Watch

Wednesday 6 June 2018

सुलगता तेल में झुलसती जनता

डॉ. नीरज मील

सोशल मिडिया हो या प्रिंट मीडिया हर जगह प्रट्रोल आग पकड़ चुका है। इस मामले में विपक्ष भी केंद्र सरकार पर कोई रहम नहीं दिखा रहा है। गौरतलब है कि इससे पहले केंद्र सरकार ने कर्नाटक चुनावों के चलते तेल के दामों पर होने वाली रोजाना समीक्षा को स्थगित कर दी थी जिसे चुनाव होते ही वापस बहाल कर दी गयी है। अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर तेल की कीमतों में लगातार हो रही वृद्धि ने न केवल महंगाई को बेतरतीबी से बढ़ा दिया है बल्कि इसने भारतीय अर्थव्यवस्था के लिए भी चिंता की लकीरे तैयार कर दी हैं। मैं इस आलेख में द्वितीयक आंकड़ों का प्रयोग करूँगा। जहां डीजल 2003 अर्थात ठीक 15 साल पहले 22 रूपये 12 पैसे थे वहीँ पेट्रोल की बाज़ार कीमत 33 रूपये 49 पैसे थे। जहां 15 साल यानी केवल डेढ़ दशक में ही पेट्रोल दुगने से ज्यादा वृद्धि कर 81 रूपये 34 पैसे भयानक उच्चाई पर पहुच गया वहीँ डीजल की कीमतें 15 वर्षों का रिकॉर्ड तोड़ चुकी हैं। डीजल अप्रत्याशित तरीके से वृद्धि की अर्थात 3 गुने से भी ज्यादा अर्थात 74.03 के उस स्तर पर पहुँच चुका है जहां से महंगाई सस्ती हो जाती है।बढ़ी कीमतें जहां एक ओर उपभोक्ता का बजट बिगाड़ती हैं, वहीं सरकार के लिए भी चिंता वाली होती हैं। उत्पादन लागत एवं यातायात के खर्चे में बढ़ोतरी से चीजों की कीमतें बढ़ती हैं। आयात का बिल बढ़ने से विदेशी मुद्रा के भंडार पर जोर पड़ता है। केंद्र सरकार का बजट संतुलन बिगड़ता है, परिणामस्वरूप वित्तीय घाटा बढ़ जाता है। भारत विश्व में कच्चे तेल का तीसरा सबसे बड़ा आयातक देश बन चुका है। वर्तमान में 80 प्रतिशत कच्चे तेल की आवश्यकता आयात पर निर्भर है। वर्ष 2009-2010 में लगभग 159 मिलियन टन कच्चा तेल आयात होता था, जो आज बढ़कर 220 मिलियन टन के ऊपर पहुंच गया है। इस बीच आयात बिल 3.75 लाख करोड़ रुपए बढ़कर 5.65 लाख करोड़ रुपए से अधिक हो गया है।
तेल की बढती कीमतों से केंद्र सरकार अच्छी खासी चिंतिति नज़र आ रही है। राजनीतिक दृष्टि से सरकार की चिंता जायज भी है क्योंकि निकट भविष्य में ही देश के कई बड़े राज्यों में विधानसभा चुनाव हैं। तेल की बढती कीमतों के चलते सरकार की विभिन स्तरों पर गंभीर आलोचनाएं भी सामने आ रही हैं। इन्ही आलोचनाओं के चलते सरकार तेल की कीमतों को कम करने के लिए हाथ-पांव मारती नज़र आ रही है। दूसरी और जनता चाहती है कि तेल की कीमते जल्द से जल्द कम हो जाएं। सबसे पहले यहां ये जानना जरुरी है कि तेल की कीमते किस तरह से तय होती हैं? पेट्रोल और डीजल की कीमतों में उतार-चढाव आम बात है। सामन्यत: उपभोक्ता वस्तुओं की कीमत स्थिर रहती है जब तक मांग ज्यादा और पूर्ति कम न हो जबकि तेल की कीमतें बहुत थोड़े अन्तराल में ही परिवर्तित होती रहती है। पिछले साल 16 जून 2017 तक देश में तेल की कीमतों का हर पन्द्रहवे दिन समीक्षा कर बदला जाता था। लेकिन 17 जून 2017 से कीमतों की प्रतिदिन समीक्षा का प्रावधान शुरू कर दिया। इस प्रावधान के अंतर्गत मुख्यत: अंतरराष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल के दाम और रुपए की क्रयशक्ति दो घटकों के आधार पर कीमत का निर्धारण होता है। विश्लेषण के अनुसार जहां भारत में कच्चे तेल के मूल्य में सिर्फ एक डॉलर प्रति बैरल की वृद्धि होने से आयत बिल 823 करोड़ रूपये से बढ़ जाता है। वहीँ दूसरी ओर इसी तरह का असर रूपये की कीमत कम होने पर होता है। इस समय रुपया फिसलन में हैं जिससे आयात बिल में वृद्धि हो रही है जो चिंताजनक है। मात्र पांच कम्पनियां ही भारत में तेल की जिम्मेदारी निभा रही हैं और यही पेट्रोल-डीजल सहित तेल की कीमतों को निर्धारित करती हैं। देश में तेल कारोबार का लगभग 95 फीसदी कारोबार BPCL,HPCL व IOCL के पास है, जो सार्वजानिक क्षेत्र अर्थात सरकारी नियंत्रण वाली हैं जबकि शेष 5 फीसदी हिस्से पर दो निजी कंपनियों रिलायंस और एस्सार का कब्जा है। ये पाँचों कम्पनियां ही कच्चे तेल के क्रय से लेकर पेट्रोल पंपों तक पहुंचाने का कार्य करती है इसलिए प्राथमिक कीमते भी इन्ही के द्वारा तय की जाती हैं। इन प्राथमिक कीमतों में जुड़ता है राज्य व केंद्र सरकारों का कर, इस प्रकार ये कुल मूल्य ही देश में तेल की कीमत कहलाता है।
इस प्रकार जहां पेट्रोल की कीमत में लगभग 50 फीसदी भाग टैक्सों और इस तरह की अन्य मदों का होता है, वहीँ  डीजल में यह लगभग 45 प्रतिशत होता है। जैसे-जैसे कीमते बढती है वैसे-वैसे केंद्र व राज्य सरकारों की आय भी बढती जाती है और इसका सीधा असर जनता महंगाई  की मार सहकर उठाती है। 2014-2015 में केंद्र सरकार को पेट्रोल व डीजल पर आरोपित उत्पाद शुल्क और अन्य करों से 1.72 लाख करोड़ रुपए का लाभ हुआ था, जो 2016-2017 में बढ़कर 3.34 लाख करोड़ रुपए पर पहुंच गया। स्पष्ट है कि समय-समय पर सरकारों द्वारा किया गया ये बदलाब कभी भी जनता को तेल की अंतर्राष्ट्रीय कीमतों में हुए बदलाव के अनुपात में लाभ नहीं दे पाया है। राज्य व केंद्र सरकार को प्राप्त होने वाली कुल आय में तेल पर लगाए गए कर से होने वाली आय का हिस्सा ज्यादा होता है। इस लिहाज़ से वे कर की दरों पर अपना नियंत्रण बनाए रखना चाहती हैं। 2014-2015 में राज्य सरकारों को पेट्रोल व डीजल पर लगाए करों से 1.40 लाख करोड़ रुपए की प्राप्ति हुई, जो 2016-2017 में बढ़कर 1.89 लाख करोड़ रुपए पहुंच गई। यही वजह है कि पेट्रोल और डीजल को जीएसटी के तहत लाने का अधिकांश राज्य सरकारें विरोध कर रही हैं।
सपष्ट है कि राज्य सरकारों द्वारा लगाए जाने वाले कर की दरों में विभिन्न्ता के कारण पूरे देश में पेट्रोल व डीजल की कीमतों में समानता संभव नहीं है। कहीं उपभोक्ताओं को कम दाम देना पड़ता है तो कहीं अधिक। 21 मई 2018 को महाराष्ट्र के परभणी में पेट्रोल की कीमत 86.09 रुपए प्रति लीटर थी, जबकि मध्यप्रदेश के भोपाल में 82 रूपये 17 पैसे प्रति लीटर, चेन्न्ई, कोलकाता और दिल्ली में क्रमश: 79.47 रुपए, 79.24 रुपए और 76.57 रुपए प्रति लीटर, पंजाब के जालंधर में 81.83 प्रति लीटर, बिहार की राजधानी पटना में 82.05 प्रति लीटर थी। जिन शहरों में उस दिन पेट्रोल की कीमत 80 रुपए के ऊपर थी, उनमें पटना, पुड्डुचेरी, त्रिवेंद्रम, भोपाल, जालंधर व श्रीनगर शामिल थे। वहीं पूर्वोत्तर के अधिकांश शहरों में उस दिन पेट्रोल 73 रुपए प्रति लीटर से कम पर बिक रहा था। पिछले सत्तर वर्षो में हमारे नीति निर्धारकों ने ऊर्जा के क्षेत्र में आत्मनिर्भरता के लिए गंभीर प्रयास नहीं किए, क्योंकि तेल के आयात में उन्हें कठिनाई नहीं थी। मोदी सरकार ने वैकल्पिक ऊर्जा संसाधन जैसे सौर ऊर्जा के विकास पर जोर देना शुरू किया है, जो एक साहसिक कदम है। कच्चे तेल की संपदा भारत को भी प्रकृति ने अच्छी मात्र में दी है। किंतु उसके उत्पादन और परिशोधन के लिए जिन साधनों को विकसित किया जाना चाहिए था, उन पर ध्यान नहीं के बराबर दिया गया। उसका एक कारण तेल उत्पादक देशों का दबाव भी माना जा सकता है।

आम उपभोक्ताओं को पेट्रोल और डीजल की जो कीमत भारत में चुकानी पड़ती है, वह कई और देशों की तुलना में अधिक है। अमेरिका में औसतन एक दिन के गैस की कीमत जो उपभोक्ता देता है, वह उसकी आमदनी का लगभग 0.5 प्रतिशत आता है। योरपीय देशों में यह 2 से 4 प्रतिशत के करीब होता है, जबकि भारत में यह 20 प्रतिशत के आसपास आ जाता है। यह सच है कि विकसित देशों में आमदनी का स्तर विकासशील देशों की अपेक्षा काफी ज्यादा है, किंतु इस बात से भी इनकार नहीं किया जा सकता कि क्रयशक्ति समानता (परचेजिंग पावर पैरिटी) के सिद्धांत पर भारत जैसे देश में चीजों की कीमतें विकसित देशों की अपेक्षा काफी कम हैं, विशेषकर जीवन की आवश्यकता से जुड़ी चीजें। पेट्रोल और डीजल भी ऐसे ही आवश्यक पदार्थ हैं, फिर क्यों देशवासियों को इनकी भारी कीमत देने के लिए मजबूर किया जाता है। केंद्र और राज्य सरकारें पेट्रोल और डीजल पर लगाए जाने वाले करों में कटौती करें और जनता को कम दाम पर इन्हें मुहैया कराएं तो यह जनतांत्रिक सरकार की उपलब्धि मानी जाएगी। पेट्रोलियम मंत्री ने टैक्सों को कम करने और सरकारी तेल कंपनियों को हानि से बचाने के लिए सबसिडी देने के बारे में सोचने की बात कही है। आशा है यह सोच कार्यान्वित भी की जाएगी। देश में जीएसटी लागू हो चुका है, किंतु पेट्रोल और डीजल को उससे बाहर रखा गया है। अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया और विश्व के अनेक देशों में ये पदार्थ जीएसटी के दायरे में हैं। केंद्र और राज्य सरकारों को मिलकर शीघ्र निर्णय लेने की जरूरत है। अलग-अलग राज्यों में अभी उपभोक्ता को अलग-अलग कीमतें देनी पड़ रही हैं। पेट्रोल और डीजल को जीएसटी व्यवस्था के अंतर्गत लाने से एक टैक्स एक बाजार का लाभ सामान रूप से सभी उपभोक्ताओं को मिल सकेगा। जब तक यह नहीं होता, टैक्स की दरों में कम से कम 10 से 15 प्रतिशत कटौती करके सरकार उपभोक्ताओं को राहत दे सकती है।


इंक़लाब जिंदाबाद।
*Contents are subject to copyright                           



                                                                                            Any Error? Report Us

No comments:

Post a Comment