- डॉ. नीरज मील
देश में युवाओं और किसानों की समस्याओं की तरफ देखना भी गुनाह साबित हो चुका
है। वास्तव में यही फितरत भारत देश की तस्वीर बन चुकी है। वर्तमान परिपेक्ष में
देखा जाए तो आभास होता है कि देश में सरकारें इस जिद्द पर अड़ गयी हैं कि इनकी तरफ
देखना ही नहीं है। समस्या वास्तव में इतनी बड़ी है लेकिन सरकारें क्या कर रही हैं?
देश के नेता और बड़े बाबुओं को इस ओर देखने की फुर्सत ही नहीं है। आज स्थिति ये है
कि जहां कहीं भी इनकी समस्याओं को हवा मिलती भी है यही सरकारें मीडिया को मैनेज कर
केवल हैडलाइनें बनाकर देश के वैचारिक पटल से ही हटा दी जाती हैं। क्या देश की
मिडिया केवल सरकार का प्रेशर कूकर के सेफ्टी वाल तरह बन कर रह गयी हैं? ये केवल
सवाल नहीं है बल्कि जवाब भी है। तभी अनाज और बेरोजगार जवान दोनों छितराए हुए हैं।
न तो दाम मिल रहा है न काम जबकि राजनैतिक दल चाहे वे सता में हो या विपक्ष में
दोनों के लिए मुद्दे केवल निंदा और वोट हासिल करने तक सीमित हैं। सबसे बड़ा सवाल
यही है कि इनकी समस्याओं के लिए कोई ठोस प्रस्ताव या कार्ययोजना क्यों नहीं रखी जा
रही हैं?
देश में स्थिति इतनी भयानक हो चुकी
है लेकिन देश के अर्थशास्त्री, नेता और बड़े बाबू आदि ने सामूहिक रूप से हड़ताल कर
दी है। देश के इन ज़िम्मेदार लोगों ने ये
जिद्द पकड़ ली हैं कि ये लोग देश के बुनियादी मुद्दों पर कोई काम करेंगे ही नहीं।
ऐसे में रही बात लोकतंत्र के चौथे स्तम्भ मीडिया की, तो इसको हर रोज़ कोई न कोई थीम
दे दी जायेगी उसी पर सारे चैनल वाले डिबेट करेंगे और सुबह अखबार वाले वही सलागड़ा परोस
देंगे। स्पष्ट है कि सब कुछ आज़ादी के बाद से किस तरह से प्रबंधित होती रही हैं और
हो रही हैं। लेकिन फिर भी देश के युवाओं और किसानों के मुद्दे इस प्रकार किये गए
प्रबंध को झुठलाकर सामने आ ही जाती हैं जिससे उनकी प्रखरता, प्रबलता और उपयोगिता
स्वयं सिद्ध हो जाती हैं। राजनीति और मीडिया दोनों ही ऐसे मुद्दों को आसानी से
गायब कर देने के लिए ज़िम्मेदार हैं। मैं भी मजबूर हूँ लिखने के लिए क्योंकि मैं
युवा हूँ लेकिन देशहित में सोचता हूँ।
एक सीधी भर्ती परीक्षा के दौरान
युवाओं की अनंत भीड़ हर जगह होती है लेकिन किसी की भी नज़र उन पर नहीं पड़ती है इन
नौजवानों के पास एक छोटे से शहर में ठहरने की हैसियत नहीं है। फूटपाथ और रेलवे
स्टेशन पर राष्ट्रीय परिधान ‘बनियान’ पहने सोयी हुई युवाओं की भीड़ अपने आप में कई
सवाल खड़े करती है। वैसे सोचा जाए तो रूह कांप जाती है कि जब ये बेरोजगार उठेंगे तो
क्या होगा? इन नौजवानों के पास एक छोटे से शहर में ठहरने के लिए आर्थिक हैसियत नहीं है। रेलवे के एयर कंडीशनर कोच भी
साधारण डिब्बे में तब्दील हो जाते हैं। लेकिन इससे बड़ा कमाल और क्या होगा कि बोरें
में आलू की तरह ठूसे होने के बावजूद ये नौजवान कुछ नहीं बोलते। हर किसी को ये सोचने
को मजबूर कर देने की बेबस चलचित्र तस्वीरें। ऐसे में इन बेरोजगारों की गरिमा की
बात करना तो बेमानी ही होगी। ये देश के नौजावान होते हैं जिनके पास अदद एक नौकरी
की आस के सिवा कुछ नहीं है। क्या ये सरकार द्वारा नौजवानों के मुह पर करारा तमाचा
नहीं हैं? क्या ये देश के वर्तमान तथाकथित विकास का खोखलापन नहीं हैं? ऐसे ही
हजारों सवाल हैं मेरे और मेरे जैसे सोचने वाले नागरिकों के मन में हैं लेकिन अफ़सोस
कि किसी भी सवाल का जवाब कहीं भी नहीं मिल रहा। मैं युवाओं की इस व्यथा को सबके
सामने पेश करने की इसलिए पेश कर रहा हूँ जिससे लोगों तक देश के युवाओं की ये बर्बर
तस्वीर पहुँच सके और वे सवाल करना सीखें।
देश के नीति-निर्धारक पूर्ण रूप से आश्वस्त हैं कि देश के ये युवा केवल मुर्दा
जवानी को ढोह रहें हैं। कमाल भी है कि एक तो इन युवाओं को शिक्षा के नाम पर वो ज़हर
पिलाया जाता है कि इनकी चेतना केवल नौकरी तक ही सीमित रह जाती है। नेताओं को भी
पता है कि समय-समय पर युवाओं को भर्ती के विज्ञापन का जमालघोटा पिला दिया तो ये
अपनी जवानी 5 साल तो परीक्षा के इंतज़ार में ही गुजार देंगे। केवल भर्ती निकालकर
नियुक्ति नहीं देना क्या युवाओं की ख़ामोशी का मज़ाक उड़ाने का उम्दा उदाहरण नहीं है?
ये वर्तमान के नेताओं के लिए अच्छी बात है कि देश के युवाओं की राजनैतिक चेतना उस
दर्जे की जिसके स्तर का आजकल की रेल में डिब्बा भी नहीं होता। देश का नौजवान नौकरी
के अलावा कुछ नहीं सोच रहा है। आज देश का युवा केवल मुर्दा शांति का दूत है जिसे
नौकरी के अलावा किसी भी विषयवस्तु से कोई लेना-देना नहीं है। हाल ही में राजस्थान
सरकार द्वारा महिला एवं बाल विकास में निकाली गयी भर्ती में आये आवेदन मेरी इस बात
को बल प्रदान कर रहें हैं। जहां राजस्थान में इस भर्ती में मात्र 180 पदों के लिए
4 लाख आवेदन वहीँ केंद्र में रेलवे द्वारा निकाली गयी 1 लाख भर्तियों के लिए ढाई
करोड़ आवेदन मिलना इस बात का पुख्ता सबूत है कि सरकारें कितनी अकर्मण्य हो चुकीं
हैं। वास्तव में इतनी भारी संख्या में प्राप्त आवेदनों के बाद एक स्वस्थ और
पारदर्शिता वाली चयन की उम्मीद ही बेकार है। ऐसे में हम एक विकसित राष्ट्र की
कल्पना करें तो उसे साकार होने में कितनी सदियां लग जाएँ कोई नहीं जानता।
एक नौजवान और आदमी इस देश में कब सामान हो जाता है और कब इंसान! ये उसकी जेब
में मौजूद रुपया तय करने लगा है। आज का युवा जिस अमानवीय प्रक्रिया से गुजर रहा है
उससे न तो मानवाधिकार की संस्थाओं को लेना देना है, न सरकार को और न ही देश की
जनता को। ऐसी ही प्रक्रियाओं से होकर गुजरने वाले युवाओं से हम बेहतर नागरिकों और
देश सेवकों होने की उम्मीद भी पाल लेते हैं। लेकिन सबसे बड़ी बात ये है कि आखिर
नौकरी के लिए इतना संघर्ष क्यों? क्या छात्रों, नौजवानों की देश के इस लोकतंत्र को
फ़िक्र है? क्यों नौजवानों के वक़्त की कोई कीमत नहीं है? क्यों नौजवानों की
समस्याओं का समाधान नहीं निकाला जा रहा? ऐसे ही हजारों सवाल है जिन्हें कोई जवाब
नहीं मिल पाता है। क्यों बदहाल है देश का नौजावान? कब सुधार होगा इस भयावह स्थिति
में? हम कब तक ऐसे ही हाथ पर हाथ धरे बैठे रहेंगे? क्या तब तक जब तक देश का नौजवान
पूर्णत: बर्बाद नहीं हो जाता किसान की तरह? कब तक हम इस दिशा में नहीं सोचेंगे?
क्या तब तक जब तक नौजवान भी आत्म हत्याएं न करने लगे? कब तक देश की सरकारें देश के
नौजवानों की सुध नहीं लेंगी? क्या तब तक जब तक ये नौजवान हथियार न उठा ले? किस बात
का इन्तिज़ार हो रहा है? नौजवानों की ज़िन्दगी बर्बाद हो रही है लेकिन अफ़सोस देश के
नौजवानों को ही इससे कोई फर्क नहीं पड़ रहा है!
परीक्षाएं समय पर नहीं हो रही हैं, देश में महाविद्यालयों, विश्विद्यालयों में
शिक्षकों के पद बेइंतिहा खाली हैं लेकिन भर्ती नहीं करेंगे ये सरकार की हठधर्मिता
है। महाविद्यालयों एवं विश्वविद्यालयों में शिक्षकों की भर्ती होती नहीं है लेकिन
राष्ट्रीय स्तर पर पात्रता जरुर प्रदान की जा रही ताकि युवा प्रोफ़ेसर बनने का
ख्व़ाब जरुर पाले रखे और इंतज़ार करता रहे। स्पष्ट है कि युवाओं को किस तरह से
संगठित तरीके से बर्बाद किया जा रहा है। सार्वजानिक मसलों पर युवाओं का चुप रहना
युवा जवानी को मुर्दा जवानी के रूप में पेश करना है। समस्त विश्लेषण के बाद मेरी
सरकार से गुज़ारिश रहेगी कि वो समय रहते युवा मानव संसाधन को देशहित में दिशा
प्रदान करे और उसे सरकारी नौकरी के ख्व़ाब से या तो बाहर निकाले या सरकारी नौकरी
दे। बहुत सारे रास्ते हैं, विचार हैं, तरकीबें हैं जिनके इस्तेमाल से देश के
युवाओं की बर्बादी को रोका जाना चाहिए नहीं तो जिस गति से देश की युवाओं की दशा
बिगड़ रही है उसके हिसाब से देश के भविष्य पर संकट निश्चित और अवश्यमभावी है जिसे कोई
नहीं टाल पायेगा....इंक़लाब जिंदाबाद।
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