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Thursday 17 May 2018

ज़िन्ना के जिन्न पर सियासत बंद करो।


-डॉ. नीरज मील ‘नि:शब्द’

अल्लादीन के चिराग की एक काल्पनिक कहानी हम सबने सुनी होगी। उसमे एक जिन्न होता है। जिन्न अपने आक़ा के लिए काम करता है। भारत की राजनीती में भी कई काल्पनिक जिन्न हैं। हर राजनैतिक दल का अलग अलग राग होता है और अलग-अलग जिन्न। ऐसे में इस तरह के कुछ तराने सामूहिक भी होते हैं। ये जिन्न ही इनके औजार हैं। उनमें से प्रमुख रूप से एक है धर्म तो दूसरा है जाति। जहां जाति से काम नहीं चलता वहां धर्म काम में आता है। इसी से जुड़ा एक और जिन्न है जो कभी-कभार ही बाहर निकलता है और वह है जिन्ना।

   मोहम्मद अली जीना, नाम तो सुना ही होगा! ये वो शख्स हैं जिन्होंने हिन्दुस्तान के तीन तुकडे किये। मिले ऐतिहासिक तथ्यों और चिंतन से ज्ञात ही नहीं सिद्ध भी होता है कि द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद अंग्रेजों को इंडिया के विरुद्ध जो गद्दारों की टोली खड़ी करनी थी उनमें मोहम्मद अली जिन्ना भी प्रमुख थे। अंग्रेजों को ये कतई मंजूर न था कि दक्षिण एशिया में 42,30,928 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र का विशाल देशभक्त और काबिल इंडिया देश हो।  इसीलिए पहले पकिस्तान और फिर बांग्लादेश के रूप में इंडिया के 2 टुकड़े हुए। सत्ता के लोभी गद्दार उस वक्त और भी थे। उस वक्त जो देशभक्त थे वो या तो आज़ादी से पहले फांसी पर लटका दिए गए या फिर शहीद हो गए।
खैर, इसमें कोई शक नहीं कि  मोहम्मद अली जीना भी भारतीय इतिहास के ऐसे खलनायक हैं जिन्होंने इस मुल्क की आजादी से पहले मुल्क का आधार धर्म आधारित स्वीकार किया। यहां यह ज़िक्र करना भी महत्वपूर्ण होगा कि जिन्ना के बाद मोहनदास करमचंद गांधी की ह्त्या भी इसी की परिणिति थी। क्योंकि गांधी की ह्त्या कर हत्यारों ने जो मुनादी की थी कि उसका आशय भी यही था कि उनका दृष्टिकोण भी मजहबी मुहाफ़िज़ से जुदा नहीं है। ब्रिटेन,अंग्रेजों और उनके बाद सत्ता के लोभियो की चाहत भी यही थी कि हिंदुस्तान की जमीन में छुपी हुई ताकत को लगातार रोते हुए धर्म के नाम पर आज़ादी के बाद नागरिकों को एक-दूसरे के खिलाफ खड़ा कर सके।
समर्थक चाहे जो भी कहे लेकिन सच यही है कि किसी दो या अधिक धर्मों  के अनुयायों की सामाजिक और आर्थिक रूप से परस्पर निर्भरता बनी ही रहती है। हिन्दू-मुस्लिम की यही परस्पर निर्भरता मजहबी सियासत करने वाले नेताओं को डराती है और जिन्ना के साथ भी यही डर था। यह भी सच है कि ऐसे नेता छद्म नास्तिक होते हैं उन्हें पता होता है कि ईश्वर जैसी सत्ता कुछ नहीं है। इसलिए स्वयं भगवान को नहीं मानने वाले जिन्ना जैसे नेता ही मजहब का मसला सबसे ऊपर रखकर हिन्दुओं और मुसलमानों को बरगलाया करते हैं। जिन्ना ने भी मुसलमानों को बरगलाया और हिन्दुओं को दुत्कारा। जिन्ना ने इंडिया के राष्ट्रभक्त मुसलमानों को ऐसा पाठ पढाया जो मुगलों के शासन तक कभी अम्ल नहीं हुआ था। क्या ये जिंदा भारत के साथ राष्ट्र द्रोह नहीं थाअपनी नाजायज मांग के लिए जिन्ना  हिंदू मुसलमान को एक दूसरे के खून का प्यासा बनाकर ऐसा मंजर पेश किया कि इंसानियत की रूह ही कांप गयी। कत्लोगार का बाज़ार इस कद्र गर्म हुआ कि दस लाख लोग इसमें बेवजह मारे गए, अंग्रेजों को बहाना मिल गया इंडिया को तोड़ने का।
            सवाल केवल अलीगढ के मुस्लिम विश्विद्यालय से तस्वीर हटाने का ही नहीं है बल्कि राष्ट्र विरोधी प्रत्येक विचार को हटाने का है। जिन्ना का यह मुद्दा इस तरह से उठाया जा रहा है जैसे यह बड़ा ही महत्वपूर्ण हो। दो रोज़ पहले इसी कड़ी में एनडी पर भी जिन्ना को लेकर रविश कुमार ने कहा कि “4 नवम्बर 1948 की संविधान सभा की एक बैठक में पहले गांधी को श्रृद्धांजलि दी जाती है और उसके बाद पकिस्तान के कायदे आज़म जिन्ना को भी श्रृद्धांजलि दी गयी।हालांकि जिन्ना को भारत के सविधान सभा के सदस्य  श्रृद्धांजलि दे हो सकता है कि इस वक्त दोनों व्यक्तित्व दिवंगत हो चुके थे, हालांकि एनडी पर इसके पुख्ता स्रोत का ज़िक्र नहीं है। लेकिन अब प्रश्न ये उठता है कि क्या जिन्ना वाकई मुद्दा बन्ने लायक है?  गौर कीजिए इस प्रश्न का जवाब खोजने की कोशिश कीजिए कि अंग्रेज जाते जाते क्या चाहते थे? और जिन्ना ने अपनी निजी महत्वकांक्षा के लिए अंग्रेजों का साथ देकर खुद को गद्दार साबित नहीं किया? क्या ऐसे इंसान की तस्वीर हम किसी कोई भी विश्वविद्यालय अपने परिसर में लगाकर क्या सिद्ध करना चाहता है? आप खुद तय करें कि जिन्ना की तस्वीर अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में अगर वहां के छात्र संगठन में 1938 से लगी हुई है तो क्या ऐसे गद्दार व्यक्ति से कोई भी विद्यार्थी प्रेरणा लेगा? अगर प्रेरणा मिली भी तो वो कितनी जायज होगी?  जिन्ना के पक्ष में कुछ लोग  हिंदू महासभा के नेता रहे सावरकर का भी उदहारण भी प्रस्तुत कर रहे हैं। इतिहास के तथ्यों के आधार पर  पहली बार 1917 में हिंदू मुस्लिम आधार पर राष्ट्रवाद का सिद्धांत दिया था। पुख्ता इतिहास से कोई भी मुंह नहीं मोड़ सकता। इस लिहाज़ से सावरकर भी नैतिकता और मानवता के तकाज़े पर उचित नहीं ठहराए जा सकते और न ठहराए गए हैं। इतिहास द्वारा उसके साथ हिसाब चुकता कर लिया गया है इसलिए ये मुद्दा कब का ही खत्म हो चुका है। वैसे कुछ लोग जिन्ना की तस्वीर के बारें में ये भी कहते है कि उन्होंने पाकिस्तान बनाने में अपनी भूमिका अदा की थी लेकिन आज़ादी से पूर्व के भारत के लिए लड़ाई लड़ी थी! और पाकिस्तान भी शहीद-ऐ-आज़म भगतसिंह को मानता है इसलिए हमें भी इस तस्वीर पर आपति नहीं करनी चाहिए। स्पष्ट कर दूं कि जितना कार्य शहीद-ऐ-आज़म भगतसिंह ने देश और दुनिया के लिए किया उसका करोड़वां हिस्सा भी ज़िन्ना द्वारा नहीं किया गया। इसलिए शहीद-ऐ-आज़म भगतसिंह के साथ तो ज़िन्ना का ज़िक्र करना भी उल्फ़त-ऐ-वतन से गद्दारी करना है।
तमाम अध्ययन और निष्कर्ष यही है कि जिन्ना को खुद बंगाली मुसलमानों ने ही जमींदोज कर डाला और कह दिया कि गुरुदेव रवींद्रनाथ टैगोर की कलम से निकला नगमा ही उनका कौमी तराना होगा। स्पष्ट है कि जिन्ना की तस्वीर को लेकर ये लोग सिर्फ सियासत करना चाहते हैं। ये सियासती लोग  हिंदुस्तान के मिजाज को नहीं समझते। ये लोग केवल अंगुली शहीद बनना चाहते हैं। देश से शिक्षा, रोजगार और गरीबी, भुखमरी जैसे मुद्दों को दफ़न कर भावनाओं को भड़काने का ये क्रम अब रुकना ही चाहिए। देश के प्रिंट व इलेक्ट्रॉनिक मीडिया को चाहिए कि वो अपने खोये हुए ज़मीर को पुन: प्राप्त करने की कोशिश करें और देश के विकास में योगदान करे। जनता को भी चाहिए कि वो हिन्दू-मुस्लिम के अजेंडे से खुद को बाहर निकाले। आज देश में मांग जाति और धर्म की नही है, बल्कि शिक्षा को स्थापित करने, बेरोजगारी और भुखमरी मिटाने की है। इसलिए देश के विचारको से गुजारिश है कि आप धार्मिक संगठनों की तरह देश को पीठ के बल दौड़ाने में शामिल न हो। अपने कर्तव्य को पहचानों और देशहित में अपने अपनी कलम को चलाओ।  विश्विद्यालयों को चाहिए कि वे देश में शिक्षा को स्थापित करने के अपने कर्तव्य को निभाएं। धर्म और जाति आधारित राजनीती देश को तोड़ने का ही काम कर सकती है मजबूती देने का नहीं। जनता और नेताओं को समझाना चाहिए कि इस तरह से फूहड़ और बकवास मुद्दों पर बहस करना और उन्हें तवजों देना राजनितिक दलों और नेताओं की असफलता ही है। विकास और शिक्षा जैसे मुद्दों पर अब देश के नेताओं में जनता से आँखे मिलाने की औकात ही नहीं रही है। देश के नेताओं को चाहिए कि वे उपदेश देना बंद करें, ख़्वाबों के सब्जबाग दिखाने के अपने इरादों से बाज आयें और देशहित में राजनीती करें न कि इसे तिजारत समझे।

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