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Tuesday 12 June 2018

कौन अल्लाह, कैसा ईश्वर, कहाँ है गॉड?

-डॉ. नीरज मील


पिता द्वारा बेटी की बलि की खबर पिछले रविवार को पढने को मिली। एक बारगी तो शीर्षक पढ़कर आँखों पर यकीं ही नहीं हुआ। यूँ लगा आँखों के आगे घनघोर अँधेरा आ गया हो और कानों में किसी ने शीशा उढेल दिया हो। कुछ देर बाद सर में एक अजीब सा दर्द उठने लगा। एक अजीब सी स्थिति में पहुँच गया जहां न कुछ सुनाई दे रहा था न जुबान से कुछ बोला जा रहा था और दिमाग ने तो जैसे काम करना ही बंद कर दिया हो। मानो सम्पूर्ण चेतना गायब हो गयी थी। ऐसा लग रहा था जैसे चिर निद्रा आ गयी हो या सब कुछ पीछे ही छूट गया हो। फिर धीरे-धीरे सामान्य हुआ तो ध्यान आया कि हाथ में कुछ है। इतने में एक जोरदार आवाज़ हुई और मैं चौंक कर कुछ कहता उससे पहले अखबार हाथ से गिर गया। और फिर शुरू हुआ अनवरत विचारों का सिलसिला। एक नदी की तरह न रुकने वाले प्रश्नों का प्रवाह। हर एक प्रश्न का एक ही जवाब आ रहा था “कौन ईश्वर, कैसा अल्लाह, कहाँ है गॉड?”
जोधपुर जिले की एक घटना जिसने पूरे रविवार के साथ आने वाले कई रविवारों को काला कर दिया। जोधपुर के पीपाड़ में गुरुवार आधी रात 4 साल की रिजवाना की हत्या का झकझोरने वाला खुलासा हुआ है। मासूम की हत्या किसी बलात्कारी ने नहीं की और न ही घरवालों की रंजिश के चलते किसी ने की। ये ह्त्या उसी के पिता नवाब अली कुरैशी (26) ने ही कर दी। गौरतलब है ये ह्त्या इसलिए की गयी क्योंकि नवाब अली कुरैशी रमजान माह में अल्लाह को खुश करने के लिए अपनी सबसे प्यारी चीज की कुर्बानी देना चाहता था। ऐसा करने के लिए सनकी पिता ने पहले तो ननिहाल से बेटी को बुलाया। फिर उसे शहर में घुमाते हुए मिठाई व उसकी पसंद की चीजें खिलाईं। गुरुवार आधी रात बाद वह छत पर मां के पास सोई मासूम रिजवाना को उठाकर नीचे ले गया। वहां उसे कलमा सुनाया और अपनी गोद में बिठाकर बकरा काटने के चाकू से धीरे-धीरे उसका गला रेत दिया।
अन्धविश्वास और आस्था ये दो ऐसे शब्द है जो हमेशा एक दूसरे के पूरक के रूप में काम में आते हैं जहां अंध विश्वास ख़त्म हो जाता है वह आस्था शुरू होती है। और जहां आस्था अपनी परकाष्ठा पर होती है वहां अनैतिकता और हैवानियत अपना गुल खिलाती है और तब सामने आती है नवाब अली कुरैशी जैसी पैशाचिक नृशंसता। अब यहां विश्व के महान क्रांतिकारी शहीद-ऐ-आज़म भगतसिंह का कथन चरितार्थ होता है कि “जो मनुष्य अपने को यथार्थवादी होने का दावा करता हैउसे समस्त प्राचीन रूढ़िगत विश्वासों को चुनौती देनी होगी। प्रचलित मतों को तर्क की कसौटी पर कसना होगा। यदि वे तर्क का प्रहार न सह सकेतो टुकड़े-टुकड़े होकर गिर पड़ेगा ये मनुष्य। तब नये दर्शन की स्थापना के लिये उनको पूरा धराशायी करके जगह साफ करना और पुराने विश्वासों की कुछ बातों का प्रयोग करके पुनर्निमाण करना होगा। मैं प्राचीन विश्वासों के ठोसपन पर प्रश्न करने के सम्बन्ध में आश्वस्त हूँ। मुझे पूरा विश्वास है कि एक चेतन परम आत्मा काजो प्रकृति की गति का दिग्दर्शन एवं संचालन करता है, का  कोई अस्तित्व नहीं है। हम प्रकृति में विश्वास करते हैं और समस्त प्रगतिशील आन्दोलन का ध्येय मनुष्य द्वारा अपनी सेवा के लिये प्रकृति पर विजय प्राप्त करना मानते हैं। इसको दिशा देने के पीछे कोई चेतन शक्ति नहीं है। यही हमारा दर्शन है।” हकीकत में यही परम सत्य है इसे अब हमें स्वीकारना ही होगा
 जो ईश्वरीय सत्ता में यकीं करते हैं या आस्तिक हैं और ईश्वर के अस्तिव को मानते हैं वो इन प्रश्नों का उत्तर जरुर दे और हाँ कृपया करके ये न कहें की हर एक विषयवस्तु को तर्क की कसौटी से नहीं समझा जा सकता। यदि आपका विश्वास है कि एक सर्वशक्तिमानसर्वव्यापक और सर्वज्ञानी ईश्वर हैजिसने विश्व की रचना कीतो कृपा करके यह बतायें कि उसने यह रचना क्यों की कष्टों और संतापों से पूर्ण दुनिया – असंख्य दुखों के शाश्वत अनन्त गठबन्धनों से ग्रसित! यहां एक भी व्यक्ति तो पूरी तरह संतृष्ट नही है। कृपया यह न कहें कि यही उसका नियम है। यदि वह किसी नियम से बँधा है तो वह सर्वशक्तिमान कैसा? वह भी हमारी ही तरह नियमों का दास है। कृपा करके यह भी न कहें कि यह उसका मनोरंजन है। नीरो ने बस एक रोम जलाया था। उसने बहुत थोड़ी संख्या में लोगों की हत्या की थी। उसने तो बहुत थोड़ा दुख पैदा कियाअपने पूर्ण मनोरंजन के लिये और उसका इतिहास में क्या स्थान है?  उसे इतिहासकार किस नाम से बुलाते हैं सभी विषैले विशेषण उस पर बरसाये जाते हैं। पन्ने उसकी निन्दा के वाक्यों से काले पुते हैंभर्त्सना करते हैं – नीरो एक हृदयहीननिर्दयीदुष्ट था। एक चंगेज खाँ ने अपने आनन्द के लिये कुछ हजार जानें ले लीं और आज हम उसके नाम से घृणा करते हैं। तब किस प्रकार तुम अपने ईश्वर को न्यायोचित ठहराते होउस शाश्वत नीरो कोजो हर दिनहर घण्टे ओर हर मिनट असंख्य दुख देता रहाऔर अभी भी दे रहा है। फिर तुम कैसे उसके दुष्कर्मों का पक्ष लेने की सोचते होजो चंगेज खाँ से प्रत्येक क्षण अधिक है?  क्या यह सब बाद में इन निर्दोष कष्ट सहने वालों को पुरस्कार और गलती करने वालों को दण्ड देने के लिये हो रहा हैठीक हैमान लेते हैं लेकिन तुम कब तक उस व्यक्ति को उचित ठहराते रहोगेजो हमारे शरीर पर घाव करने का साहस इसलिये करता है कि बाद में मुलायम और आरामदायक मलहम लगायेगा ग्लैडिएटर संस्था के व्यवस्थापक कहाँ तक उचित करते थे कि एक भूखे ख़ूंखार शेर के सामने मनुष्य को फेंक दो कियदि वह उससे जान बचा लेता हैतो उसकी खूब देखभाल की जायेगी?  इसलिये मैं पूछता हूँ कि उस चेतन परम आत्मा ने इस विश्व और उसमें मनुष्यों की रचना क्यों कीआनन्द लूटने के लियेतब उसमें और नीरो में क्या फर्क है?
आज एक बाप अपनी 4 साल की बेटी को चाकू से इसलिए मार देता ताकि अल्लाह खुश हो सके! क्या यही है धर्म? मुसलमानो और ईसाइयो! तुम तो पूर्वजन्म में विश्वास नहीं करते। तुम तो हिन्दुओं की तरह यह तर्क पेश नहीं कर सकते कि प्रत्यक्षतः निर्दोष व्यक्तियों के कष्ट उनके पूर्वजन्मों के कर्मों का फल है। मैं तुमसे पूछता हूँ कि उस सर्वशक्तिशाली ने शब्द द्वारा विश्व के उत्पत्ति के लिये छः दिन तक क्यों परिश्रम किया?  और प्रत्येक दिन वह क्यों कहता है कि सब ठीक हैबुलाओ उसे आज। उसे पिछला इतिहास दिखाओ। उसे आज की परिस्थितियों का अध्ययन करने दो। हम देखेंगे कि क्या वह कहने का साहस करता है कि सब ठीक है? संविदा की नौकरी से लेकर झोपड़ियों की बस्तियों तक भूख से तड़पते लाखों इन्सानों से लेकर उन शोषित मज़दूरों से लेकर जो पूँजीवादी पिशाच द्वारा खून चूसने की क्रिया को धैर्यपूर्वक निरुत्साह से देख रहे हैं तथा उस मानवशक्ति की बर्बादी देख रहे हैंजिसे देखकर कोई भी व्यक्तिजिसे तनिक भी सहज ज्ञान हैभय से सिहर उठेगाऔर अधिक उत्पादन को ज़रूरतमन्द लोगों में बाँटने के बजाय समुद्र में फेंक देना बेहतर समझे। उसको यह सब देखने दो और फिर कहे – सब कुछ ठीक है! क्यों और कहाँ सेयही मेरा प्रश्न है। तुम चुप हो।
ठीक हैतो मैं आगे चलता हूँ। हिन्दुओतुम कहते हो कि आज जो कष्ट भोग रहे हैंये पूर्वजन्म के पापी हैं और आज के उत्पीड़क पिछले जन्मों में साधु पुरुष थेअतः वे सत्ता का आनन्द लूट रहे हैं। मुझे यह मानना पड़ता है कि आपके पूर्वज बहुत चालाक व्यक्ति थे। उन्होंने ऐसे सिद्धान्त गढ़ेजिनमें तर्क और अविश्वास के सभी प्रयासों को विफल करने की काफ़ी ताकत है। न्यायशास्त्र के अनुसार दण्ड को अपराधी पर पड़ने वाले असर के आधार पर केवल तीन कारणों से उचित ठहराया जा सकता है। वे हैं – प्रतिकारभय तथा सुधार। आज सभी प्रगतिशील विचारकों द्वारा प्रतिकार के सिद्धान्त की निन्दा की जाती है। भयभीत करने के सिद्धान्त का भी अन्त वहीं है। सुधार करने का सिद्धान्त ही केवल आवश्यक है और मानवता की प्रगति के लिये अनिवार्य है। इसका ध्येय अपराधी को योग्य और शान्तिप्रिय नागरिक के रूप में समाज को लौटाना है। किन्तु यदि हम मनुष्यों को अपराधी मान भी लेंतो ईश्वर द्वारा उन्हें दिये गये दण्ड की क्या प्रकृति हैतुम कहते हो वह उन्हें गायबिल्लीपेड़जड़ी-बूटी या जानवर बनाकर पैदा करता है। तुम ऐसे 84 लाख दण्डों को गिनाते हो। मैं पूछता हूँ कि मनुष्य पर इनका सुधारक के रूप में क्या असर हैतुम ऐसे कितने व्यक्तियों से मिले होजो यह कहते हैं कि वे किसी पाप के कारण पूर्वजन्म में गधा के रूप में पैदा हुए थेएक भी नहींअपने पुराणों से उदाहरण न दो। मेरे पास तुम्हारी पौराणिक कथाओं के लिए कोई स्थान नहीं है।
 क्या तुम्हें पता है कि दुनिया में सबसे बड़ा क्या है? दुनिया का सबसे बड़ा पाप गरीब होना है। गरीबी एक अभिशाप है। यह एक दण्ड है। मैं पूछता हूँ कि उस दण्ड प्रक्रिया की कहाँ तक प्रशंसा करेंजो अनिवार्यतः मनुष्य को और अधिक अपराध करने को बाध्य करेक्या तुम्हारे ईश्वर ने यह नहीं सोचा था या उसको भी ये सारी बातें मानवता द्वारा अकथनीय कष्टों के झेलने की कीमत पर अनुभव से सीखनी थींतुम क्या सोचते होकिसी गरीब या अनपढ़ परिवारजैसे एक चमार या मेहतर या भंगी के यहाँ पैदा होने पर इन्सान का क्या भाग्य होगा? भले ही वो आरक्षण की वजह से पढ़ ले और नौकरी भी लग जाएं लेकिन चूँकि वह अपने साथियों से तिरस्कृत एवं परित्यक्त रहता हैजो ऊँची जाति में पैदा होने के कारण अपने को ऊँचा समझते हैं। उससे किया गया व्यवहार उसके हृदय को समाज के प्रति निष्ठुर बना देते हैं। यदि वह कोई पाप करता है तो उसका फल कौन भोगेगा?  ईश्वर, वह स्वयं या समाज के मनीषी यदि वे कोई अपराध करते हैंतो उसके लिये कौन ज़िम्मेदार होगाऔर उनका प्रहार कौन सहेगाक्यों हम उसके साथ रोटी-बेटी का रिश्ता तय नहीं करते? अगर आपका धर्म या ईश्वर ऐसी अनुमति नहीं देता है तो फूंक दालों ऐसे ईश्वर, अल्लाह और उस धर्म को। मेरे प्रिय दोस्तों! ये सिद्धान्त विशेषाधिकार युक्त लोगों के आविष्कार हैं। ये अपनी हथियाई हुई शक्तिपूँजी तथा उच्चता को इन सिद्धान्तों के आधार पर सही ठहराते हैं। अपटान सिंक्लेयर ने लिखा था कि मनुष्य को बस अमरत्व में विश्वास दिला दो और उसके बाद उसकी सारी सम्पत्ति लूट लो। वह बगैर बड़बड़ाये इस कार्य में तुम्हारी सहायता करेगा। धर्म के उपदेशकों तथा सत्ता के स्वामियों के गठबन्धन से ही जेलफाँसीकोड़े और ये सिद्धान्त उपजते हैं।
महान क्रांतिकारी शहीद-ऐ-आज़म भगतसिंह ने भी बहुत सारे ऐसे ही प्रश्न किए थे जिनका ज़िक्र भी यहां प्रासंगिक है, “मैं पूछता हूँ तुम्हारा सर्वशक्तिशाली ईश्वर,खुदा या गॉड हर व्यक्ति को क्यों नहीं उस समय रोक दे जब वह कोई पाप या अपराध कर रहा होता है?  यह तो वह बहुत आसानी से कर सकता है। उसने क्यों नहीं लड़ाकू राजाओं की लड़ने की उग्रता को समाप्त किया और इस प्रकार विश्वयुद्ध द्वारा मानवता पर पड़ने वाली विपत्तियों से उसे बचाया उसने अंग्रेजों के मस्तिष्क में भारत को मुक्त कर देने की भावना क्यों नहीं पैदा कीवह क्यों नहीं पूँजीपतियों के हृदय में यह परोपकारी उत्साह भर देता कि वे उत्पादन के साधनों पर अपना व्यक्तिगत सम्पत्ति का अधिकार त्याग दें और इस प्रकार केवल सम्पूर्ण श्रमिक समुदायवरन समस्त मानव समाज को पूँजीवादी बेड़ियों से मुक्त करेंआप समाजवाद की व्यावहारिकता पर तर्क करना चाहते हैं। मैं इसे आपके सर्वशक्तिमान पर छोड़ देता हूँ कि वह लागू करे। जहाँ तक सामान्य भलाई की बात हैलोग समाजवाद के गुणों को मानते हैं। वे इसके व्यावहारिक न होने का बहाना लेकर इसका विरोध करते हैं। परमात्मा को आने दो और वह चीज को सही तरीके से कर दे। अंग्रेजों की हुकूमत यहाँ इसलिये नहीं है कि ईश्वर चाहता है बल्कि इसलिये कि उनके पास ताकत है और हममें उनका विरोध करने की हिम्मत नहीं। वे हमको अपने प्रभुत्व में ईश्वर की मदद से नहीं रखे हैंबल्कि बन्दूकोंराइफलोंबम और गोलियोंपुलिस और सेना के सहारे। यह हमारी उदासीनता है कि वे समाज के विरुद्ध सबसे निन्दनीय अपराध – एक राष्ट्र का दूसरे राष्ट्र द्वारा अत्याचार पूर्ण शोषण – सफलतापूर्वक कर रहे हैं।”
 कहाँ है ईश्वरक्या वह मनुष्य जाति के इन कष्टों का मज़ा ले रहा हैएक नीरोएक चंगेजउसका नाश हो! क्या तुम मुझसे पूछते हो कि मैं इस विश्व की उत्पत्ति तथा मानव की उत्पत्ति की व्याख्या कैसे करता हूँठीक हैमैं तुम्हें बताता हूँ। चाल्र्स डारविन ने इस विषय पर कुछ प्रकाश डालने की कोशिश की है। उसे पढ़ो। यह एक प्रकृति की घटना है। विभिन्न पदार्थों केनीहारिका के आकार मेंआकस्मिक मिश्रण से पृथ्वी बनी। कबइतिहास देखो। इसी प्रकार की घटना से जन्तु पैदा हुए और एक लम्बे दौर में मानव। डार्विन की ‘जीव की उत्पत्ति’ पढ़ो। और तदुपरान्त सारा विकास मनुष्य द्वारा प्रकृति के लगातार विरोध और उस पर विजय प्राप्त करने की चेष्टा से हुआ। यह इस घटना की सम्भवतः सबसे सूक्ष्म व्याख्या है।
तुम्हारा दूसरा तर्क यह हो सकता है कि क्यों एक बच्चा अन्धा या लंगड़ा पैदा होता हैक्या यह उसके पूर्वजन्म में किये गये कार्यों का फल नहीं हैजीवविज्ञान वेत्ताओं ने इस समस्या का वैज्ञानिक समाधान निकाल लिया है। अब अवश्य ही तुम एक और बचकाना प्रश्न पूछ सकते हो। यदि ईश्वर नहीं हैतो लोग उसमें विश्वास क्यों करने लगेमेरा उत्तर सूक्ष्म तथा स्पष्ट है। जिस प्रकार वे प्रेतों तथा दुष्ट आत्माओं में विश्वास करने लगे। अन्तर केवल इतना है कि ईश्वर में विश्वास विश्वव्यापी है और दर्शन अत्यन्त विकसित। इसकी उत्पत्ति का श्रेय उन शोषकों की प्रतिभा को हैजो परमात्मा के अस्तित्व का उपदेश देकर लोगों को अपने प्रभुत्व में रखना चाहते थे तथा उनसे अपनी विशिष्ट स्थिति का अधिकार एवं अनुमोदन चाहते थे। सभी धर्मसमप्रदायपन्थ और ऐसी अन्य संस्थाएँ अन्त में निर्दयी और शोषक संस्थाओंव्यक्तियों तथा वर्गों की समर्थक हो जाती हैं। राजा के विरुद्ध हर विद्रोह हर धर्म में सदैव ही पाप रहा है।

मनुष्य की सीमाओं को पहचानने परउसकी दुर्बलता व दोष को समझने के बाद परीक्षा की घड़ियों में मनुष्य को बहादुरी से सामना करने के लिये उत्साहित करनेसभी ख़तरों को पुरुषत्व के साथ झेलने तथा सम्पन्नता एवं ऐश्वर्य में उसके विस्फोट को बाँधने के लिये ईश्वर के काल्पनिक अस्तित्व की रचना हुई। अपने व्यक्तिगत नियमों तथा अभिभावकीय उदारता से पूर्ण ईश्वर की बढ़ा-चढ़ा कर कल्पना एवं चित्रण किया गया। जब उसकी उग्रता तथा व्यक्तिगत नियमों की चर्चा होती हैतो उसका उपयोग एक भय दिखाने वाले के रूप में किया जाता है। ताकि कोई मनुष्य समाज के लिये ख़तरा न बन जाये। जब उसके अभिभावक गुणों की व्याख्या होती है, तो उसका उपयोग एक पितामाताभाईबहनदोस्त तथा सहायक की तरह किया जाता है। जब मनुष्य अपने सभी दोस्तों द्वारा विश्वासघात तथा त्याग देने से अत्यन्त क्लेष में होतब उसे इस विचार से सान्त्वना मिल सकती हे कि एक सदा सच्चा दोस्त उसकी सहायता करने को हैउसको सहारा देगा तथा वह सर्वशक्तिमान है और कुछ भी कर सकता है। वास्तव में आदिम काल में यह समाज के लिये उपयोगी था। पीड़ा में पड़े मनुष्य के लिये ईश्वर की कल्पना उपयोगी होती है। समाज को इस विश्वास के विरुद्ध लड़ना होगा। मनुष्य जब अपने पैरों पर खड़ा होने का प्रयास करता है तथा यथार्थवादी बन जाता हैतब उसे श्रद्धा को एक ओर फेंक देना चाहिए और उन सभी कष्टोंपरेशानियों का पुरुषत्व के साथ सामना करना चाहिएजिनमें परिस्थितियाँ उसे पटक सकती हैं। यही आज मेरी स्थिति है..... इंक़लाब जिंदाबाद।

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