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Thursday 17 May 2018

भारत में बैंकिंग की वर्तमान दिशा और दुर्दशा!

-डॉ. नीरज मील नि:शब्द
कुछ दिनों पूर्व पंजाब नेशनल बैंक सहित कई बैंकों के मामले उजागर होने के बाद वित्त मंत्रालय की नींद भी टूट गयी है। वित्त मंत्रालय ने हाल ही में सख्त निर्देश भी प्रसारित कर दिए हैं। जारी ताज़ा दिशा निर्देशों के मुताबिक़ सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों को संभावित धोखाधड़ी से बचने के लिए 50 करोड़ रूपये से उपर के सभी ऋणों अर्थात् जो ऋण एनपीए(नॉन परफोर्मिंग असेंट) की श्रेणी में आते हैं की जांच करने और यह जांच सीबीआई के साथ सांझा करने को कहा गया है। साथ ही बैंकों को यह भी निर्देश दिए गए हैं कि वे अपने ऑपरेशनल और टेक्निकल सिस्टम को भी दुरस्त करें। 

मंत्रालय का कहना है कि ये कदम सार्वजनिक बैंकों के साथ धोखाधड़ी और जानबूझकर क़र्ज़ न चुकाने वालों की पहचान करने के लिए उठाया है। इसके अतिरिक्त सरकार ने फर्जीवाड़ा रोकने और अपराधी, बैंक और जांच एजेंसियों से बचकर देश से फरार न हो, ऐसी व्यवस्था करने का दावा भी किया है। सरकार का ये कदम स्वागतयोग्य होने के साथ-साथ कई सवाल भी खड़े करने वाला है। इन सवालों में पहला और मुख्य सवाल है कि इतने घोटाले अथवा गबन हो जाने के बाद ये कदम क्यों उठाए! जबकि सरकार को ये एक्शन मोड पहले भी अख्तियार कर सकती थी।
हाल की घटनाओं और कुछ नीतिगत कारणों से बैंकों और निवेशकों के दरमियान खाई अप्रत्याशित रूप से बढ़ी है जो निश्चित ही प्रतिकूल प्रभावों एवं परीणामों को जन्म देने में सक्षम है। अकेले पंजाब नेशनल बैंक में 11 हज़ार 400 करोड़ रूपये के बाद हर दुसरे दिन कोई न कोई नया खुलासा हो रहा है और किसी बैंक और उद्योगपति का नाम उजागर हो रहा है। सरकारी एजेंसियों द्वारा बैंकों के साथ धोखाधड़ी और जानबूझकर ऋण न चुकाने वालों की गिरफ्तारी और सम्पतियों का जब्तीकरण एक सामान्य कार्य है जिसका कोई विरोध नहीं करता। 50 करोड़ से उपर के ऋणों की जांच से बहुत कुछ सामने भी आएगा और कुछ कागजों में दबाया भी जा सकता है। इसके अलावा नए बैंकों और उनकी हांगकांग सहित सभी देशों में उनकी शाखाओं पर भी शिकंजा कसा जा रहा है। देश के  बैंकों का  एनपीए(नॉन परफोर्मिंग असेंट) वर्तमान में 8 लाख 50 हजार करोड़ हो चूका है जो एसोचैम और क्रिसिल की रिपोर्ट के मुताबिक़ इस वर्ष लगभग सादे नौ करोड़ हो जाएगा। इस  एनपीए(नॉन परफोर्मिंग असेंट) सबसे बड़ा हिस्सा स्टेट बैंक अव इंडिया अर्थात् एसबीआई का है। लिहाजा एनपीए(नॉन परफोर्मिंग असेंट) की बढती रकम वास्तव में चिंताजनक ही नहीं अपितु अकुशलता का प्रतीक भी है।
अर्थशास्त्र के लिहाज़ से अर्थव्यवस्था में जो संतुलन होना चाहिए वो हो नहीं रहा है। निवेशक भी क्या करें कुछ समझ में नहीं आ रहा है उन्हें भी। न अनुपात विशलेषण काम में आ रहे है न कोई अन्य वित्तीय तकनीक। अब ईमानदार निवेशक भी सख्ती को झेलने को मजबूर हैं। तंत्र की कमजोरी को छुपाने और कारवाई के नाम पर ये परेशानी जायज नहीं हो सकती। नीरव मोदी जैसे हजारों करोड़ लेकर भाग जाते हैं और लाखों वाले परेशानी झेल रहे है, इस स्थिति को कैसे जायज मान ले? वर्तमान बैंकिंग व्यवस्था पूर्ण रूप से चरमरा चुकी है। हाल ही में बैंकों के जो मामले सामने आये हैं उनसे आमजन एक बैंक क्लर्क को भी शक की नज़र से देख रहे हैं जिससे बैंक कर्मचारियों पर काफी मानसिक दबाव भी साफ़ देखा जा सकता है। कुछ भ्रष्ट अधिकारीयों के चलते ईमानदार कार्मिक बेवजह पिसीज रहा है। एक के बाद एक की गयी सरकारी एजेंसियों की कार्रवाई से व्यावसायिक माहौल भी ख़राब है। कुल मिलाकर जहां बैंकिंग क्षेत्र में अफरातफरी का माहौल है वहीँ दूसरी और बैंकिंग यूनियन चुनावी माहौल के चलते हड़ताल पर जाने की सोच रहीं है। ऐसे में चिंता योग्य बात तो सरकारी योजनाओं के प्रभावित होने की है, क्योंकि ज्यादातर योजनाएं बैंक ही संपादित करते हैं। मोटे तौर पर 56 मंत्रालयों की 412 योजनाओं के पैसे सीधे आमजन के बैंक खातों में आते हैं। इनमें गैस सब्सिडी, छात्रवृतियां, पेंशन आदि प्रमुख हैं।
वर्तमान अर्थशास्त्र के हिसाब से किसी भी अर्थव्यवस्था में साख(क्रेडिट) ग्रोथ का बढ़ना अच्छी बात मानी जाती हैं। इसी साख के अंतर्गत साहसी ऋण लेकर व्यवसाय का विस्तार करते हैं और बढ़ते हुए व्यवसाय को साख की उपलब्धता सहजता प्रदान करता है। जहां मौजूदा व्यवसाय के बने रहने से रोज़गार में स्थायित्व रहता है वहीँ व्यवसाय का विस्तार नये रोज़गार के अवसर पैदा करता है। लेकिन भारत में यह क्रेडिट ग्रोथ सबसे कम रहती है। आंकड़ों में इस ग्रोथ को रखे तो वर्तमान में अर्थात् 2014 में बैंकों के लोन 13.7 प्रतिशत की दर से बढ़ रहे थे वो अब अर्थात् 2017 में गिरकर 5.1 प्रतिशत ही रह गयी है। स्पष्ट है न तो निवेशक बैंकों से लोन लेना चाहते हैं और न ही बैंक ऋण देना चाहते हैं। जिन्हें लोन दिया वे लौटना ही नहीं चाहते और कुछ तो विदेश भाग भी गए या भगवा दिए। ऐसे में प्रश्न ये है कि सरकार के बैंकिंग विशेषज्ञ क्या कर रहे हैं? स्टार्ट-अप परियोजनाएं भी एक- एक करके दम तोड़ चुकी हैं। निवेशक अपनी योजनाओं को ठन्डे बस्ते में डालकर नौकरी की और भाग रहे हैं। नौकरियां सरकार दे नहीं रही है। ऐसे में सरकार को चाहिए कि वो सबसे पहले वैश्विक स्तर पर अपनी पकड को सशक्त कर जो मोटे ऋण लेकर भागे हैं उन्हें अपनी गिरफ्त में ले उनके विदेशी खातों को सीज करें। ऐसा करने से मुख्यतः तीन फायदें होंगे। पहला, जानबूझकर पैसे न चुकाने वालों को भय की वजह से अपनी ज़िम्मेदारी का एहसास होगा और आमजन का बैंकों और सिस्टम में विश्वासवापसी कायम होगी। दूसरा, बैंक अपनी खोई हुई साख प्राप्त करेंगे और बैंकों को सुरक्षा का अहसास भी होगा। तीसरा फायदा ये होगा कि बैंकों में तरलता की वापसी होगी और सरकार की खोई हुई प्रतिष्ठा पुन: प्राप्त होगी। बैंकिंग में अफरा-तफरी के माहौल से जनता निज़ात पाना चाहती है और सरकार से उम्मीद है वो जनता की इस अपेक्षा को उपेक्षित नहीं करेगी


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