डॉ. नीरज मील
एक ख़बर सामने आई जिसका शीर्षक था “गांव बंद आंदोलन से निपटने पुलिस को मिलीं
10 हजार लाठियां।” मध्य प्रदेश की इस ख़बर को पढ़ते ही दिमाग में कई सवाल कौंध गये
कि क्या डर या खौफ़ के चलते आन्दोलन रुक सकते हैं? क्या पुलिस का इस्तेमाल
शांतिपूर्वक विरोध को दबाने के लिए किया जाना उचित है? क्या ये ख़बर पुलिस का चेहरा
क्रूर दिखाने वाली नहीं है? क्या सरकार को लाठियों में कोष का दुरूपयोग से बचकर
किसानों की सुध नहीं लेनी चाहिए थी? क्या शिवराज सिंह चौहान सरकार का आंदोलनकारियों का नेतृत्व करने वाले किसान नेताओं की जिलों में 'मैन टू मैन"
मार्किंग किया जाना उनकी
नेतृत्व क्षमता और शासन की अकर्मण्यता को उजागर करने वाला कदम नहीं है? इतना ही
नहीं इन्टरनेट सेवाओं का स्थगन भी रखा गया है। क्या सरकार का प्रदर्शन को एक दायरे तक
सीमित करना किसानों से विरोध करने के बुनियादी हक़ छिनना नहीं है?
मध्य प्रदेश सहित देश के कई हिस्सों एवं
राज्यों में 1 से 10 जून तक असंगठित बंद का आह्वान किया गया है। इस बंद के दौरान
गांव से शहरों की ओर किसी भी प्रकार की वस्तुओं का आदान-प्रदान न करने की बात कही
गई है। ऐसे में सवाल यह उठता है कि क्या सरकार के पास आंदोलन दबाने के सिवाय कुछ
नहीं है? सोचने वाली बात है कि आखिर सरकार किसानों की इतनी अनदेखी करके किसे खुश
करना चाहती है? आखिर देश का अन्नदाता इस तरह के प्रदर्शन करने को क्यों मजबूर है?
क्यों किसानों की बातों और मांगों की लगातार अनदेखी की जा रही है? यह अपने आप में
बहुत बड़े सवाल हैं लेकिन फिर भी निरुत्तर ही है। यह स्थिति देश और राज्यों की सरकारों की
मंशा और अकर्मण्यता दोनों की ओर इशारा करती है। मंशा ठीक नहीं है और कार्य करने की शैली
बिल्कुल भी उचित नहीं है। जब किसी की कहीं सुनवाई ना हो तो आंदोलन
ही एक आखरी हथियार बचता है। लेकिन यहां फिर से तमिलनाडु के तूतीकोरिन की
वह घटना याद आ जाती है। जहां ऐसा लगता है कि आंदोलन को जानबूझकर
भड़काऊ बनाने का सरकारी कार्यक्रम पहले से तय होता है। और इस कार्यक्रम में
न जाने कितने ही निर्दोषों की जान चली जाती है। आखिर हो क्या रहा है
इस देश में? आखिर क्यों एक किसान को उसकी
उपज का मूल्य लेने का हक नहीं दिया जा रहा जबकि भारतीय जनता पार्टी और देश की तमाम
अन्य पार्टियों द्वारा भी अपने चुनाव घोषणापत्र में इस बात को स्पष्ट रूप से रखा जाता
है कि वह किसानों के पक्ष के उचित मूल्य के लिए प्रतिबद्ध है। आखिर ऐसे हालात
क्यों बनते हैं जहां चुनाव पूर्व की प्रतिबद्धताएं नष्ट हो जाती हैं?
भारत में किसानों का आक्रोश बढ़ता ही जा रहा है और बढ़ेगा भी। जब राजनैतिक दल वादे कर ले और उन्हें पूरा नहीं करे तो ऐसे में लोगों का आक्रोश बढ़ना लाजमी
है। इस बढ़ते आक्रोश के कारण ही
केंद्रीय मंत्रिमंडल ने किसानों को पुणे लागत का डेढ़ गुना मूल्य देने और 2022 तक
आमदनी दोगुनी करने का वादा किया है। यहां ये उल्लेखनीय है कि इससे पहले सरकार के अटॉर्नी जनरल ने यह लिख कर दे दिया था सुप्रीम कोर्ट को कि
फसल के लागत का डेढ़ गुना समर्थन मूल्य दिया जाना संभव नहीं है। 132 करोड़ की जनसंख्या वाले देश में नीति-नियंता
और वैज्ञानिक परेशान है कि बढ़ती आबादी, शहरीकरण, जलवायु परिवर्तन और पर्यावरण के
गिरते स्तर के कारण फसल उत्पादन में गिरावट को कैसे रोका जाए। कृषि उपज में ठहराव आ गया है,
सकल घरेलू उत्पाद में खेती की भागीदारी घटकर 14% रह गई है। एक और कृषक फसलों के अधिक लागत को लेकर चिंतित है
वहीं दूसरी ओर उत्पादन लागत बढ़ने से खेती महंगी होती जा रही है। खेती घाटे का सौदा शुरू से ही रही है क्योंकि यह
एक अनिश्चितताओं का खेल है। ऐसे में ये गौर करना भी लाज़मी होगा कि
क्या होगा अगर किसान ने खेती करना ही छोड़ दिया तो? जहां औद्योगिक और सेवा क्षेत्र में वार्षिक वृद्धि दर 7% से अधिक है वही
पिछले 2 वर्षों में खेती की वृद्धि दर 2.3% रह गई है। हमें समझना होगा कि खेतों में आवारा पशुओं की बढ़ती संख्या, नीलगाय, सूअर, बंदरों का प्रकोप बढ़
रहा है और ऐसे में मजदूरी की लागत बढ़ने के साथ खेत मजदूर की उपलब्धता की जबरदस्त
रूप से कम हुई है। इसके अतिरिक्त बाढ़
वाले वाले कीट और बीमारियों से भी कभी-कभी फसलें पूरी तरह बर्बाद हो जाती है। तब किसानों को बीज के दाम भी नहीं मिलते। फसल पैदा होने के बाद उसे बाजार में बेचने की
सुविधाएं भी सीमित है। केंद्र सरकार
द्वारा भी समान रूप से सभी प्रांतों में क्रय केंद्र स्थापित नहीं किए गए।
जहां एक ओर भंडार है और सीमित सुविधाओं के कारण करोड़ों रुपए के कृषि उत्पाद
नष्ट हो जाते हैं वहीँ दूसरी ओर कृषि उत्पादों के
वितरण की प्रणाली दोषपूर्ण है। समुचित वितरण प्रणाली के न होने से बिचौलिए, स्टॉकिस्ट और सटोरिए लाभ कमा
जाते हैं जबकि किसानों को बाजार मूल्य से 300 से 400% कम मूल्य प्राप्त होता है। हकीकत में किसान 4 का आलू बेचता है और उपभोक्ता उसे खरीदना है 20 रूपये प्रति किलोग्राम। किसानों और उपभोक्ताओं के बीच का अंतर कम किया जाना चाहिए। सरकार को चाहिए कि सारी परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए किसानों को जो केंद्र सरकार द्वारा न्यूनतम
मूल्य या समर्थन मूल्य घोषित किया जाता है उसे किसी भी प्रकार से उचित नहीं ठहराया
जा सकता। घोषित मूल्य प्राय:
फसलों के लागत मूल्य से भी कम होता है। ऐसे में किसान कैसे अपना जीवन यापन करें। विरोध नहीं करेगा तो क्या करेगा समर्थन मूल्य का
लाभ भी बड़े किसानों को ही मिलता है। 60% से अधिक लघु और सीमांत किसान हैं जिसके पास घरेलू
आवश्यकता से अधिक उत्पादन नहीं होता है। वे इस लाभ से वंचित रह जाते हैं। राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण आयोग की 2005 की रिपोर्ट के अनुसार 45% किसान खेती
छोड़ना चाहते हैं। 2005 की रिपोर्ट के
ये आंकड़े 2018 में इतने बढ़ चुके है कि अब कोई खेती करना ही नहीं चाहता। किसान केवल परंपरा निर्वाह
करते हुए ही खेती कर रहे हैं। फसलों के उत्पादन लागत मूल्य के आकलन की विधि में आमूलचूल परिवर्तन होना ही
चाहिए। कृषि मंत्री ने यह रेखांकित किया कि सरकार
दो दर्जन से अधिक फसलों का समर्थन मूल्य उनकी लागत का डेढ़ गुना देने की तैयारी कर
रही है, लेकिन अभी तक इस सवाल का जवाब सामने नहीं
आ सका है कि आखिर लागत मूल्य का निर्धारण कैसे होगा? लागत मूल्य के निर्धारण की प्रक्रिया जो भी हो, वह किसानों के हितों की पूर्ति करने और उन्हें संतुष्ट करने वाली होनी चाहिए।
इस मामले में कृषि मंत्रलय इसकी अनदेखी नहीं कर सकता कि केवल उचित समर्थन मूल्य की
घोषणा ही पर्याप्त नहीं है। इसके साथ यह भी आवश्यक है कि कृषि उपज घोषित समर्थन
मूल्य के आधार पर ही खरीदी जाए। कृषि मंत्री और उनका मंत्रलय इससे अनभिज्ञ नहीं हो
सकता कि कई बार संतोषजनक समर्थन मूल्य की घोषणा तो कर दी जाती है, लेकिन उस मूल्य पर कृषि उपज की बिक्री
इसलिए नहीं हो पाती, क्योंकि सरकारी
एजेंसियां पर्याप्त अनाज खरीदने में सक्षम नहीं होतीं। इस समस्या का समाधान
प्राथमिकता के आधार निकाला जाना चाहिए। इसी के साथ कोई ऐसी व्यवस्था भी की जानी
चाहिए ताकि किसान इससे परिचित रहे कि कौन सी फसल उगाना लाभदायक है? कई बार किसान यह सोचकर कोई फसल उगाते हैं
कि उसकी उपज के बेहतर दाम मिलेंगे, लेकिन व्यापक पैदावार के कारण उसके दाम गिर जाते हैं और इस तरह उन्हें भरपूर
पैदावार के दुष्परिणाम भोगने पड़ते हैं। यह किसी से छिपा नहीं कि किसान न केवल
इससे चिंतित रहता है कि कहीं उपज कमजोर तो नहीं रह जाएगी, बल्कि इससे भी कि कहीं पैदावार इतनी
ज्यादा तो नहीं हो जाएगी कि उसके दाम गिर जाएं। बेहतर हो कि इस पर गौर किया जाए कि
क्या कुछ फसलों की खेती जरूरत से ज्यादा रकबे में कर दी जाती है? खेती में काम आने वाली वस्तुओं के जो वास्तविक मूल्य वर्तमान में है उन्हीं
को आधार मानकर उत्पादन मूल्य का आकलन करना चाहिए। किसानों की समर्थन मूल्य में भागीदारी बढ़ानी
चाहिए। सरकारों को यह
सोचना चाहिए कि अगर खेती बंद हो गई तो फिर वह सरकार किस चीज की चलाएंगे?
केंद्र की मोदी सरकार बार-बार यह कह रही है कि वह वर्ष 2022 तक किसानों की आय
दोगुना करने के लिए संकल्पबद्ध है और इस लक्ष्य का हासिल करने के लिए एक के बाद एक
अनेक कदम भी उठाए जा रहे हैं। अगर ऐसा है तो फिर किसानों की हालत में उतनी तेजी से
सुधार होता हुआ क्यों नहीं दिखता? जिससे यह माना जाने लगे कि अगले चार सालों में
खेती मुनाफे का सौदा बन जाएगी। नि:संदेह बात तब बनेगी जब किसानों को यह भरोसा हो
जाए कि अगले कुछ वर्षो में उनकी आय वास्तव में दोगुनी होने जा रही है। लेकिन
वर्तमान परिपेक्ष में तात्कालिक राहत वाले कदम उठाने की आवश्यकता है जिससे किसानों
द्वारा लगातार की जा रही आत्महत्याएं को रोका जा सके। अन्यथा 2022 में आय किनकी
बढ़ेगी? यहां मुझे देश के महान क्रांतिकारी अमरशहीद रामप्रसाद बिस्मिल की ये चन्द पंक्तियां
रूबरू हो जाती हैं कि-
मिट गया जब मिटने वाला, फिर सलाम आया तो क्या,
दिल की बर्बादी के बाद उनका पयाम आया तो क्या ।।
इंक़लाब ज़िंदाबाद!
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