डॉ.
नीरज मील
देश में ठगी
का माहौल है।
हर कोई ठगा
जा रहा है।
मजे की बात
ये है कि
इस ठगी से
ठगा गया व्यक्ति
ही आहत नहीं
हैं। इस देश
में सबसे ज्यादा
ठगी से प्रभावित
होने वालों में
है इस देश
का युवा। चुनावों
से पहले प्रत्येक
राजनीतिक दल सरकारी
नौकरियों का एक
ऐसा ख्वाबी जाल
तैयार करता है
जिसमें ज्यादा से ज्यादा
युवा फंस सके।
जिसका जाल जितना
ज्यादा मजबूत और आकर्षक होगा उस दल
को उतना ही
लाभ मिलेगा। चुनावों
के बाद इन्हीं
युवाओं को कभी
लाठियों के पीटा
जाता है, कभी
फुटपाथ पर सोने
के लिए मजबूर
किया जाता है,
कभी इंसान से
सामान बना दिया
जाता है, तो
कभी हिन्दु-मुस्लिम
की आग में
झोंककर दंगाई बनने की
ट्रेनिंग दी जाती
है तो कभी
गुणवत्ता के नाम
पर फेल कर
दिया जाता और
कभी डिग्रियों के
कागज हाथों में
थमाकर माखौल बना
दिया जाता है
लेकिन नौकरियां नहीं
दी जाती। देश
के युवाओं को
पंगु बनाने और
बर्बाद करने में
दो साधन अहम
भूमिका निभा रहें
हैं इनमें के
एक है सरकार
और दूसरी है
विश्वविद्यालय।
ये
हो क्या रहा
है देश में?
देश के युवाओं
के साथ खिलवाड़
क्यों जारी है?
आखिर क्या वजह
है जो देश
के युवाओं को
बर्बाद करने पर
आमदा है सिस्टम?
क्यों देश में
बिना किसी संस्थागत
एवं बुनियादी ढ़ांचे
के विश्वविद्यालय एवं
महाविद्यालय खोल दिये
जा रहें हैं?
क्यों मौजूदा विश्वविद्यालयों
एवं महाविद्यालयों में
पर्याप्त शिक्शक एवं अन्य
स्टॉफ नहीं है?
स्थिति ये है
कि सैंकड़ों कॉलेजों
में तो प्रिंसिपल
ही नहीं हैं।
शिक्शक होते हैं
तो पढ़ाते नहीं
है, कई राज्य
तो ऐसे हैं
जहां तीन-तीन
साल से विश्वविद्यालयों
एवं महाविद्यालयों की
परीक्षाओं में भी
टोटे हैं। कई
ऐसे प्रदेश भी
हैं जहां परीक्षाएं
हो भी जाती
है तो 80 फीसदी
से ज्यादा परीक्षार्थी
फेल हो जाते
हैं। आप खुद
तय किजिए कि
किसी राज्य के
विश्वविद्यालय में अगर
80 फीसदी छात्र फेल हो
जाएं तो उस
राज्य की शिक्षा
के मायने क्या
होंगें? वास्तव में ये
कई सवाल खड़े
करने वाली स्थिति
है। यह बहुत
बड़ी घटना है
जो कई सवाल
खड़े करती है
लेकिन अफ़सोस ये
शिक्षा जगत में
और बुद्धिजीवियों के
बीच कोई चर्चा
का विशय ही
नहीं बनती है।
क्या ये सब
अकर्मण्यता की परकाष्ठा
नहीं है? स्पष्ट
है कि भारत
में विश्वविद्यालय, महाविद्यालय
देश के युवाओं
को बर्बाद करने
की फैक्टरियां साबित
हो रहीं हैं।
देश के विश्वविद्यालयों
एवं महाविद्यालयों में
बीकॉम, बीए, बीएससी
के बकवास पाठयक्रम
संचालित होते हैं।
इन पाठयक्रमों का
न तो आम
मनुष्य के जीवन
में कोई योगदान
होता है, न
रोजगार दिलाने में सहायक
होते हैं और
न ही देश
के विकास में
सहयोग हेतु कारगर सिद्ध हो
पाते हैं। इन
डिग्रियों के लेने
के बाद भी
80 फीसदी से ज्यादा
युवा नौकरी तो
क्या नौकरी के
लिए प्रार्थना-पत्र
तक लिखने में सक्षम नज़र नहीं
आ पाते।
देश
के विश्वविद्यालयों एवं
महाविद्यालयों की स्थिति
बड़ी बदत्तर हो
चुकि है। जहां
दिल्ली विश्वविद्यलय जैसे प्रतिष्ठित
संस्था में शिक्षकों
के करीब 50प्रतिशत
से अधिक खाली
पड़े हो, राजस्थान,
मध्यप्रदेश, बिहार,हिमांचल आदि
प्रदेषों में भी
यह प्रतिशत 40फीसदी
के आसपास ही
है। ऐसे में
सरकारी महाविद्यालयों और विश्वविद्यालयों
में शिक्षण समुचित
व्यवस्था कोरी बकवास
ही नजर आती
है। ऐसे में
जब सरकारी विश्वविद्यालयों
एवं महाविद्यालयों में
ये हालात हैं
तो निजी संस्थाओं
में तो शिक्षकों
की स्थिति का
जिक्र करना भी
महाभारत से कम
नहीं है। भारत
दुनियां का एकमात्र
ऐसा देश है
जहां विश्वविद्यालयों एवं
महाविद्यालयों में शिक्षण
कार्य हेतु शिक्षकों
की उपस्थिति ऐच्छिक
मानी जाती है
अनिवार्य नहीं। देश के
विश्वविद्यालयों एवं महाविद्यालयों
में शिक्षण कार्य
हेतु शिक्षकों की
योग्यता जहां पीएचडी
अथवा राष्ट्रीय पात्रता
परीक्षा उत्तीण है वहीं
निजी विश्वविद्यालयों एवं
महाविद्यालयों में शिक्षण
कार्य हेतु शिक्षकों
की योग्यता 10 हजार
मासिक में ड्यूटी
करने की मायने
रखती है। विश्लेषण
यही कहता है
कि नियम हैं
लेकिन अनुपालना नहीं
है, योग्यताधारी शिक्षाविद्
हैं लेकिन वे
आर्थिक शोशण के
लिए सहमत नहीं
हैं। शिक्षण और
शिक्षाविदों की दुर्दषा
का अन्दाजा इस
बात से भी
लगया जा सकता
है कि पीएचडी
अथवा राष्ट्रीय पात्रता
परीक्षा में उत्तीर्ण
व्यक्ति भी इस
देश में बेरोजगार
है। सरकार में
एक चपरासी के
पद के लिए
पीएचडी किया हुआ
व्यक्ति आवेदन करे तो
ये विडम्बना नहीं
लाचारी ही कहलाई
जायेगी। क्योंकि निजी संस्थाओं
में प्रोफेसर के
पद पर मात्र
10 हजार में नौकरी
करने से कहीं
बेहतर है सम्मानजनक
तरीके से चपरासी
की नौकरी करना।
वर्तमान
वस्तुस्थिति में स्थिति
बड़ी ही भयावह
हो चुकी है।
बेरोजगारी की समस्या
देश के अस्तित्व
के लिए चुनौती
बन चुकी है।
सरकारें हिन्दू-मुस्लिम के
मुद्दों में युवाओं
को धकेले जा
रही हैं और
युवा भी इस
कार्य में स्वयं
को सहर्ष इस
कार्य में जाने
दे रहें हैं।
ख़ैर, जहां सरकार
को इन युवाओं
के बजट में
अलग से प्रावधान
करके नौकरियों का
प्रबन्ध करना चाहिए।
रोजगार के नए
अवसर पैदा करने
चाहिए और इस
शिक्षा पद्धति को बदले
की सोचनी चाहिए
जो केवल नौकर
पैदा कर रही
है या केवल
गुलाम पैदा कर
रही है लेकिन
अफसोस सरकार ऐसा
कुछ नही करती
और कई सालों
से खाली पड़
पदों की सूचना
के अधार पर
जब युवा सपने
बनने लगे उन्हें
सम्बल प्रदान करने
की जगह 16 जनवरी
2016 को 5 साल से
खाली पड़े इन
पदों को एतद्
खत्म करने का
फरमान जरूर जारी
कर देती है।
इसी तरह महाराष्ट्र
सरकार ने भी
इसी तर्ज पर
2 दिसम्बर 2017 को राज्य
सरकारी की नौकरियों
में 30 फीसदी कटौती का
ऐलान कर किया। ऐसे
में उस युवा
पर क्या गुजरेगी
जो पिछले 2-3 साल
से इसी पद
के लिए कॉचिंग
आदि की तैयारी
कर रहा है।
युवाओं को बर्बाद
करने में सिस्टम
के सभी घटक
बराबर प्रयासरत हैं।
देश के नौजवानों
से सम्बन्धित नौकरियों
की इस तरह
की खबरों को
अखबारों द्वारा कितना तवज्जों
दिया जा रहा
है। यहां यह
भी गौर करने
लायक है कि
जिस अखबार को
युवा सूचना का
एक ईमानदार साधन
मानता है वो
नौकरी जाने की
इस तरह की
खबरों में कितनी
अहमियत देता है?
यह तय है
कि ऐसे में
नेता इनकार करेंगे
पत्रकार मुह मोड़
लेगें लेकिन इन
सबसे यह पता
जरूर चल जाता
है कि युवा
बेरोजगार सरकारों की प्राथमिकता
में है ही
नहीं। ऐसे में
सवाल उठना लाज़मी
है कि आखिर
कब तक युवाओं
छला जायेगा?
आज
के हालातों पर
नज़र डाले तो
देश के अन्दर
नौकरियों के लिए
भर्ती प्रक्रिया काफी
हद तक बकवास
ही साबित होने
लग गई है।
पहले भर्ती प्रक्रिया
के केवल 5 चरण(यथा- विज्ञापन,आवेदन,छटनी, परीक्षा/साक्षात्कार और नियुक्ति)
ही हुआ करते
थे। लेकिन कालान्तर
में इन चरणों
में सरकार,मंत्रालयों
एवं चयन संस्थाओं
की कमियां और
गलतियों की वजहों
के 10 चरणों में
भी पूरी हो
जाने की कोई
सम्भावना नज़र नहीं
आती है। अगर
समय पर पर्याप्त
नौकरियां नहीं निकलती
है, प्रक्रिया समय
पर पूरी नहीं
होती है तो
ये सरकार, उसके
संबन्धित मंत्रालय एवं और
चयन संस्थाओं की
गलती है जिसका
खामियाजा देश का
नौजवान क्या ढ़ोए?
आखिर देश के
नौजवानों के सपनों
के साथ ये
बेहूदा खिलवाड़ क्यों किया
जा रहा है?
खाली पदों की
समाप्ति, नए पदों
का सृजन नही
होता है ऐसे
में बेरोजगार युवाओं
के साथ संविदा
पर अल्पवेतन अथवा
मानदेय पर कार्यरत
कार्मिकों पर बहुत
बुरा असर होगा।
भर्ती विज्ञापन न
निकलना, चयन प्रक्रिया
में देरी जैसे
कारणों से देश
के नौजवानों की
जिन्दगी बर्बाद हो जाती
है और सपने
चकनाचूर। इतना सब
हो जाने के
बावजूद भी न
कहीं कोई विरोध
है न कहीं
कोई प्रदर्शन। वास्तव
में देखा जाएं
तो नौजवानों की
राजनीतिक चेतना तो मर
चुकी है। ऐसे
में उनसे वाकई
राजनीतिक स्तर पर
लड़ाई की उम्मीद
नहीं की जा
सकती। स्पष्ट है
कि बढ़ती बेरोजगारी
का हल कब
निकलेगा इस प्रष्न
का उत्तर मिल
पाना वर्तमान परीपेक्श
में तो असम्भव
ही नज़र आता
है।
भारत
के मानव संसाधन
मंत्रालय का आदेश
भी है कि
भर्ती विज्ञापन के
6 माह के भीतर
नियुक्ति दिया जाना
सुनिष्चित किया जाएं
लेकिन इसके बावजूद
खस्ता हाल हैं।
ये हालात सरकार
की अकर्मण्यता का
जीता-जागता उदाहरण
है। स्पष्ट है
सरकारें अपने मूलभूत
सिद्धान्तों के बाहर
नहीं निकलेंगी। इसलिए
नौजवान बेरोजगार एक दूसरे
के साथ खड़े
हो और नौकरी
लगने के बाद
भी अपने बेरोजगारी
के क्शणों से
रूबरू होते रहे
तो देश और
देश के नौजवानो
के लिए बेहतरीन
व्यवहार रहेगा। नौजवानों के
वक्त की भी
कीमत होती है
लेकिन सरकार ये
कीमत तब ही
पहचानेगी जब युवा
खुद इस कीमत
का एहसास सरकार
और तमाम जमाने
को करायेगा। अब
सरकार को भी
चाहिए कि वो
नौजवानों के बारें
में सोचे और
इनको नौकरी देने
के लिए युद्ध
स्तर पर कार्य
करे। देश के
विश्वविद्यालयों एवं महाविद्यालयों
में शिक्षण कार्य
हेतु शिक्षकों की
कमी को पूरा
करें और ठेके
पर लगे कार्मिकों
को भी राहत
पहुचाएं। देश के
विश्वविद्यालयों एवं महाविद्यालयों
को भी चाहिए
कि छात्रहित में
सोचे और समय
पर परीक्षाएं कराते
हुए देश और
परिस्थितियों के हिसाब
से काम आने
वाली शिक्षा के
विकास पर बल
दे। कार्यरत प्रोफेसरों
को भी चाहिए
कि वे अपनी
अकर्मण्यता को त्यागकर
सामाजिक और जीवन
से सरोकार वाली
शिक्षा के विकास
के लिए सोचे
और विकास करने
अपना अमूल्य योगदान
दे। अगर समय
रहते युवाओं की
समय की बर्बादी
को नहीं रोका
गया तो इसके
अल्पकालीन और दीर्घकालीन
प्रभावों के देश
को बचा पाना
शायद ही सम्भव
हो...........इंक़लाब
ज़िन्दाबाद।
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