहरलाल नेहरू जैसी महान शख्सियत का मुकाबला करने के लिए 400 से ज्यादा
राजनीतिक दलों का गठन हो गया था और उनमें से 70 से अधिक ने इन चुनाव में हिस्सा लिया था। तब पंडित नेहरू ने कहा था कि भारत में लोकतंत्र उतना
ही मजबूत होगा जितना परस्पर विरोधी विचारधाराएं देश के विकास और निर्माण के लिए
विकल्प प्रस्तुत करेंगे लेकिन इनका आधार केवल अहिंसात्मक रास्ता ही होना चाहिए। जैसे-जैसे समय बीता वैसे-वैसे स्थितियां व परिस्थितियां
भी बदली। आज हम इस दौर
में आ खड़े हुए जहां पर सोशल मीडिया या फिर न्यूज़ चैनलों के माध्यम से बात की जाए
तो देश से असली मुद्दे ही गायब हैं। हिंदू-मुस्लिम
जैसी भ्रांतियां सबके सामने आम है। कभी कांग्रेस कठुआ के बलात्कार की घटना को लेकर
देशभर में प्रदर्शन कर रही है तो वहीं कांग्रेस गीता के बलात्कार को लेकर चुप्पी
साध बैठती है। यही हालत भारतीय
जनता पार्टी की ही नजर आती है।
सवाल भाजपा या कांग्रेस का नहीं है सवाल भारत के
युवाओं का है। अब उन्हें सोचना
होगा, सवाल करना सीखना होगा। आंखें मूंद कर
किसी बात पर विश्वास करने से बचना होगा और हमें धर्म के अफीम से खुद को महफूज रखना
होगा। प्रधानमंत्री
नरेंद्र मोदी ने भी रविवार को मन की बात कार्यक्रम में रमजान और बुद्ध की बात की
लेकिन वे भूल गए कि धर्म विभेद पैदा कर सकता है खत्म नहीं। अब प्रश्न ये उठाना लाज़मी है कि इस तरह जब एक प्रधानमंत्री
सीधे संवाद में देश की जनता को रमजान और बुद्ध इसी तरह के अन्य इसी तरह के अन्य
वर्गीकरण करना कहाँ तक उचित हैं? क्या ये नागरिकों को धर्म अथवा आस्था अथवा अन्य
विषय पर बांटा नहीं गया?
अब हमें ही यह
देखना होगा, समझना होगा और विभेद करना सीखना होगा कि क्या सही है क्या गलत? क्या
उचित है क्या अनुचित? वैसे यह काम शिक्षा का है लेकिन चूँकि देश में शिक्षा
प्रणाली या शिक्षा व्यवस्था ऐसी है नहीं जो शिक्षा दे सकें। देश की शिक्षा व्यवस्था तो सिर्फ नौकरी करने के बारे में सोचती है या सोचने की करने दे
सकती है, रोजगार पैदा नहीं करवा सकती। ऐसी स्थिति में हमें ही अतिरिक्त रूप से सीखना होगा और जो
विकास रूपी एजेंडे चलते हैं उन पर आंखें मूंदकर भरोसा करने से पहले उन्हें परखना
होगा। हो सकता है कि
कोई एक व्यक्ति ईमानदार हो लेकिन एक व्यक्ति के इमानदारी के चलते हम पूरे समूह पर
विश्वास कर ले यह असंभव बात है। ठीक यही बात
हमारे देश की राजनीतिक पार्टियों पर भी लागू होती है। खैर लोकतंत्र में मुद्दे उठते रहते हैं। हवाएं और अंगारें बनते रहते हैं। देशवासियों को नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में पूरी तरह
से न सही लेकिन कुछ हद तक विश्वास अब भी कायम है। लेकिन यह देखना होगा कि नरेंद्र मोदी का मतदाताओं पर क्या
असर होगा? क्या नरेंद्र मोदी एक विजन दे पायेंगे जिसकी देश को सख्त जरूरत है या
फिर आक्रोश में से कोई नयी किरण निकलेगी! अंतिम फैसला देश का मतदाता ही करेगा भले
ही प्रणाली कुछ भी हो।सबसे पहले भाजपा और कांग्रेस दोनों का शुक्रिया और फिर अंत में मैं तो देश के युवाओं और जनता से इतना
ही कहूँगा कि-
“खामोशियों की इतनी लम्बी तलब अच्छी नहीं साहेब.. ।
कुछ तो सोचिए ये मुल्क आपका भी तो है जनाब ।।”
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