-डॉ. नीरज मील
भारतीय अर्थव्यवस्था के लिए भारत सरकार के हाल के दो निर्णय(जीएसटी व नोटबंदी)
क्रन्तिकारी साबित हुए हैं। इन निर्णयों का अर्थव्यवस्था पर प्रभाव पड़ना लाज़मी है।
कुछ प्रभाव तात्कालिक किन्तु अल्पकाल के लिए हैं तो कुछ निर्णय दीर्घकाल में दिखाई
देने वाले हैं। अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमएफ़) की प्रमुख
क्रिस्टीन लैगार्ड ने हाल ही में भारतीय अर्थव्यवस्था में जैसे मोदी सरकार के
प्रयासों की तारीफ की है। उन्होंने नोटबंदी और जीएसटी जैसे निर्णयों को अर्थव्यवस्था
में मजबूती के लिए मुख्य घटक मानते हर कहा कि बीते सालों में अर्थव्यवस्था में किए
गए इन बदलावों की वजह से भारत को बेहतर परिणाम मिला है और भारतीय अर्थव्यवस्था
बेहद मजबूत रास्ते पर है। उनके अनुसार भारत में महंगाई भी नियंत्रण में है। अंतरराष्ट्रीय
मुद्रा कोष ने हाल में भारतीय अर्थव्यवस्था की विकास दर के अपने अनुमान को घटा
दिया था। इस बारे में लैगार्ड ने कहा कि हमने विकास दर का अनुमान घटाया है, लेकिन हमारा भरोसा है कि भारत मीडियम और लॉन्ग टर्म में विकास के रास्ते पर
है।
इसी बीच भारत में कइयों का कहना है कि नोटबंदी और जीएसटी के कारण भारतीय
अर्थव्यवस्था में रफ्तार धीमी हुई है। ऐसे में अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष एवं इसके
प्रमुख के बयान से एक तरह का विरोधाभास सामने आ रहा है कि क्या भारतीय
अर्थव्यवस्था असल में मज़बूत है? और मज़बूत है तो भारत में यह दिखता क्यों नहीं? आईएमएफ़, वर्ल्ड बैंक और एशियन डेवलपमेंट बैंक जैसी संस्थाओं के अपने कोई आंकड़े नहीं
होते। इन संस्थाओं द्वारा संकलित प्राथमिक और द्वीतीय आंकड़े सम्बंधित देश की सरकार
द्वारा निर्मित आंकड़े ही होते हैं। आईएमएफ़ और उस जैसी ये संस्थाएं पूरी तरह
सरकार के दिए आंकड़ों पर निर्भर हैं। उसी के आधार पर अपना विश्लेषण तैयार करते
हैं। सरकार के ये आंकड़े आधे-अधूरे होते हैं। इन आंकड़ों में कई चीजों को तो शामिल
ही नहीं किया जाता। ऐसे में इन आंकड़ों को हम विश्वसनीयता की कसौटी पर खरा नहीं आंक
सकते।
मेरे विश्लेषण से वर्तमान वैश्विक परिदृश्य को देखते हुए 5.5 प्रतिशत की विकास
दर भी बहुत अच्छी ही मानी जाएगी। आंकड़ों के हिसाब से भारत की यह दर फिलहाल 5.7
प्रतिशत आंकी गयी है जो कि पिछले वर्ष की तुलना में थोड़ी कम जरुर है लेकिन बहुत
ज्यादा भी नहीं। इस 5.7 फीसदी दर के आधार पर कहा जा सकता है कि भारतीय
अर्थव्यवस्था के विकास की रफ़्तार थोड़ी कम ही हुई लेकिन अभी भी अच्छी है। लेकिन ये
केवल बाह्य सुन्दरता ही कही जायेगी क्योंकि अगर अर्थव्यवस्था में अन्य आकड़ों का
विश्लेषण किया जाए तो असंगठित क्षेत्र में जितनी गिरावट पिछले एक साल में आई है
उसके आधार पर वर्तमान में अर्थव्यवस्था की यह दर कुलमिलाकर सिर्फ 1 प्रतिशत के
आसपास ही है। और इससे यही स्पष्ट होता है कि अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष केवल सरकार
के द्वारा राजनीतिक परिलाभ के लिए जारी रिपोर्ट को ही आगे बढ़ा देती है अर्थात खुद
कोई विश्लेषण नहीं करती। अत: अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष द्वारा भारतीय अर्थव्यवस्था
के संदर्भ में किया गया आंकलन पूर्णत: भ्रामक है और गलत भी।
मैं अपने पक्ष में दो बाते रखना चाहूँगा। प्रथम तो ये कि वर्तमान में अर्थव्यवस्था
के संदर्भ में सरकारी द्वारा किया गया विश्लेषण अपूर्ण है क्योंकि इस विश्लेषण में
काम में लिए गए समंक देश के असंगठित क्षेत्र को छोड़कर हैं। ज्ञात रहे कि भारत की अर्थव्यवस्था में 45 प्रतिशत असंगठित का योगदान रहता
है। ऐसे में सरकार द्वारा इस क्षेत्र का कोई सर्वे किये बिना ही विकास दर की बात
करना पूर्णत: असहज और भ्रामक है। दूसरा, महंगाई के नियंत्रण रहने की जो बात की गयी है वह पूर्णत: मिथ्या है
क्योंकि इसके विश्लेषण में काम में लिए गए समंक ही दोषपूर्ण और अपूर्ण हैं। भारत
सरकार द्वारा जो समंक महंगाई को लेकर इस्तेमाल होते हैं उनसे सेवा क्षेत्र को दूर
रखा जाता है। भारत में सेवा क्षेत्र में स्कूल की फीस, टेलीफ़ोन बिल, इंश्योरेंस प्रीमियम एवं अन्य सेवाएं आती हैं। अब ये कितना गलत है कि सेवा
क्षेत्र जो आज देश के सकल घरेलू उत्पाद का 60 प्रतिशत है को महंगाई के मापन में
काम में ही नहीं लिया जाता है। यानी हास्यास्पद ही होगा अगर स्कूल की फीस, टेलीफ़ोन बिल, इंश्योरेंस प्रीमियम आदि सेवाओं के मूल्य भले ही बढ़ जाएं लेकिन महंगाई की में
कोई परिवर्तन नहीं होगा! इसके अतिरिक्त वो जीएसट कैसे बेहतर हो सकता है महगाई में
नियंत्रण की दृष्टि से जिसमें 15 फीसदी सेवाकर को बढाकर 18 फीसदी कर दिया गया।
क्या इस 3 फीसदी के इजाफे का असर सेवाओं के मूल्य पर नहीं पड़ा है? क्या सेवाओं का
मूल्य नहीं बढ़ा है? अगर बढ़ा है तो महंगाई भी बेइंतिहा बढ़ी है, और ऐसे में मैं कैसे
समर्थन कर लूं कि महंगाई नियंत्रण में है!
इन सब बातों से कोई मुह नहीं फेर सकता। सरकार समर्थक अभी भी कोई लोग जो
अर्थशास्त्र के थोड़े जानकार हैं वे अभी भी नोटबंदी और जीएसटी को अच्छा ही मान रहे
हैं। उनके अनुसार “नोटबंदी और जीएसटी दोनों ही दीर्घकालीन फायदे वाले निर्णय हैं।”
हालांकि वो भी ये स्वीकार कर रहे है कि “इन दोनों क़दमों से अर्थव्यवस्था की रफ़्तार
कुछ कम जरुर हुई है लेकिन यह अल्पकालिक है।” खैर हकीकत तो ये है कि नोटबंदी और
जीएसटी जैसे प्रयासों के कारण भारतीय अर्थव्यवस्था में संरचनात्मक बदलाव आ रहे हैं
और इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता। मेरे हिसाब से अगर असंगठित क्षेत्र में कमी
आई तो रोज़गार में कमी आएगी और इस कारण मांग में भी कमी आएगी। इस वजह से इस
क्षेत्र में निवेश भी कम हो जाएगा और निवेश कम हुआ है तो इसका असर शॉर्ट टर्म नहीं
होता। इसका असर लॉन्ग टर्म होगा। आज कोई भी बैंकों से कर्ज़ नहीं ले रहा है जो
मेरी इस बात का समर्थन है। जुलाई-अगस्त में क्रेडिट ऑफ़टेक माइनस में चला गया था
जो हमारे बीते 70-80 सालों में नहीं हुआ है। जहां तक मैं समझता हूँ क्रेडिट ऑफ़टेक कम होना दिखाता
है कि निवेश कम हो रहा है और उत्पादन भी कम हो रहा है। ऐसे में ये कहना कि
संरचनात्मक बदलाव के कारण बाद में फायदे होंगे! क्या ये कहना ठीक है? अर्थशास्त्र
के अनुसार अल्पकाल में हानि हो रही है तो आगे भी हानि ही होगी और अगर अल्पकाल में
सामान्य लाभ अर्थात न लाभ न हानि की स्थिति है तो ये दीर्घकाल में लाभ होगा। ऐसे
में अगर अभी नुकसान हो रहा है तो बाद में भी नुकसान ही होंगे।अभी इस बारे में ये
भविष्यवाणी करना मुनासिब नहीं है कि हम कब तक इससे उबर पाएंगे! आईएमएफ़ किस लॉन्ग
और शॉर्ट टर्म की बात कर रहा है ये कहना मुश्किल है।
आज देश के अर्थशास्त्री चौधरी चरणसिंह की 31 पुण्यतिथि है। देश की
अर्थव्यवस्था मुश्किल दौर से गुजर रही है। ऐसे में देश के रहनुमाओं को देशहित में
सोचते हुए आगे बढ़ाना चाहिए। सरकार को चाहिए कि वो दलगत राजनीति ऊपर उठकर देशहित
में सोचे और माननीय चौधरी चरणसिंह के इस कथन को आत्मसात करे जिसमें उन्होंने कहा
है कि “देश की खुशहाली का रास्ता खेत-खलिहानों से होकर गुजरता है।” यहां एक बात समझ
से बाहर है कि जब देश की अर्थव्यवस्था कृषि आधारित है, बाजार की दिशा और दशा भी
कृषि ही निर्धारित करती है। जब कृषि उत्पादन बेहतर है तो अर्थव्यवस्था भी बेहतर
होती है और कमतर तो अर्थव्यवस्था भी डाउन हो जाती है। तो फिर क्यों नहीं देश की
सरकारें कृषि की बेहतरी के लिए सोचती? अभी भी वक्त है कि हमें यह समझना ही होगा कि
वास्तविकता क्या है? माना कि विकास के लिए अन्य क्षेत्रों में भी विकास जरुरी है
लेकिन कृषि की बलि देकर नहीं। यहां फिर से चौधरी साहेब का वो कथन याद करना
प्रासंगिक होगा कि “कृषि के सामने उद्योगों को प्राथमिकता देना, घोड़े के सामने
गाडी खड़ी करने जैसा है।” देश के नागरिकों को भी आँखे मूंदकर चलने की आदत को छोड़ना
होगा। तभी हमें वास्तविकता का पता चल पायेगा अन्यथा तो अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष
एवं इस तरह की अन्य संस्थाएं और व्यक्ति यूँ ही मूर्ख बनाते रहेंगे.....इंक़लाब
जिंदाबाद।
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