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Monday 28 May 2018

बिखराव: धूमिल होते पारिवारिक महत्व की तस्वीर?

- डॉ. नीरज मील  


   समूचे संसार में लोगों के बीच परिवार की अहमियत बताने के लिए मैं मेरी कलम से ये आलेख लिख रहा हूँ। भले इस आलेख को अहमियत न मिले लेकिन सामजिक संवेदना और उतरदायित्व के चलते में अपने लेखन के कर्तव्य से नही मुकर सकता। लेखन का भी सामाजिक तस्वीर पेश करने का दायित्व है ताकि समाज को एक बेहतर दिशा मिल सके। वर्तमान परिपेक्ष में देखा जाए तो  जिस चीज की सबसे ज्यादा जरूरत है वह है बिखरते परिवारों को रोकना। वास्तव में ये एक ऐसा लक्ष्य है जिसे जितना जल्दी प्राप्त कर लिया जाए उतना ही अच्छा है।
वैसे तो परिवार की महत्ता समझाने के लिए विभिन्न कार्यक्रम आयोजित किए जाते हैं। स्पष्ट है कि किसी भी समाज का केंद्र परिवार ही होता है। परिवार ही हर उम्र के लोगों को सुकून पहुँचाता है। दरअसल सही अर्थों में परिवार वह संरचना है, जहां स्नेह, सौहार्द, सहयोग, संगठन, सुख-दुःख की साझेदारी, सबमें सबके होने की स्वीकृति जैसे जीवन-मूल्यों को जीया जाता है। जहां सबको सहने और समझने का अवकाश है, अनुशासन के साथ रचनात्मक स्वतंत्रता है। निष्ठा के साथ निर्णय का अधिकार है। जहां बचपन सत्संस्कारों में पलता है। युवकत्व सापेक्ष जीवनशैली में जीता है। वृद्धत्व जीए गये अनुभवों को सबके बीच बांटता हुआ सहिष्णु और संतुलित रहता है।
आज उक्त सभी बातें कागजी हो चली हैं, आज इस परिवार की संरचना में आंच आयी हुई है। अपनों के बीच भी परायेपन का अहसास पसरा हुआ है। विश्वास संदेह में उतर रहा है। संवेदनाएं मर चुकी हैं, समर्पण लुप्त हो चुका है, कोई किसी को सहने और समझने की कोशिश नहीं कर रहा है। इन स्थितियों पर नियंत्रण की दृष्टि विश्व में परिवार के महत्व को जानने की प्रासंगिकता आज अधिक सामने आ रही है। परिवार सामाजिक संगठन की मौलिक इकाई है। परिवार के अभाव में मानव समाज के संचालन की कल्पना भी बेमानी है। प्रत्येक व्यक्ति को किसी-न-किसी रूप में परिवार का सदस्य होना ही होता है। उससे अलग होकर किसी भी व्यक्ति के अस्तित्व को नहीं सोचा जा सकता। किसी भी देश की संस्कृति और सभ्यता भले ही कितने ही परिवर्तनों को स्वीकार करके अपने को परिष्कृत कर ले, लेकिन परिवार संस्था के अस्तित्व पर कोई भी आंच नहीं आई। वह बने और बन कर भले ही टूटे हों लेकिन उनके अस्तित्व को नकारा नहीं जा सकता है। परिवारों के स्वरूप में परिवर्तन आया और उसके मूल्यों में परिवर्तन हुआ लेकिन उसके अस्तित्व पर प्रश्नचिह्न नहीं लगाया जा सकता है। हम चाहे कितनी भी आधुनिक विचारधारा में हम पल रहे हों लेकिन अंत में अपने संबंधों को विवाह संस्था से जोड़ कर परिवार में परिवर्तित करने में ही संतुष्टि अनुभव करते हैं। स्पष्ट है कि परिवार मानव के जीवन अस्तित्व का वजूद हैं लेकिन बावजूद इसके क्यों परिवार बिखर रहे हैं? परिवार संस्था के अस्तित्व पर क्यों धुंधलके छा रहे हैं? इस तरह के बहुत से  प्रश्न समाधान चाहते हैं। लेकिन हकीकत ये है कि समाधान है नहीं केवल प्रश्न ही हैं।
सच यही है कि आज संयुक्त परिवार बिखर रहे हैं। एकल परिवार भी तनाव में तिन-तिन के जी रहे हैं। बदलते परिवेश में पारिवारिक सौहार्द का ग्राफ नीचे की ओर तेजी से अग्रसर है, जो एक गंभीर समस्या है। जहां परिवार से पृथकता ही अस्वीकार्य है, परिवार के मूल आधार स्नेह में भी खटास पड़ जाती है। समस्या इसलिए हैं क्योंकि अधिकांश परिवारों ने समाधान के अति सरल उपायों पर विचार ही नहीं किया या फिर यों कहें कि अपनी रूढ़िवादिता की झोंक में विचार करना पसंद ही नहीं किया। मेरे विचार से, स्नेह, सम्मान और स्वतंत्रता की प्रतिबध्दता ही समाधान का मूल है। यदि तीनों का परस्पर अंतर्संबंध समझकर उन्हें आचरण में उतार लें, तो घर को बनते देर नहीं लगेगी। दुनिया भर की धन दौलत व्यक्ति को वह सुकून नहीं दे सकती, जो स्नेह और सम्मान का मधुर भाव देता है। आप स्वयं ही विचार करें कि एक व्यक्ति अपने परिवार से और क्या चाहेगा ? मात्र सास बहू के संबंध में ही नहीं बल्कि पिता और पुत्र, माँ और बेटी, देवरानी जेठानी, ननद और भाभी, भाई भाई आदि हर रिश्ते पर यह बात लागू होती है। आप सामने वाले को स्नेह, सम्मान और स्वतंत्रता दीजिए, प्रतिफल में आपको भी उससे यही मिलेगा।
     संयुक्त राष्ट्र संघ ने भी 1994 को अंतर्राष्ट्रीय परिवार वर्ष घोषित किया था। समूचे संसार में लोगों के बीच परिवार की अहमियत बताने के महत्व को इंगित करने के लिए हर साल 15 मई को अंतर्राष्ट्रीय परिवार दिवस मनाया जाने लगा। 1995 से यह सिलसिला जारी है। लेकिन आज जो स्थिति सबके सामने कड़ी हुई है वो इन सब बातों को धत्ता बताकर हुई है। क्या ये एक सामन्य बात है? नहीं, क्योंकि यह स्थिति धीरे-धीरे विशाल हुई है।
आप अपनी बुद्धि और विवेक से यह विचारें कि पारिवारिक सुख शांति अधिक महत्वपूर्ण है अथवा रूढ़िवादिता या आधुनिकता? बंधी बंधाई लीक पर चलकर कोई उपलब्धि भी हासिल न हो बल्कि जो कुछ अच्छा था, वह भी छूटता जाए तो फिर ऐसे नियम का पालन किस काम का? साड़ी और सिर पर पल्लू की अनिवार्यता, पति समेत घर के सभी सदस्यों से पहले भोजन न करने की कड़ाई, सास ससुर से हास-परिहास न करने की कूपमण्डूपता, ननद देवर के छोटे-छोटे बच्चों को जी और आप कहने की औपचारिकता, पति के साथ भ्रमण व मनोरंजन न करने और महत्वपूर्ण व्यक्तिगत व पारिवारिक फैसलों में भागीदारी न होने की कथित संस्कारशीलता से आज तक कौन-सा परिवार कोई ऐसी महान उपलब्धि हासिल कर पाया है, जिससे उपर्युक्त आचरण की सार्थकता सिद्ध होकर उसका नाम इतिहास के स्वर्णाक्षरों में दर्ज हो गया हो? सच तो यह है कि ऐसे परिवार, जहां की आधा प्रतिशत जनसंख्या ऐसे घुटन भरे माहौल में जीती है, उपलब्धि की दृष्टि से औसत और पारस्परिक संबंधों की दृष्टि से यांत्रिक बनकर रह जाते हैं।

जिस तरह साइकिल चलाने के लिए संतुलन, नजर और शारीरिक हलचल में साम्य चाहिए ठीक उसी प्रकार पारिवारिक सुख और शांति के लिए स्नेह, सम्मान और स्वतंत्रता का संतुलन जरूरी है। जैसा बोया, वैसा काटोगेके सर्वकाल सत्य के आधार पर कहा जा सकता है कि जो भाव और व्यवहार हमारा दूसरों के प्रति होगा, वही हमें भी प्रतिफल में मिलेगा। तभी सुखअपनी पूर्णता को प्राप्त करेगा और तब आपका घर ऐसे अटल सुख, मंगल व शांति से भर उठेगा, जिसकी सुगंध से आपके मन प्राण ही नहीं, आत्मा भी तृप्त होगी और आत्मा की तृप्ति ही तो समस्त तृप्तियों का मूल है। सुखद पारिवारिक जीवन के लिये संस्कार और सहिष्णुता भी जरूरी है। जिनके पास संस्कारों की सृजना होती है, उनके लिए वे संस्कार आलम्बन बन जाते हैं और व्यक्ति और परिवार संभल जाते हैं। गृहस्थ समाज में सुखी गृहस्थ जीवन व्यतीत करने के लिए सहिष्णुता की बहुत जरूरत है, अपेक्षा है, जिसकी आज बहुत कमी होती जा रही है। सहन करना जानते ही नहीं हैं। पत्नी हो, मां-बेटे, मां-बेटी, भाई-भाई, भाई-बहन, सास-बहू, गुरु-शिष्य कहने का अर्थ है कि प्रायः सभी में सहिष्णुता की शक्ति में कमी हो रही है।
     एक व्यक्ति अपने भाई को सहन नहीं करता, माता-पिता को सहन नहीं करता और पड़ोसी को सहन कर लेता है। यह प्रकृति की विचित्रता है। सहन करना अच्छी बात है। लेकिन घर में भी एक सीमा तक एक-दूसरे को सहन करना चाहिए, तभी छोटी-छोटी बातों को लेकर मनमुटाव व नित्य झगड़े नहीं होंगे। इन्सान की पहचान उसके संस्कारों व आदर्शों के बल पर बने चरित्र से बनती है। सद्संस्कार उत्कृष्ट अमूल्य सम्पदा है जिसके आगे संसार की धन दौलत का कुछ भी मोल नहीं है। सद्संस्कार मनुष्य की अमूल्य धरोहर है, मनुष्य के पास यही एक ऐसा धन है जो व्यक्ति को इज्जत से जीना सिखाता है और यही सुखी परिवार का आधार है। वास्तव में बच्चे तो कच्चे घड़े के समान होते हैं उन्हें आप जैसे आकार में ढालेंगे वे उसी आकार में ढल जाएंगे। मां के उच्च संस्कार बच्चों के संस्कार निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। इसलिए आवश्यक है कि सबसे पहले परिवार संस्कारवान बने, माता-पिता संस्कारवान बनें, तभी बच्चे संस्कारवान चरित्रवान बनकर घर की, परिवार की प्रतिष्ठा को बढ़ा सकेंगे। अगर बच्चे सत्पथ से भटक जाएंगे तो उनका जीवन अंधकार के उस गहन गर्त में चला जाएगा जहां से पुनः निकलना बहुत मुश्किल हो जाएगा।
     प्रख्यात साहित्यकार जैनेन्द्रजी ने इतस्तत में कहा है, “परिवार मर्यादाओं से बनता है। परस्पर कर्तव्य होते हैं, अनुशासन होता है और उस नियत परम्परा में कुछ जनों की इकाई हित के आसपास जुटकर व्यूह में चलती है। उस इकाई के प्रति हर सदस्य अपना आत्मदान करता है, इज्जत खानदान की होती है। हर एक उससे लाभ लेता है।'' आज की भोगवादी संस्कृति ने उपभोक्तावाद को जिस तरह से बढ़ावा दिया है उससे बाहरी चमक-दमक से ही आदमी को पहचाना जाता है। यह बड़ा भयानक है। उससे ही अपसांस्कृतिक मूल्यों को बढ़ावा मिलता है और ये ही स्थितियां पारिवारिक बिखराव का बड़ा कारण बन रही हैं। वही आदमी श्रेष्ठ है जो संस्कृति को शालीन बनाये। वही औरत शालीन है जो परिवार को इज्जतदार बनाये। परिवार इज्जतदार बनता है तभी सांस्कृतिक मूल्यों का विकास होता है। उसी से कल्याणकारी मानव संस्कृति का निर्माण हो सकता है।

     भारत ही नहीं सम्पूर्ण विश्व को आज सांस्कृतिक क्रांति का इंतजार है। यह कार्य सरकारी तंत्र पर नहीं छोड़ा जा सकता है। सही शिक्षा और सही संस्कारों के निर्माण के द्वारा ही परिवार, समाज और राष्ट्र को वास्तविक अर्थों में स्वतंत्र बनाया जा सकता है पारिवारिक सौहार्द के इस तरह के प्रयत्न हमारे परिवारों के लिये संजीवनी बन सकती है। इससे जहां हमारी परिवार परम्परा और संस्कृति को पुनः प्रतिष्ठापित किया जा सकेगा। वहां स्वस्थ तन, स्वस्थ मन और स्वस्थ चिन्तन की पावन त्रिवेणी से स्नात होने का दुर्लभ अवसर भी प्राप्त हो सकेगा। स्पष्ट है कि आज परिवार की जरूरत ख़त्म तो नहीं हुई....इंक़लाब जिंदाबाद!!




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