डॉ. नीरज मील
देश में शिक्षा नहीं
है इस बात में कोई अतिशयोक्ति नहीं है लेकिन जो शैक्षणिक प्रणाली है वह भी एक तरह
से गंभीर किस्म के दोषों की खान ही साबित हो रही है। हर वर्ष समूचे देश में
राज्यों एवं केन्द्रीय बोर्ड के परीक्षा परिणाम चर्चा का विषय बनते रहे हैं। अनेक
अभिभावकों और विद्यार्थियों में इन परिणामों को लेकर काफी उत्साह देखा जा सकता है। जहां हर एक विद्यार्थी और अभिभावक अधिक से अधिक अंकों के लिए भावुक ही नज़र
आता है। स्थिति ये है कि जितने अधिक अंक उतनी ही ज्यादा ख़ुशी बढ़ जाती है। वहीँ कुछ
विद्यार्थियों में एक बेवजह का डर भी बना रहता है इन परिणामों को लेकर। कुछ फेल
होने या कम नंबर आने की वजह से आत्मह्त्या तक कर लेते हैं। कुछ कम नंबर आने की वजह
से एक गहरे अवसाद को प्राप्त हो जाते जिसमें से बमुश्किल ही निकला जाता है। लेकिन हम यह भी भूल जाते हैं कि इन अंकों का क्या महत्व है? आप खुद ही आंकलन कर
लीजिए कि क्या आजतक जिन बच्चों ने बोर्ड की परीक्षा में वरीयता सूची में स्थान
हासिल किया है वो आगे चलकर कितने सफल हुए हैं ?
हाल ही
में केन्द्रीय सेकंड्री परीक्षा बोर्ड (CBSE) की माध्यमिक(सेकंड्री) व उच्च
माध्यमिक(सीनियर सेकंड्री) दोनों परीक्षाओं में प्रथम स्थान पाने वाले पांच बच्चों
के अंक पांच सौ में से चार सौ निन्यानवे रहे। इतना ही नहीं एक लाख से अधिक बच्चों
के नब्बे फीसदी से अधिक अंक आये। ये सब आंकड़े प्रसन्नता से ज्यादा चिंताजनक ही लग
रहे हैं। यह भी कहना जरुरी है कि विगत कुछ वर्षों से अंक मिलना आसन होता चला आ रहा
है लेकिन इस बार तो स्थिति कुछ और ही हो गयी। कहने का अभिप्राय यही है कि वर्तमान
समय में शिक्षा के अभाव के साथ-साथ मूल्यांकन की पद्धति भी नाकारा हो चुकी है। वर्तमान
मूल्यांकन पद्धति विद्यार्थियों की प्रतिभा आंकने में सक्षम नहीं है। ऐसे में इस
प्रक्रिया को केवल एक मशीनी प्रक्रिया ही करार दे सकते हैं।
खैर, परीक्षा परिणामों के
बाद ख़ुशी और अंकों के सहारे नए स्वप्नों के बीच कई अत्यंत ही हृदयविदारक खबरें भी
आई ही थी कि कई विद्यार्थियों ने आत्महत्या कर ली। लेकिन अधिकांश लोगों ने इसे
परीक्षा में असफल होने पर बुझदिली से उठाया गया एक कदम ही माने। यह ठीक उसी प्रकार
की स्वीकारोति है जैसी आजकल सरकार और मंत्री किसानों की आत्महत्या को केवल गिनती
में इजाफा मानते हैं। लेकिन हकीकत तो ये है कि इन आत्महत्या करने वालों में कई
बच्चे वे हैं जिनके 65 से 70 फीसदी तक अंक प्राप्त हुए हैं। बेहतर अंकों से
उत्तीर्ण होने के बावजूद इस दुःखद एवं खौफ़नाक कदम के पीछे वजय क्या थी, शायद ही
किसी ने गौर किया हो। वास्तव में देखा जाए तो ये अंक प्राप्ति की उस हौड़ एवं दौड़
का ही परिणाम है जो भारत में केन्द्रीय सेकंड्री परीक्षा बोर्ड एवं राज्य सेकंड्री
परीक्षा बोर्ड जैसी संस्थाओं द्वारा निकाला जाता है। यद्यपि यह स्थिति भारत के
भविष्य को पूर्णत: समाप्त करने वाली है तथापि इस सम्बन्ध में अभी तक कोई अपेक्षित
सुधार नहीं किया गया है और न ही निकट
भविष्य में ऐसी को संभावना नज़र आ रही है। इसलिए अब इस स्थिति से निपटने के लिए युद्ध
स्तर पर प्रयास कर कोई उपाय खोजा जाना ही चाहिए।
आज से
ठीक 20 साल पहले 50 फीसदी अंक ला पाना भी टेढ़ी खीर थी जबकि आज 60 फीसदी अंक
सामान्य बात है। ऐसे में वर्तमान विद्यार्थी अगर उस 20 साल पहले की स्थिति को थोडा
बहुत भी महसूस करें तो निश्चित ही वो एहसास वर्तमान विद्यार्थियों के लिए चिंता
में डालने वाला होगा। और जैसे जैसे पीछे जायेंगे ये चिंता और भी बढती चली जायेगी।
ऐसे में इस स्थिति के लिए स्कूल बोर्ड और CBSE जैसी संस्थाएं ही ज़िम्मेदार हैं।
अत: इन सभी को ये स्पष्ट करना चाहिए कि “अंकों की इस दौड़ को उन्होंने किस
परिस्थिति में उचित समझकर अपनाया?” और “आखिर इनको इसमें क्या लाभ दिखाई दिए जो अब
तक देश और समाज को नहीं मिल पाए?” अगर ये पद्धति शिक्षाविदों या मूल्यांकन
विशेषज्ञों की अभिशंषा पर हुआ है तो स्थिति और भी गंभीर है। या फिर ये किसी मंत्री
अथवा मंत्रालय की कृपा दृष्टि इसका स्रोत रही है? स्पष्ट है कि हाल ही में शैक्षिक
संस्थाओं को शैक्षणिक नेतृत्व से हटाकर नौकरशाहों को सौपी गयी है जो पूर्णत: असफल
है।
CBSE
शुरू से ही अंक देने में उदार रहा है लेकिन एक समय था जब राज्यों के बोर्ड मूल्यांकन
को सख्त रखते थे और अपना पाठ्यक्रम भी तुलनात्मक दृष्टि से गुणवत्तापूर्ण रखते थे।
एक समय बाद सबसे पहले सत्रांक की अवधारणा आई। इसके बाद दूसरी तब्दीली राज्यों के
बोर्डों ने पाठ्यक्रम भी CBSE वाला ही अपना लिया। इस बदलाव से गुणवत्ता में कमी तो
आई लेकिन यहां तक स्थिति स्वीकार्य थी लेकिन उसके बाद मूल्यांकन भी एकसमान कर लिया
गया इस प्रकार वर्तमान में जो बदहाल केन्द्रीय सेकंड्री परीक्षा बोर्ड का है वही
राज्य परीक्षा बोर्डों का हो चला है क्यों कि कालान्तर में राज्य सेकंड्री परीक्षा
बोर्ड भी केन्द्रीय सेकंड्री परीक्षा बोर्ड से ही अभिप्रेरित हैं। देश के सभी
शिक्षा और स्कूल बोर्डो को स्वायत्ता होनी ही चाहिए। एक उचित स्तर का शैक्षिक और
गैर शैक्षिक मानकों, मापदंडों एवं मूल्यांकन पद्धतियों का मानक होना चाहिए। लेकिन
किसी भी बोर्ड को मनमाने ढंग से अथवा गैर शैक्षिक कारणों से मानकों, मापदंडों एवं मूल्यांकन
पद्धतियों में छेड़खानी की छूट सर्वथा वर्जित ही रहनी चाहिए। वर्तमान परिपेक्ष में
प्राप्तांकों में अधाधुंध तरीके से हुई बढ़ोतरी के विश्लेषण में जो प्रश्न जन-मानस
से उभर कर सामने आएं हैं उनका उचित विश्लेषण होना चाहिए और प्राप्त निष्कर्षों का
बेबाक सुधारात्मक प्रयोग भी।
हर एक
विद्यार्थी की ख्वाहिश होती है कि उसका देश के सबसे प्रतिष्ठित कॉलेज में दाखिला हो। 2018 के CBSE की 12 वी की
परीक्षा में करीब 72 हज़ार से ज्यादा बच्चों ने नब्बे फीसदी से अधिक अंक प्राप्त
किये हैं और 12 हज़ार से ज्यादा बच्चों ने 95 प्रतिशत से अधिक अंक प्राप्त किये हैं।
लेकिन इतने अंक हासिल करने बावजूद भी बहुत सारे बच्चों को निराशा ही हाथ लगेगी
क्योंकि सभी के पास विदेश जाकर पढने के संसाधन नहीं होते। ऐसे में सवाल यही खड़ा
होता है कि “प्राप्तांकों का महत्व क्या है? एक विस्तृत खोज के बाद भी ऐसी कोई
जानकारी सामने नहीं आ पाई है जिससे ये सिद्ध होता हो या लगता हो कि देश की किसी भी
संस्थान ने देश के बोर्ड की वरीयता सूची में आने वाले सौ-दौ सौ विद्यार्थियों की
आगे की प्रगति का अध्ययन किया हो। क्योंकि ऐसा अध्ययन देश में हुआ होता और उसकी
रिपोर्ट देश के सामने आई होती तो जो अभिभावक, विद्यार्थी इन प्राप्तांकों के उचित
महत्व की हकीकत को समझ पाते। कॉलेज भी प्राप्तांकों के आधार पर एडमिशन लेने से
परहेज करते। प्राप्तांकों के आगे के जीवन की सार्थकता भी समझ में आ जाती। मेरी
चिंता ये है कि इन प्राप्तांकों के चक्कर में हम उस प्रतिभा को देखने से कतरा रहे
है या नकार रहे हैं जो अंकतालिका के सामने आने से हमें दिखाई नहीं दे रही है।
इस बात
में कोई शक नहीं कि प्राप्तांकों की हकीकत भयावह है। देश के रहबरों को शिक्षा और
शिक्षार्थी के बारें में सोचने की फुर्सत भी नहीं है और निश्चित ही वो सक्षम भी
नहीं हैं। ऐसे में विद्यार्थी खुद सोचे कि
आपकी रूचि किस विषय में हैं? आप खुद तय करें कि आप जीवन में किस क्षेत्र में नए
आयाम स्थापित करना चाहते हैं? छात्र खुद देखे कि ऐसा क्या है जो वो चाहते हुए भी
नहीं कर पाए? क्या वे समाज के लिए कुछ सामाजिक कार्य करना चाहते थे लेकिन उसे गणित
या बायलोजी मजबूरीवश पढ़नी पड़ी। इसलिए समय यही है जब आप खुद की रूचि के हिसाब से
उसे ही समय दे।वही कार्य करें जो आपको पसंद है। अपने रूचि वाले क्षेत्र को तवज्जो
दे और पूरी तन्मन्यता से अपनी ताकत झोंक दे फिर देखे परिणाम निश्चित ही बेहतर
होंगे। इसलिए किसी के दबाव में अपनी ज़िन्दगी का रास्ता तय न करें बल्कि अपनी
प्रतिभा को पहचान कर उसे निखारे और अपने प्रयासों पर यकीं करें। ऐसे में अभिभावकों
को चाहिए कि वे अपने बच्चों की प्रतिभा को पहचाने और अपने बच्चों को उनकी प्रतिभा
को पहचानने में सहयोग करें। सही मायनों में यही जीवन ध्येय है लेकिन दुर्भाग्य से वर्तमान
समय में हम इससे काफी दूर निकर चुके हैं। इसलिए वक्त की नजाकत को समझते हुए हमें
इस ओर ध्यान देना चाहिए अन्यथा देर हो जाएगी। देश महान नेताओं को चाहिए कि वे झूठे
और वाहियात भरे वादे करने से बचे। भाषणों की झूठ से जनता को गुमराह करना बंद करें
और देशहित के मुद्दों पर काम करना शुरू कर दे।
इंक़लाब जिंदाबाद।
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