-डॉ. नीरज मील
“कर्नाटक मूल रूप से किसानों का राज्य है। किसानों के मसीहा और देश के ईमानदार राजनीतिज्ञ चौधरी चरणसिंह के शिष्य और वर्तमान मुख्यमंत्री सिद्धारमैया जिन्होंने
दक्षिण भारत में किसान मूलक सैद्धांतिक राजनीति के पांव जमाने में ग्रामीण कर्नाटक
के लोगों को सत्ता का हकदार बनाने में अपने प्रारंभिक जीवन में भारी संघर्ष किया
है।"
किसी भी देश के राजनैतिक दलों की वास्तविक विचारधारा का चित्रहार उसके द्वारा
किये गए चुनाव प्रचार अभियान में देखा जा सकता है। इंडिया के राजनैतिक दलों का यह
चित्रहार कर्नाटक विधानसभा के चुनाओं के प्रचार के दौरान देखने को खूब मिल रहा है।
शिक्षा के आभाव के कारण देश की जनता भी उन बातों या मुद्दों को तवजों दे रही है जो
वास्तव में न उनके कम के है और न ही देश के। कर्नाटक विधानसभा चुनाओं में भी यही
हाल हैं। यहां राजनीतिक दलों की बौखलाहट साफ़ देखी जा सकती है। जो मुद्दे राजनितिक
दलों द्वारा उठाये जा रहे हैं वे इन दलों के वैचारिक दिवालियेपन के सबूत ही साबित
हो रहे हैं। दक्षिण फिल्मों की कहानियों की तरह यहां की सरकारे वास्तव में भू और
खनन माफियों की कठपुतलियां हैं। चुनाव आते ही राजनीतिक दल उन मुर्दों को उखाड़ लेते
है जिनका राज्य के वर्तमान और भविष्य से कोई लेना देना नहीं होता है। राज्य में
खनन माफियों के और भ्रष्टाचार के मुद्दों को एक उच्च किस्म की बेशर्मी से ढका जा
रहा है। इस तरह से ये न केवल आश्चर्यजनक है बल्कि राज्य के मुस्तकबिल के लिए चिंता
का विषय भी है। 2008 से 2013 का येदियुरप्पा शासनकाल वास्तव में इसी खनन माफिया की
रहमो-करम से सम्पन्न हुआ था। सिद्धारमैया ऐसे व्यक्तित्व है जो ‘अकेला चना भाड़ नहीं
फोड़ सकने’ की कहावत को झूठा साबित करने का मादा रखने वाले हैं। इसी वजह से
सिद्धारमैया के सामने सारे राजनीतिक दल नतमस्तक हो रहे हैं। यह वास्तव में
विस्मयकारी ही है कोंग्रेस जैसी पार्टी में पहली बार किसी क्षेत्रीय नेता ने अपनी
काबलियत का जलवा दिखाया है और राष्ट्रीय नेतृत्व को झुकाया है। सिद्धारमैया ने खुद
को एकमात्र ऐसा नेता पेश किया है जो विपक्षी दलों की मन की बात भांपकर खुद को
स्थापित किया है।
सिद्धारमैया ने ही अपनी दूरदर्शी सोच के चलते ‘कन्नाडिगा
अस्मिता’ का मुद्दा हो या फिर लिंगायत समाज को धर्म के रूप में मान्यता देने का
मामला हो हर मोर्चे पर सिद्धारमैया ने सभी दलों की उम्मीदों पर पानी फेरते ही नज़र
आ रहे है। भाजपा जैसे राजनीतिक दलों की स्थिति ठीक उसी प्रकार की है जैसे किसी को
निहत्थे कर देना। कर्नाटक में भाजपा के हाथ में चुनावी हथियार दिखाई नहीं दे रहा
है सिवाय राहुल गांधी पर मज़ाक बनाने के। भाजपा जिस हिंदुत्व को सबसे बड़े हथियार के
रूप में इस्तेमाल करने की सोच रही थी वो भी लिंगायत को धर्म की मान्यता मिलने के
बाद अप्रभावी हो गया है। सबसे बड़ी चुनाव प्रचार की जीत सिद्धारमैया की तब हुई जब
वे अन्य मुद्दों को हटाकर राज्य और केंद्र के मुद्दों को एक समान कर दिया। मैसूर
के एतिहासिक चरित्र टिप्पू सुलतान को लेकर भी राजनैतिक रोटियां सेंकने की कोशिश की
जा रही है।
जिस तरह से मुद्दे हवा हो रहे हैं वो निश्चित कर्नाटक के लिए चिंता का विषय है।
देश की जनता हर 5 साल बाद राष्ट्रीय और राज्य स्तर पर अपने वोट के अधिकार का अधिकार इस्तेमाल कर
अपने लिए सेवक तय करती हैं। इन सेवकों से जनता अपेक्षा करती है कि वो जनता की
सम्पति की सुरक्षा एक सजग चौकीदार की तरह करेंगे। अगले चुने हुए नौकरों के हाथ में
इसमें इजाफा करके पूरा हिसाब-किताब कर सौपेंगे। लेकिन कर्नाटक के चुनावों में कुछ
अलग ही सिद्ध होने जा रहा है। उन बेईमानों को ईमानदार घोषित करने की होड़ मची हुई
है जो खुले आम जनता के सरमाये पर डाका डालते हैं। कर्नाटक मूल रूप से किसानों का
राज्य है। किसानों के मसीहा और देश के ईमानदार राजनीतिज्ञ चौधरी चरणसिंह के शिष्य
और वर्तमान मुख्यमंत्री सिद्धारमैया जिन्होंने दक्षिण भारत में किसान मूलक
सैद्धांतिक राजनीति के पांव जमाने में ग्रामीण कर्नाटक के लोगों को सत्ता का हकदार
बनाने में अपने प्रारंभिक जीवन में भारी संघर्ष किया है। यदि निष्पक्ष विश्लेषण
किया जाए और बेबाकी के साथ कहा जाए तो देवराज अर्स के बाद सिद्धारमैया कर्नाटक के ऐसे नेता है
जिन्होंने राष्ट्रीय राजनीति के नायकों को अपने व्यक्तित्व से चुनौती दे रखी है।
इस राज्य के चुनाव को हम असाधारण इसलिए कहेंगे क्योंकि एक बार फिर यहां की अस्मिता
अपना रुतबा तलाश रही है। धन और बाहुबल के बूते पर राजनीति करने वालों को उनकी सही
जगह दिखाना चाहती है। लेकिन चुनाव में जो राजनीतिक विमर्श आम जनता को परोसा जा रहा
है उससे ऐसा लगता है कि चुनाव किसी राज्य की सरकार के लिए नहीं बल्कि किसी मुंशी
पार्टी पर कब्जा करने के लिए हो रहे हैं। भाषा ऐसी है कि राज्य के मूलभूत मुद्दों
से जनता का ध्यान भटकाने की कोशिश की जा रही है। दक्षिण भारत के इस प्रवेश द्वार
को बहुत ही फूहड़ और निहायत ही गन्दी राजनीति में उलझाया जा रहा है।
भारत जैसे विकासशील देश और कर्नाटक में अब
मुख्य मुद्दे खेती और किसान, बरोजगार और रोज़गार तथा कावेरी जल विवाद बचते हैं। शिक्षा
का मुद्दा अतिमहत्वपूर्ण होते हुए भी यहां गौण ही है। कावेरी नदी का जल विवाद
अन्तर्राज्यीय है जिसका समाधान बिना केंद्र की भूमिका के संभव नहीं है। दूसरा
बेरोजगारों को रोज़गार मुहैया करवाने का जिसे भी सिद्धारमैया ने केंद्र से जोड़ दिया
है। अब बचता है किसानों का मुद्दा तो इस मुद्दे पर तो कोई भी दल सिद्धारमैया का
मुकाबला कर ही नहीं सकते क्योंकि खुद सिद्धारमैया किसान आन्दोलन की ही देंन है।
भाजपा की हवा तो तब निकल गयी जब सिद्धारमैया ने लोगों को ये याद दिलाया कि 2014 के
आम चुनावों में किसानों को लागत का डेढ़ गुना मूल्य दिलाने का वादा किया उसका क्या
हुआ? न केलों के विटामिन्स की वृद्धि हुई
न बागवानी करने वालों की आय में। जिन लोगों की इतिहास में रूचि है वे भली भांति
जानते हैं कि दक्षिण भारत के इस राज्य में जहां ग्रामीण खेती-किसानों की बदौलत ही
लोकदल से बदलकर जनता दल में परिवर्तित होने वाले दल का दबदबा कोंग्रेस के मुकाबले
काफी बढ़ गया था। बाद में भाजपा ने अन्य क्षेत्रीय दलों से समझौतावादी नीति अपनाते
हुए अपने पैर जमाएं। लेकिन समझौते हमेशा एक समय के बाद टूट जाते हैं और पक्षों में
हितों से ज्यादा अहम बड़े हो जाते हैं। यही भाजपा और सम्बन्धी दलों में घटित हुआ।
इसी के चलते 2006 में एच.डी. कुमारस्वामी और भाजपा का आंतरिक सम्बन्ध की
केमिस्ट्री सार्वजनिक हो गयी। हालांकि भाजपा ने अपनी पुरानी रणनीति को दुबारा
अपनाने की सोची ही थी कि सिद्धारमैया ने जनता को इससे रूबरू करवा दिया। स्थिति साफ़
है कि भाजपा ही क्या किसी भी दल के लिए राह आसन नहीं है।
इस राज्य की आर्थिक शक्ति को कुछ लोग इस तरह
से कब्जाना चाहते हैं । मगर यह अकेले कर्नाटक की समस्या नहीं है देश के विभिन्न
राज्यों में ऐसी शक्ति सत्ता के साथ अपनी गोटियाँ बिछाकर आर्थिक स्रोतों को अपने
अधिकार में लेती जा रही हैं और हम मूर्खों की तरह हिंदू मुस्लिम विवाद में उलझे
रहते हैं। असल में जनमत को इस तरह बाजारों को रोहन की राजनीतिक दल तो अपनी एकता का
परिचय दे रहे हैं और सिद्ध कर रहे हैं कि उनमें आम जनता से आंखें मिलाकर उनके
मुद्दों की बात करने की ताकत नहीं है। लेकिन अब देखना ये है कि क्या जनता इन्हें
नकारेगी या अपने आप को गिरवी रख देगी? खैर ये तो वक्त ही बतायेगा कि क्या होगा
लेकिन मैं उम्मीद करता हूँ कि इंडिया के
कर्नाटक की जनता देशहित को सर्वोपरी रखेगी और अपने मत के अधिकार को पूरी
कर्तव्यपरायणता से काम में लेगी। जय हिन्द।
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