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Sunday 24 June 2018

प्लास्टिक के खतरों का सामाजिक लेखांकन


                     डॉ. नीरज मील



पर्यावरण प्रदूषण आज एक वैश्विक समस्या बन चुका है। भारत में भी पर्यावरण अनेक खतरों से जूझ रहा है जिसमें प्लास्टिक भी एक मुख्य और बड़ा कारण है। वर्तमान में प्लास्टिक को लेकर एक बड़ी बहस बौद्धिक पटल पर उभर रही है। वास्तव में प्लास्टिक ने भारत के प्रत्येक गाँव, शहर हर जगह कबाड़ा कर दिया है। प्लास्टिक के इस्तेमाल करने की जागरूकता किसी काम की नहीं है इसलिए इससे खतरा और भी ज्यादा भयावह हो चुका है। सरकार और अन्य सभी संगठनों की सलाह को धत्ता बताकर लोग प्लास्टिक का बेजां इस्तेमाल कर रहे हैं। वैसे तो पर्यावरण की समस्या वैश्विक है लेकिन सुधार हेतु शुरुआत घर से ही करनी होती है। इसलिए जाहिर तौर पर इसका विश्लेषण भी यहीं से होना चाहिए।
            हाल ही में वेलोसिटी एमआर नाम की एक कम्पनी द्वारा किये गए सर्वे में भी जो आंकड़े सामने आये हैं उससे लोगों की हठधर्मिता सामने आई है। रिपोर्ट के अनुसार 90 फीसदी लोगों को प्लास्टिक के प्रयोग से होने वाले नुकसान और इसके बैन होने की जानकारी होने के बावजूद भी इसका इस्तेमाल करने से रुक नहीं रहे हैं। चाय जैसे गर्म पेय पदार्थ हो या शीतल पेय पदार्थ या फिर खाद्य पदार्थ सभी में प्लास्टिक का इस्तेमाल धडल्ले से हो रहा है। ऐसा कोई व्यक्ति नहीं हो सकता जो प्लास्टिक का इस्तेमाल नहीं करता हो। इतना नहीं प्लास्टिक झूठी प्रतिष्ठा का प्रतीक भी बनता जा रहा है। एक रिपोर्ट के मुताबिक़ सिर्फ 10 साल में समुन्द्र में प्लास्टिक प्रदूषण 3 गुना बढ़ जाएगा। वास्तव में इस तरह समुद्र में प्लास्टिक प्रदूषण होना न केवल चिंताजनक है बल्कि पारिस्थितिक तंत्र के लिए खतरनाक भी है। आज प्लास्टिक प्रदूषण से हमारा समुद्र न केवल गर्म हो रहा बल्कि इससे इसके स्तर में भी वृद्धि हो रही है।
देश के प्रधानमंत्री के अनुसार भारत 2022 तक एकल प्रयुक्त होने वाली प्लास्टिक्स को पूर्णत: खत्म  दावा किया जा रहा है । विज्ञान के प्रयोगों के अनुसार प्लास्टिक को गलने में 500 से 1000 साल लग जाते हैं। भारत हर साल 56 लाख टन प्लास्टिक कचरा पैदा करता है। स्पष्ट है कि दुनिया के समुद्र और पर्यावरण में हो रहे प्लास्टिक्स प्रदूषण में भारत की बड़ी भूमिका है। अनुसन्धान बताते हैं  कि प्लास्टिक्स परमाणु बम से भी खतरनाक हो गया है। इसलिए जरूरत है हमे इसके इस्तेमाल पर रोक लगानी ही होगी। कुछ बड़ी कंपनियों द्वारा   बड़ी पहल करते हुए इस पर रोक भी लगा दी और कुछ राज्यों ने भी इसका अनुसरण किया है। हिमांचल प्रदेश देश में इसका उम्दा उदाहरण है और अन्य राज्यों के लिए अनुकरणीय भी है। ये सब प्रयास ऊंट के मुँह में जीरा ही साबित हो रहे हैं और फिलहाल प्रधानमंत्री जी बात हवाई फायर ही साबित हो रही है। ऐसी स्थिति में देश को प्लास्टिक मुक्ति रास्ता नहीं दिखाई दे रहा है। कहने को सरकाऱ सख्त हो गयी हैं और नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल जैसी संस्थाओ ने खाने के लिए प्रयुक्त होने वाले एकल प्रयोग वस्तुओं के निर्माण पर रोक भी सख्ती से लगा दी है लेकिन इस सख्ती का असर कहीं दिख नहीं रहा है। आप हवाई जहाज से लेकर शादी-विवाह में एकल प्रयुक्त प्लास्टिक्स सामग्री का बेजां इस्तेमाल से आसानी से रूब रूहुआ जा हैं। स्पष्ट है कि सामग्री बन भी रही है और उसका आप और हम प्रयोग भी कर रहे है। स्पष्ट है कि भारत में 2000 आसपास से प्लास्टिक को बैन करने की कवायद में लगा हुआ है लेकिन अभी भी इससे मुक्ति भारत के लिए दूर की कौड़ी साबित हो रही है।
गाँव-गाँव और शहर-शहर के लिए प्लास्टिक अभिशाप बन रही है। न तो इसका निबटान सम्भव हो और न ही प्रयोग रुक रहा है। सबसे बड़ी चुनौती यही है कि आखिर कचरे का निबटान कैसे हो? सवाल जरूर है लेकिन न किसी के पास जवाब है न प्रतिबद्धता। ऐसे में हम स्वस्थ पर्यावरण और स्वस्थ नागरिक की परिकल्पना कैसे कर ले? वास्तव देखा जाए तो हम सरकार और जनता दोनों को ही इसके लिए बराबर जिम्मेदार ठहरा सकते है लेकिन इस जवाबदेही के निर्धारण से न तो प्लास्टिक प्रदूषण रुक सकता है और न ही प्लास्टिक का प्रयोग।
      पर्यावरण विज्ञानियों ने प्लास्टिक के बीस माइक्रोन या इससे पतले उत्पाद को पर्यावरण के बहुत घातक बताया है। ये थैलियाँ मिटटी में दबने से फसलों के लिए उपयोगी कीटाणुओं को मार देती है। इन थैलियों के प्लास्टिक में पाँली विनाइल क्लोराइड होता है, जो भूमि में दबे रहने से भूजल को जहरीला बना देता है। बारिश में प्लास्टिक के कचरे से दुर्गन्ध आती है। नदी नाले अवरुद्ध होने से बाढ़ की स्थति पैदा हो जाती है। हवा में प्रदुषण फैलने से अनेक असाध्य रोग हो जाते है। कैंसर का खतरा बढ़ जाता है प्लास्टिक कचरा खाने से गाय आदि पशुओं की जाने चली जाती है। इस तरह प्लास्टिक थैलियों से पर्यावरण को हानि पहुचती है। जरुरत है कि सरकार को प्लास्टिक उत्पादन दिखानी ही होगी और जनता को इसके  बचना होगा। प्लास्टिक को ना कहने की आदत डालनी ही होगी। प्लास्टिक को ना कहने की पद्दति का अनुसरण करना होगा, ताकि इस बड़ी समस्या से हमारे पर्यावरण को बचाया जा सके।
       प्लास्टिक थैलियों के उत्पादनकर्ताओं को कुछ लाभ हो रहा है तथा उपभोक्ताओं को भी सामान ले जाने में सुविधा हो रही है। परन्तु यह क्षणिक लाभ पर्यावरण को दीर्घकालीन हानि पंहुचा रहा है। कुछ लोग बीस माइक्रोंन से पतले प्लास्टिक पर प्रतिबंध लगाने की वकालत कर या उससे अधिक मोटे प्लास्टिक को रिसाइकिल करने का समर्थन करते है। परंतु वह रिसाईकल प्लास्टिक भी एलर्जी, त्वचा रोग एवं पैकिग किये गये खाद्य पदार्थो को दूषित करता है।
      अतएव हर तरह की प्लास्टिक थैलियों पर प्रतिबंध लगना चाहिए। राजस्थान सरकार ने देश में सबसे पहले यह कदम उठाया है। जिसमे पूरी तरह से प्लास्टिक पर रोक लगाने की मुहीम शुरू की। जो कि पर्यावरण की सुरक्षा के लिहाज से उचित तथा स्वागत योग्य कदम था लेकिन उसे भी अमल में नहीं लाया जा सका। यद्यपि प्लास्टिक से बने सामान सुविधाजनक होते हैं, यह वह समय है जब हमें पृथ्वी पर प्लास्टिक की वजह से होने वाले नुकसान की जानकारी होनी चाहिए। इससे पहले कि हमारी पृथ्वी की तस्वीर और भी बदसूरत हो जाये, बेहतर होगा कि आप इस प्रकार के प्रदूषण को कम करने के लिए कुछ प्रभावी निवारक उपाय अपनाये। इसके उपयोग में गिरावट लाने के लिए, हमें शॉपिंग के लिए जितना संभव हो पेपर या कपड़े से बने बैग्स का उपयोग करना चाहिए, और घर पर प्लास्टिक बैग लाने से बचना चाहिए।
प्लास्टिक प्रदूषण की समस्या की गंभीरता को समझना चाहिए, और पानी में और भूमि पर फेंके गये डंपिंग प्लास्टिक के परिणाम के बारे में समझना चाहिये। प्लास्टिक के उचित निपटान सुनिश्चित करना। जो प्लास्टिक का निपटान किया जाता है, वह पुर्ननवीनीकरण किया जा सकता है और उनका इस्तेमाल कई अलग-अलग तरीकों में जैसे बैग, पर्स, या पाउच को बनाने में किया जा सकता है। बायोडिग्रेडेबल प्लास्टिक बैग उपलब्ध हैं, जो काफी हद तक मददगार साबित हुए हैं।
      ये परिवर्तन धीरे-धीरे हमारी समस्या को कम कर सकते है और प्लास्टिक के प्रति हमारे आकर्षण को भी कम कर सकते हैं; इसलिए हमें छोटे-छोटे कदम उठाकर प्लास्टिक प्रदूषण को कम करने में योगदान देना चाहिए। यह वह समय है जब हम कुछ निवारक कदम उठाकर अपने भविष्य की पीढ़ियों के लिए बेहतर जीवन सुनिश्चित कर सकते है।



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