डॉ. नीरज मील
वर्ष 2014 के लोकसभा चुनावों के दौरान प्रधानमंत्री पद के लिए अपने विचार रखते
हुए जनता से वादा किया था कि “अगर भाजपा सरकार केंद्र में आती है तो हर साल 1 करोड़
नौकरियों के नए अवसर सृजित करेंगे। रोज़गार की आस में बैठे देश के युवाओं ने भारतीय
जनता पार्टी को पूर्ण बहुमत देकर नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री बनाया। लेकिन आज
भाजपा को केंद्र में 4 साल सरकार के रूप में पूरे हो गए। 2019 में फिर से देश में
आम चुनाव होने हैं लेकिन वादें अभी भी अधूरे हैं और ये वादें ऐसे हैं जो एक साल
में पूरे नहीं किये जा सकते। इसी वजह से सरकार और मोदी के भाषणों पर सवाल खड़े होना
स्वभाविक है। रोजगार का वादा भी इन्ही वादों में से एक है जिसके लिए प्रधानमंत्री
द्वारा तीन साल पहले रोज़गार सृजन के उद्देश्य से 3 साल पहले अर्थात 8 अप्रेल 2015
को देश में मुद्रा योजना शुरू की गयी। सरकार द्वारा इस स्कीम के तहत बड़े एवं
विस्तृत स्तर पर रोज़गार के दावे कर रही है लेकिन हाल ही में वित्तीय सेवा विभाग
द्वारा जारी सूचना के अनुसार इस योजना की एक अलग ही तस्वीर उभरी है। सूचना के
अधिकार के अंतर्गत वित्त मंत्रालय के अंतर्गत आने वाले वित्तीय सेवा विभाग द्वारा
दी गयी सूचना जो कि ‘द वायर डॉट इन’ पर सामने आई है, में कहा गया है कि अब तक मुद्रा
योजना के अंतर्गत महज 1.3 फीसदी लाभार्थियों को ही 5 लाख या उससे ज्यादा का लोन
दिया गया है।
सूचना के अधिकार के अंतर्गत ये सूचना वित्त मंत्रालय के अंतर्गत आने वाले
वित्तीय सेवा विभाग द्वारा दिल्ली के आरटीआई कार्यकर्ता चन्दन काम्हे के आवेदन
पर दी गयी है। सूचना के अनुसार वर्ष
2017-18 इस योजना में 4.81 करोड़ लोगों को 2,53,677.10 करोड़ रूपये का ऋण दिया गया जो
कि औसतन 52,700 रूपये के लोन की राशि है। इस राशि के लिहाज़ से केवल ‘पकोड़ा
व्यवसाय’ या ‘चाय की थड़ी’ का व्यवसाय ही शुरू किया जा सकता है। लेकिन इन दोनों ही
व्यवसाय से रोज़गार के नए अवसर पैदा नहीं किये जा सकते। अगर मुद्रा योजना में उद्देश्यों पर गौर करें तो
महिलाओं और दलितों को फोकस करने की बात कही गयी है। इन वर्गों पर विशेष ध्यान देने
का लक्ष्य तय किया था। गौरतलब है कि केंद्र में मोदी सरकार इस योजना के तहत आने
वाले लाभार्थियों को रोजगार में संलग्न मानने पर विचार कर रही है। श्रम मंत्रालय
ने इस आशय से प्रस्ताव भी रखा था।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की
महत्वकांक्षी मुद्रा योजना के अंतर्गत 3 मई 2018 तक 12.61 करोड़ लोगो को ऋण दिया जा
चुका है। मुद्रा योजना से सम्बंधित सांख्यिकी समंकों के अनुसार इनमें से सिर्फ
17.57 लाख लोगों जो कि केवल 1.3 फीसदी है को ही 5 लाख या उससे ज्यादा का लोन दिया
गया है। इनमें से बैंकों द्वारा 65 फीसदी लोगो को ऋण दिया गया है और माइक्रो
फाइनेंस इंस्टीट्यूशंस द्वारा 35 को लोन दिया गया है। स्पष्ट है कि दिया गया कर्ज
रोज़गार के अवसर पैदा करने में नाकाफी ही साबित हुआ है हालांकि वित्त वर्ष 2017-18 में
इस योजना में दिया गया ऋण 2015-16 के मुकाबले 85 फीसदी ज्यादा है जो कि 1,32,954
के मुकाबले 2,46,437 करोड़ रूपये है।
बैंकों और माइक्रो
फाइनेंस इंस्टीट्यूशंस द्वारा कम ऋण दिए जाने की 3 प्रमुख वजह हैं। पहली तो ये कि
इस योजना के तहत बिना कोलेटरल के ऋण दिए जाने का प्रावधान है। अर्थात् बैंकों और
माइक्रो फाइनेंस इंस्टीट्यूशंस द्वारा बिना किसी गारंटी या सम्पति को गिरवी रखे ऋण
दिया जाता है। ऐसे में इस योजना के तहत लाभार्थी द्वारा यदि ऋण नहीं चुकाया जाता
है तो इन ऋणदाता संस्थान के पास वसूली का कोई साधन नहीं बचता है। इसी वजह से ये ऋण
इन संस्थाओं के लिए जोखिम ऋण माना जाता है। ऐसे में बैंकों और माइक्रो फाइनेंस
इंस्टीट्यूशंस द्वारा इस योजना के तहत ऋण देने में दिलचस्पी नहीं है। बैंकों और
माइक्रो फाइनेंस इंस्टीट्यूशंस द्वारा जोखिम ऋण न देने के पीछे पूर्व की
नॉन-परफोर्मिंग एसेट का बोझ की दलील दी जा रही है और कहा जा रहा है कि ऐसे में अगर
जोखिम ऋण दिया गया तो वो एनपीए को और बढ़ाने वाला ही सिद्ध होगा। दूसरा बड़ा कारण है
बैंकिंग अधिकारीयों की कम कार्यकुशलता और अदूरदर्शिता। किसी भी सरकारी योजना की
सफलता या असफलता में सरकारी तंत्र की कुशलता का बड़ा महत्व होता है। नोटबंदी की
असफलता में बैंकों की भूमिका संदिग्ध रही है। जबकि जन धन योजना को सफल बनाने में
बैंकिंग क्षेत्र के प्रयासों की सराहना की जानी चाहिए। ऐसे में मुद्रा योजना में
इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता। कम ऋण जारी होने में बैंकों की भूमिका उदासीन
ही रही है। संभाव्य सफल और बेहतर रोज़गार योजना को पर्याप्त कोष की उपलब्धता की साख
न देना या ऐसी योजना को योग्य ही न मानना जैसे कार्य इस उदासीन रवैये में ही शामिल
होते हैं। तीसरा बड़ा कारण है जनता में जागरूकता और शिक्षा की कमी। शिक्षा ही वह ताकत है जो
मनुष्य को मनुष्य बनाती है। इस योजना का प्रचार- प्रसार कम किया गया क्योंकि बिना
सोचे समझे ही इस योजना को बैंकों और माइक्रो फाइनेंस इंस्टीट्यूशंस के लिए घातक
सिद्ध कर दिया।
भारत के छोटे उद्यमियों की सहायता करना
भारतीय अर्थव्यवस्था के विकास और समृद्धि में सहायक बनने का सबसे बड़ा माध्यम
है। वास्तव में जब उनके ईमान को पूंजी (मुद्रा) के साथ जोड़ने पर वह सफलता की
कुंजी साबित होगा। विशेषकर महिला स्व-सहायता समूहों इन ऋण लेने वालों में जो
ईमानदारी और निष्ठा देखी गई है, वह किसी अन्य क्षेत्र में विरले ही दिखती है।
बशर्ते मुद्रा योजना का लक्ष्य – ‘जिसके पास धन नहीं है, उसे धन उपलब्ध कराना’
है लेकिन कैसे? यह सही है कि यह योजना 3 साल से अपेक्षित सफलता प्राप्त नहीं
कर पाई है। लेकिन इसका आशय ये भी नहीं की ये फ्लॉप हो गयी या अब सफल नहीं हो सकती।
इसके लिए वर्तमान ढांचों में कोई बहुत बड़ा बदलाव करने की आवश्यकता नहीं होगी, थोड़ी सी हमदर्दी, थोड़ी सी समझबूझ और एक छोटी सी पहल की जरूरत है। मैं बैंकों से अनुरोध करता
हूँ कि आप स्थानीय जरूरतों और सांस्कृतिक संदर्भों के अनुरूप माइक्रोफाइनेंस के
सफल मॉडल्स का अध्ययन करें, ताकि हम गरीब से गरीब इंसान की भरपूर मदद करने में
सक्षम हो सकें। आपका इस प्रयास से स्थापित वित्तीय प्रणालियां जल्द ही कामकाज
के मुद्रा मॉडल को अपना लेंगी यानी ऐसे उद्यमियों को सहायता देंगी, जो कम से कम राशि में बड़ी संख्या में लोगों को रोजगार देंगे। राजस्थान के
संदर्भ में देखा जाए तो प्याज को लेकर ऐसी संभावनाएं है जो किसानों से लेकर
बेरोजगारों को भी अच्छी राहत देने में सक्षम है। जरूरत है कि हम बेरोजगारों के भले
के लिए सोचे न कि दुष्परिणामों को लेकर बैठ ही जाएं। कोई भी बेरोजगार दर-दर भटकना
नहीं चाहेगा और न ही जानबूझकर बेरोजगार होना। हमारे देश में ऐसा महसूस होता है कि
बहुत सी चीजें सिर्फ दृष्टिकोण के आसपास मंडराती रहती हैं, लेकिन अक्सर वास्तविकता बिल्कुल अलग होती है। बड़े उद्योगों द्वारा रोजगार
के ज्यादा अवसर सृजित किए जाने संबंधी दृष्टिकोण भी इसी तरह से गलत है।
वास्तविकता पर नजर डालने से पता चलता है कि बड़े उद्योगों में सिर्फ 1 करोड़ 25
लाख लोगों को रोजगार मिलता है, जबकि देश के 12 करोड़ लोग छोटे उद्यमों में काम
करते हैं। इसी के चलते यह योजना बेरोजगारों के बीच नहीं आ पाई। यही स्थिति ऋणों को
लेकर है जिनमें बड़े ऋण में जोखिम अधिक होती है और छोटे ऋणों में वसूली की
संभावनाएं ज्यादा। इसलिए हमें अपने दृष्टिकोण में भी बदलाव करते हुए उस बिंदु पर
भी विश्वास आजमाना चाहिए जो अभी तक उपेक्षित ही था। उम्मीद ही नहीं बल्कि पूर्ण
विश्वास है कि ऐसा करना देशहित में रहेगा और रोज़गार की संभावनाओं को बढ़ाने वाला
होगा। अर्थव्यवस्था को भी संबल मिलेगा और समाज को भी फायदा होगा। इसी बात की भारत
को आवश्यकता है और बेरोजगारों को इंतज़ार......इंक़लाब जिंदाबाद।
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