डॉ. नीरज मील
देश में वैचारिक परिवर्तन
एक सामान्य बात है बशर्ते ये प्राकृतिक हो। वैचारिक परिवर्तन होने भी चाहिए।
वैचारिक तब्दीली नागवार तो तब गुजरती है जब वो मूल्यों को भी नष्ट करने वाली या इन
मूल्यों को छोड़ने वाली होती है। दुर्भाग्य से भारत में भी यही हुआ। जो मूल्य और व्यक्तित्व
देश, समाज और मानवता के लिए हानिकारक माने जाते थे वे आज़ादी के बाद
धीरे-धीरे स्वीकार होने लगे और अब तो अप्रत्याशित, असामाजिक, अस्वीकार्य या तिरस्कार को सामान्य मानकर स्वीकार किया जा चुका है।
इस परिवर्तन की हमने कभी अपेक्षा नहीं की थी। इसी क्रम में ये भी परम सत्य है कि
चुनावों के दोष,
अन्याय, प्रशासन का बोझ और अमीरों
के अत्याचार देश पर भारी ही पड़ रही हैं। वैसे सामान्य रूप से ये चारों दोष एक समान
प्रकृति और प्रवृति वाले हैं। आज़ादी के बाद देश के आम चुनावों की तासीर और
भारतीयों के मानस को अच्छी तरह से विश्लेषित करने के बाद ही उपर्युक्त कथन
निष्कर्षित होता है।
जिस देश में किसान
आत्महत्या कर रहे हों, देश का युवा बेरोजगार हो, जहां लाखों लोगों को दो जून की रोटी नसीब न हो वहां विधायकों और
सांसदों को हर चुनाव जीतने पर एक नई पेंशन पिचली पेंशन के साथ मिल जाए जबकि
संविदाकर्मिकों को अल्प मानदेय भी नेताओं को अनुचित न लगे तो इससे बड़ा अन्याय या
सत्ता का दुरुपयोग और क्या हो सकता है? क्या किसी अन्य श्रेणी के
पेंशनभोगी के लिए यह सुविधा उपलब्ध है? दूसरा प्रश्न कि नेता जी
पेंशन किस हक़ से लेते हैं, जबकि पेंशन नियोक्ता और
कर्मचारी का सम्बन्ध होने पर ही मिल सकती है या फिर किसी बीमा कम्पनी से खरीदने
पर! इस परिवर्तन की क्या हमने कभी अपेक्षा की थी? तमाम
विधायक और सांसद वे भाग्यशाली लोग होते हैं जिनकी संपत्ति एक कार्यकाल में ही
असीमित ढंग से बढ़ सकती है और उन्हें किसी भी प्रकार के टैक्स भी नहीं देना पड़ता।
इतना ही नहीं यदि कोई व्यक्ति कुछ दिन या केवल एक दिन के लिए भी जन प्रतिनिधि बने
तो वो जीवनर्पयत पेंशन के हकदार कैसे हो जाते हैं? वाकई
विश्व में इतना विकसित व प्रगतिशील देश तो खोज करने
पर भी नहीं मिल सकता।
भारत के सर्वोच्च न्यायालय
ने कुछ समय पहले ही उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्रियों को आवंटित बंगलों को गैर
संवैधानिक करार दिया। क्या लोकतंत्र में ऐसा कोई सिद्धांत है जिसमें किसी राज्य के
पूर्व मुख्यमंत्रियों को जीवनर्पयन्त सरकारी बंगले देने का प्रावधान है? जनता के पैसे का ऐसा दुरुपयोग समाज स्वीकार कर ले, या फिर एक बलात्कारी या हत्या करने वाला ही सांसद या विधायक बन जाए
तो ये भारतीय प्रजातंत्र के प्रशंसकों का सिर शर्म से झुकाने वाला होता है।
सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय के विरुद्ध अमर्यादित प्रस्ताव पास कर पूर्व
मुख्यमंत्रियों के बंगले बचा लिया लेकिन आज विधायिका अमर्यादित हो चुकी है। कुछ वर्ष
पहले इलाहाबाद हाईकोर्ट के फैसले से जुड़ी एक खबर आई जिसमें एक याचिका जिसमें एक
नेता ने कोर्ट से आग्रह किया था कि “अदालती फैसले के चलते
उन्हें मुख्यमंत्री की गद्दी छोड़नी पड़ी, लिहाजा उन्हें भी ‘भूतपूर्व मुख्यमंत्री’ माना जाना चाहिए’’ को निरस्त कर दिया गया था। सुप्रीम कोर्ट के हालिया फैसले के बाद यह
अपेक्षा थी कि सभी पूर्व मुख्यमंत्री एक सुर न्यायालय के निर्णय का सिद्धांत रूप
में स्वागत करते हुए अपना बंगला छोड़ने के लिए तैयार हो जाएंगे। लेकिन अभी तक की
प्राप्त जानकारी के अनुसार केवल राजनाथ सिंह बंगला छोड़ा चुके है और कल्याण सिंह
छोड़ने की तैयारी में हैं। शेष पूर्व मुख्यमंत्री
राजनीति का चेहरा ही स्पष्ट रहे हैं।
एक मनुष्य को कितनी जमीन
चाहिए? यहां गांधी जी का कहा एक कथन उल्लेखनीय है कि ‘प्रकृति के पास सभी की आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए तो संसाधन हैं, मगर किसी के लालच को पूरा करने के लिए नहीं हैं’ तब शायद उनके मन में भी देश के भविष्य की चिंता ही बलवती रही होगी।
भारत स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद अधिकांश वषों में गांधी जी के अनुयायियों
की सत्ता में रहा है। कभी-कभी उन लोगों ने भी इस देश की बागडोर संभाली है जो स्वयं
को गांधी और उनके विचारों एवं सिद्धांतों का वारिस होने का दावा करते रहे हैं।
लेकिन एक बार निष्पक्ष सोचकर इन लोगों के पास मौजूद धन, दौलत का आंकलन करें। साथ ही यह भी तय किया जाना चाहिए इन दावेदारों
ने गांधी जी के सिद्धांतों का कितना अनुसरण किया है?
सांसद और विधायक ही देश के
कानून निर्माता होते हैं। सांसद और विधायक होना देश में सबसे बड़ी जिम्मेदारी होती
है लेकिन अफ़सोस इन्होने अपने अहोदे और सत्ता का दुरूपयोग कर अपनी ‘तनख्वाह और भत्तों’ के को बढ़ाने के आलावा एक भी
जिम्मेदारी इतनी शिद्दत से नहीं निभाई। संविधान और नैतिक आधार पर सांसद और विधायक
जनसेवक होते हैं लेकिन निर्वाचित होने के तुरंत बाद इन्हें आलिशान सरकारी घर
चाहिए। इतना ही नहीं मोटे-मोटे वेतन और भत्तों के बावजूद इन्हें घर बनाने के लिए
उदार शर्तों पर ऋण भी चाहिए होता है। वेतन-भत्तों
के अतिरिक्त पेंशन, टेलीफोन, मोबाइल और भी न जाने क्या-क्या अनुलाभ चाहिए। जनता और नेता का संबंध
अब कुछ ऐसा हो गया है जिसमें नेता कहता है ‘मैंने तुम्हारी सेवा की
घोषणा की है,
इसलिए मुझे चुनकर तुमने उसे स्वीकार कर
लिया है, अब तुम्हें मेरी और मेरे परिवार की सेवा करनी है।’ क्या यह अद्भुत तथ्य नहीं कि कई नेता सत्ता में रहकर कंगाल से अरबपति
हो जाते हैं। उनके बच्चे बालिग होने के पहले ही करोड़पति हो जाते हैं। उनकी
कंपनियां जमकर लाभ कमाती हैं। यदि कोई कार्रवाई शुरू होती भी है तो उसे तुरंत बदले
की भावना से की जा रही कार्रवाई घोषित कर दिया जाता है।
शिक्षा हमेशा से देश में
ऐसी दी जाती है जिसमें सवाल करने पर पाबंदी होती है। तथाकथित विद्वान हमेशा
सत्ताधारी के द्वारा फैंके गए टुकड़ों के सहारे जीवित रहे। यही हाल आजादी के बाद
भारत की मीडिया का रहा है। लोकतंत्र के नाम पर हर एक साधन का सत्ता और सत्ताधारियों
के लिए काम में लिया गया। दिखाने के लिए ‘महाजनो
येन गत: सा पंथा:’ जैसे श्लोक लिख दिए। कुल
मिलाकर जो चमक-दमक, सत्ता की हनक, कार-काफिले, प्रशंसकों के हुजूम
जन-प्रतिनिधियों को उपलब्ध हैं उसे देखकर किस व्यक्ति के मन में हासिल करने की ललक
पैदा नहीं होगी?
क्या ये देश युवाओं को शीघ्रता
से अधिक धन प्राप्ति के जज्बे के हिलोरेंगे नहीं? चुनाव
होते रहेंगे,
परिणाम आते रहेंगे, जनता के पैसे पर आश्रित
भूतपूर्व नेताओं की संख्या बढ़ती जाएगी, लेकिन क्या वह दिन भी आएगा
जब जनता की सेवा के लिए त्याग करने वाले ही जन प्रतिनिधि बनेंगे? जब देशहित को सर्वोपरि रखा जाएगा? जब जनता झूठे और मक्कार
लोगों का तिरस्कार करेगी? क्या देश में
हिन्दू-मुस्लिम जैसी बकवास बंद होगी? क्या देश में शिक्षा
स्थापित हो सकेगी? हर कोई चाहता है कि वो वोट
उसे दे जो वास्तव में काबिल हो लेकिन मिलता कोई नहीं है। ईमानदारी सभी को चाहिए
लेकिन दूसरों में। अंतत: ऐसा ही होना होगा, अच्छे लोगों को आगे आना ही
होगा और सुधार शुरू करना ही होगा। आज हमे उन आदर्शों को आत्मसात करना ही होगा
जिनकी देश को जरूरत है, क्योंकि देश तभी बचेगा। अब
हमें समझाना होगा कि हाथ पर हाथ धरे रहने से कुछ नहीं होने वाला है। यह बदलाव लाना
ही होगा लेकिन किसी दुसरे से साड़ी अपेक्षाएं रखकर नहीं। दुसरे के घर से भगतसिंह
पैदा होने की उम्मीदों को त्यागकर कर खुद को ही तैयार करना होगा देश के लिए अर्पित
होना ही होगा। अंत में इतना ही कहकर अपनी कलम को आज के लिए विराम देना चाहूँगा कि –
हर बार तुम्हे बचाने नहीं आएगा बनकर बिस्मिल,
बदलाव नहीं कोई बादल जो बरसे बनकर आंधी।
इस बार उम्मीदे हैं बेकार रोशनी आई बनकर धूमिल
बदलाव तभी होगा जब खुद खोजेंगे भगतसिंह तो कभी गांधी।।
इंक़लाब जिंदाबाद।
*Contents are subject to copyright
Any Error? Report Us
No comments:
Post a Comment