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Thursday 17 May 2018

उम्मीदों के वजन से बचपन की ह्त्या को कैसे रोके?


-   डॉ. नीरज मील

खेलकूद और बेफिक्री का नाम ही शायद बचपन है। लेकिन भारत के बच्चों का बचपन अभी निराशा के भंवर में फंसा हुआ नजर आ रहा है। यह सत्य है कि निराशा तब होती है जब अपेक्षाएं पूरी नहीं होती। निराशाएं तब तो वास्तव में और भी अधिक घातक होती हैं जब अपेक्षाएं खुद के बजाएं  किसी अपने की थोपी हुई होती हैं। यह तब और भी गंभीर मामला बन जाता है जब ये अपेक्षाएं अपने ही मां-बाप की किसी बच्चे के बचपन में हो। लेकिन अभिभावक या माता-पिता यहां बच्चों को अपेक्षाओं को समझाने में ये गलती कर देते हैं कि ये लादी गयी अपेक्षाएं आपके जीवन से बढ़कर नहीं है।

मई का महिना चल रहा है सम्पूर्ण देश में कुछ परीक्षाओं के परिणाम आ चुके हैं तो कुछ के आने अभी बाकी हैं। आलम ये है बच्चों के साथ-साथ अभिभावक भी परीक्षा परिणाम और उसके भविष्य को लेकर भारी दबाव में हैं। इसी दबाव के चलते मानसिक दबाव इतना बढ़ जाता है कि कुछ विद्यार्थी तो परीक्षा में ही आत्मह्त्या कर लेते हैं और कुछ परिणाम आने पर। उत्तर प्रदेश माध्यमिक बोर्ड का परिणाम आते ही कई बच्चों ने अपनी ईह-लीला समाप्त कर ली। आंकड़े भी इस बात की पुष्टि करते हैं कि पिछले चार पांच साल में खराब नतीजों के चलते कई बच्चे आत्महत्या कर चुके हैं और ये आलम रुक नहीं रहा है।
  मुद्दों की मारामारी और हिन्दू-मुस्लिम की लड़ाई में देश के विचारक इस कदर उलझे हुए हैं कि इस तरह के मुद्दों पर हम बातचीत भी करने को राजी नहीं है। जबकि फिलहाल इस गंभीर मुद्दे पर चिंतन और मनन की आवश्यकता है। हम कब असली मुद्दों को सोचेंगे? यहां यह ज़िक्र करना ही होगा कि उत्तर प्रदेश माध्यमिक बोर्ड का परिणाम आते ही परीक्षा में हासिल अंकों से नाखुश होकर अकेले पश्चिम उत्तर प्रदेश के 3 बच्चों ने आत्महत्या कर ली। पहली घटना मुजफ्फरनगर की है, दूसरी घटना बुलंदशहर की है तो तीसरी घटना बरेली की। जहां मुजफ्फरनगर मैं एक छात्र ने कम नंबर आने की वजह से ट्रेन के आगे कूदकर आत्महत्या की। सोचिए ये बच्चा फेल नहीं हुआ था बल्कि अंक कम प्राप्त हुए थे ऐसे में इसके दबाव का आंकलन डरावना है। बुलंदशहर जिले की घटना में एक इंटर यानि 10वी के छात्र ने फेल होने पर फांसी लगाई। तीसरी घटना में बरेली जिले की है। यहां हाई स्कूल की छात्रा ने स्वयं को आग लगाकर इसलिए अपनी जान दे दी कि वह स्कूल में अव्वल नहीं आ पाई। अब बताइये कि कितना दबाव डाला गया था इनके स्कूल और घर वालों की तरफ से! इन तीनों घटनाओं में समानता यह है कि तीनों ने ही खेलने खाने और भविष्य के सपने बुनने की उम्र में यह आत्मघाती कदम उठाया। यहां तीनों बच्चे एक तरह से इतने परिपक्व हो गए थे कि इस परिपक्वता को सह नहीं सके। इन तीनों ने निश्चित ही अपने भविष्य के बारे में खुद की राय को अलग रखते हुए परीक्षा में अच्छे अंक लाने को लेकर अपने-अपने परिवारों के दबाव में थे।

   भारत में अक्सर बच्चों की बढ़ती आत्महत्या की प्रवृत्ति के विषय को भूलकर कभी परीक्षाओं के साथ-साथ अच्छे परिणाम का दबाव तो कभी अभिभावकों की अपेक्षाओं जैसे कारणों को दोषी ठहराने की बजाय इनको तो आज के वैश्विक दौर की कड़ी प्रतिस्पर्धा वाला करार देते नहीं थक रहे हैं। और इन आत्महत्याओं पर चुप्पी साधे बैठे हैं। हमने बच्चों को जीवन जीने के बजाए रोज़गार करने की चिंता में डालना सिखा रहे हैं। जिंदगी की दौड़ ने बच्चों की नींद उड़ा रखी है। बच्चे रोजगार से जुड़े भविष्य को लेकर असमंजस की स्थिति में है। ऐसी स्थिति में बच्चे अब ज्यादा निर्मम और आक्रामक होते जा रहे हैं और एकाकीपन के शिकार हो रहे हैं। आज अगर बच्चों की कोमल ज़िन्दगी केवल परीक्षा परिणाम के कारण ख़त्म हो रही है तो निश्चित ही इसका मुख्य कारण हमारे कमजोर और बेकार पारिवारिक और विद्यालय माहौल है। वास्तविकता तो ये है कि आज बच्चों का न केवल स्वभाविक नैसर्गिक विकास बाधित हो रहा है बल्कि उनका बचपन तमाम तरह की विसंगतियों से भी भरता जा रहा है। बच्चे का आक्रामक होना, एकांत को पसंद करना और दोस्तों की वजह से लगातार सोशल मीडिया में डूबे रहने वजह भी शैक्षिक और पारिवारिक माहौल ही है।
     बच्चों को समाज की शैक्षिक मांग और सामाजिक  परिस्थितियों के अनुकूल ढ़लने और जीवंवृति(करियर) संबंधी विकास को निश्चित दिशा देने का काम भी परिवार व स्कूल जैसी संस्थाओं का ही है। आज देश के बच्चों के द्वारा उठाया जा रहा आत्मघाती कदम की वजह भी जीवंवृति(करियर) विकास के दबाव और अभिभावकों की बच्चों से अत्यधिक अपेक्षाओं के कारण ही है। इसलिए इस कृत्य हेतु सिर्फ बच्चों को दोषी नहीं ठहराया जा सकता। शहर और महानगरों के साथ-साथ गाँवों में भी शैक्षिक और भौतिक जीवन की प्राथमिकताओं में क्रांतिकारी परिवर्तन हुआ है। लेकिन बावजूद इसके यह ज्ञान बच्चों को न परिवार दे पा रहा है और न ही शिक्षण संस्थाएं। यही कारण है कि स्कूल व परिवारों में बेहतर शिक्षण और बेहतर देखभाल चुनौती बन रही है जो अब से पहले देश में नहीं थी। बच्चों द्वारा नादानी में की जा रही आत्महत्याओं और अपनाए जा रहे अवसाद की वजह के लिए सामाजिक माहौल भी कम दोषी नहीं है। आज बचपन सूना हो रहा है क्योंकि संयुक्त परिवार टूट रहे हैं और एकल परिवार समाज के आदर्श बन रहे हैं। अर्थ के लालच में बच्चों के साथ माता-पिता स्वस्थ संवाद का आभाव है जिससे दुनियां का उपयोगी परिचय बच्चों के जीवन से छूट रहा है। सामूहिकता, संयम, अनुशासन, मूल्य, नैतिकता  और संयम जैसे शब्द केवल शब्द केवल कागजों तक ही सीमित हो रहे हैं। इसलिए इस बात में कोई अतिशयोक्ति नहीं है कि इस स्थिति के लिए आज स्कूल, माता-पिता और बच्चों के बीच स्वस्थ संवाद न होना ही ज़िम्मेदार है। इसी वजह से आज की फिल्में, दूरदर्शन, चैनलों और सोशल मीडिया के माध्यम एकल परिवारों में सेंध लगाकर बच्चों के बीच परिवार में स्कूल के स्थानापन्न बन रहे हैं और बच्चों को समय से पहले अपनी और खींच रहे है, अपने प्रभावों से उन्हें प्रभावित कर रहे हैं।

     वास्तव में देखा जाए तो आज बच्चों में बढ़ती आत्महत्या की प्रवृत्ति के लिए केवल परीक्षा और उसके परिणाम कम और परिवारों के द्वारा उनके कैरियर से जुड़ी गलाकाट प्रतिस्पर्धा की प्रवृत्ति को लगातार वृद्धि करने के कारण अधिक हो रही है। विभिन्न शोध कार्यों से निकले निष्कर्ष बताते हैं कि भारतीय सामाजिक ढांचे में आ रहे सतत बदलाव और बिखराव, शिक्षा और बच्चों के जीवंवृति(करियर) विकास के बीच बढ़ती दूरी और अनभिज्ञता और  संयुक्त परिवार व्यवस्था का लुप्त होना, माता-पिता कार्यशील होने से बच्चों की उपेक्षा जैसे कारक प्रमुख रूप से उतरदायी है। एक स्थिति ये भी है कि मां बाप अपने बच्चों की तुलना अन्य बच्चों के साथ करने तथा अपना ध्यान बच्चों के बजाय उनके परीक्षा परिणामों पर ज्यादा टिकाए रहते हैं। ऐसा नहीं होने पर उस बच्चे के प्रति जहां केवल थोड़ी और एक बार की नाराज़गी की जगह उसके प्रति लम्बे समय तक उपेक्षित भाव रखने लग जाते हैं जो बच्चों को अवसाद में ले जाने और आत्महत्या की ओर ले जाने के लिए काफी होता हैं। मनोचिकित्सकों का भी यही मानना है कि स्वयं को आत्महत्या की ओर ले जाने वाले बच्चे गहरे अवसाद में पहुंच चुके होते हैं। असफलता के भाव अथवा अप्रत्याशित त्रासदी अथवा सदमे इसी अवसाद के परिणाम होते है।
    
आज शिक्षा का केवल यही महत्व रह गया है कि एक ऐसा रोज़गार प्राप्त करना जिसमे बहुत साड़ी मुद्राएं मिले ताकि हम अव्वल बने रहे। यही मनोभय बच्चों को एक ऐसी प्रताड़ना देता है जो उसे गहरे अवसाद में धकेल देती है जहां उसे निराशा, कमजोर होने का भाव ही मिलता है जिसका परिणाम है हीन भावना। इसी के चलते बच्चा खुद को अपराधबोध के भाव से मान लेता है। अब हमे इस सच्चाई स्वीकार करना ही होगा कि एकल परिवारों में बच्चों से भावनात्मक रिश्ते और विद्यालयों में शिक्षक और छात्रों के बीच सीखने-सिखाने के रिश्ते समाप्तप्राय: हो चुके हैं।
मां-बाप को अपने कारोबार, भोगवादी क्रियाकलापों, विशेषकर माँ को अर्थ अर्जन से दूर रहना होगा, स्कूल और शिक्षकों को अपनी मानसिकता और शिक्षा से जुड़े नीति-नियंताओं को अपनी राजनीतिक पार्टी से जुड़े मुद्दों से ऊपर उठकर इतनी फुर्सत निकालनी ही होगी जो बच्चों की वास्तविक शिक्षा दे तथा  समसामयिक शैक्षिक नीति का निर्माण करना ही होगा। आज वैश्वीकरण का आकर्षण है तो प्रगति व विकास के नए मानदंड भी हैं। ऐसे में आवश्यकता है कि बच्चों को इनसे इस तरह रूबरू करवाया जाए ताकि बच्चों व युवाओं को अवसादग्रस्त होने से बचाया जा सके। अब स्कूलों में तोता रटंत शिक्षा को बाय- बाय कहना होगा और परिवारों को घर पर मात्र स्कूल होमवर्क और प्रतिस्पर्धा का माहौल देने की प्रवृति से बचाना होगा तभी हम बच्चों को उनके बचपन और जीवन के यथार्थ से परिचित करवा सकते हैं। लिहाजा हमें बच्चों के प्रति तटस्थता का भाव त्याग कर उन से निरंतर सघन संवाद स्थापित करने की महती आवश्यकता है। केवल इतना ही नहीं, भविष्य की वैश्विक आवश्यकताओं और बच्चों के व्यक्तित्व के अनुसार ही उनके कैरियर के चयन में भी सावधानी बरतने की जरूरत है।

अब कोई बहाना नहीं चलेगा क्योंकि बच्चों के सर्वांगीण और सृजनात्मक व्यक्तित्व के निर्माण के लिए परिवार, शिक्षा पर स्कूल आज भी बच्चों में पनप रहे अवसाद और उन में हिंसा व आत्मघात की प्रवृत्ति को रोकने में सहायक होने के साथ में उनकी ऊर्जा का सार्थक प्रयोग करने में भी पूर्ण सक्षम हैं। इसलिए यह संपूर्ण शैक्षणिक व्यवस्था को समाज और राष्ट्र उपयोगी बनाने के साथ-साथ हमें स्वयं को भी बच्चों की पढ़ाई उसके कैरियर और बचपन के बीच तालमेल बैठाने की महती आवश्यकता है। इन सब के बाद ही हम इन बच्चों के भविष्य को सुरक्षित करते हुए उन्हें समाज व राष्ट्र के लिए उपयोगी बनाने में कामयाब हो सकेंगे। लेकिन सबसे बड़ा सवाल यह है कि क्या सरकार की कोई जिम्मेदारी नहीं बनती? बिलकुल सरकार की ज़िम्मेदारी यही बनती है वो वर्तमान परिपेक्ष्य में शिक्षा की जगह केवल शिक्षा ही मिले ऐसी व्यवस्था निश्चित तौर पर करे। शिक्षा समझ पैदा करने वाली होनी चाहिए न कि अक्षर ज्ञान कराने वाली। शिक्षा के क्षेत्र में संलग्न शोधार्थियों से देश को तीव्र और महती आवश्यकता है कि वे अपेक्षानुरूप शिक्षा प्रणाली को जल्द से जल्द ईज़ाद करें ताकि एक नागरिक में देश के लिए सोचने, समझने और समझाने की काबलियत पैदा हो सके। उम्मीद है देश हित में इस महती आवश्यकता की पूर्ति अतिशीघ्र होगी, जय हिन्द, इंक़लाब जिंदाबाद।

*Image Source: Google search No Copyrights
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