नमस्कार, आप बने हैं मुद्दों के सही, सटीक और समुचित निष्कर्ष के साथ तह तक
पहुंचने के लिए आप बने हुए हैं डॉ. नीरज मील के साथ। क्या आरक्षण को धीरे-धीरे खत्म
किया जा रहा है? आज के इस आलेख में हम इसी की तह तक जाने का प्रयास करेंगे। इस विश्लेषण से यह भी जानने का प्रयास भी करेंगे
कि आखिर ख़त्म किये जा रहे आरक्षण की वजह क्या है? क्या सुप्रीम कोर्ट के फैसले वजह
या सुप्रीम कोर्ट के बहाने कुछ और? बहरहाल हम इस मुद्दे को समझने और समझाने के लिए
विश्वविद्यालयों में होने वाली नियुक्तियों में अपनाई जा रही प्रक्रिया का संदर्भ
लेते हुए आगे बढ़ेंगे।
इंडिया की उच्च शिक्षा वर्ष 2011 के बाद से धरातल में रसति चली गई है और की पिछले 7 सालों पतन के उस रसताल में पहुँच चुकी जहाँ से उबर पाना अब बहुत मुश्किल है। न
सरकारें इसे अपने पास रखना चाहती हैं न निजी क्षेत्र इसको स्तरीय बनाए रखने में
सक्षम है। सरकारी क्षेत्र में स्थापित
विश्वविद्यालय के पास अब संसाधनों के साथ-साथ शिक्षकों की भी कमी हो गई। सबसे बड़ी
बात यह है कि देश की जनता हिंदू मुस्लिम के स्वास्थ्य पाठ्यक्रम में इतना डूब गए
कि उच्च शिक्षा की ओर ध्यान ही नहीं दे
पाए और इसी तरह के अन्य महत्वपूर्ण मुद्दों को भी बिसरा चुके हैं। इंडिया की
सरकारें और राजनीतिक दलों को तो मानो उच्च शिक्षा से कोई लेना देना ही नहीं है। मैं
दावे के साथ कह सकता हूं कि यह मुझको यह यकीं है कि 2012 के बाद किसी भी चुनावी सभा में शिक्षा की खस्ता हो चुके हाल पर कोई भाषण किसी
नेता ने नहीं दिया है। मुद्दा विश्वविद्यालय में शिक्षकों की नियुक्तियों को लेकर
खत्म किया जा रहे आरक्षण के उदाहरण का है। विश्वविद्यालय में पहले नियुक्ति
व्यवस्था 200 रोस्टर आधारित थी। उसमें एक
विश्वविद्यालय के सारे पदों की कुल संख्या में से 49।5 फीसदी आरक्षित हो जाते थे अर्थात उदाहरण के माध्यम से हम देखें व समझने का
प्रयास करें तो मान ले कि किसी विश्वविद्यालय में हिंदी, वाणिज्य व विज्ञान
विभागों में क्रमशः 3,3, व 2 पदों की वैकेंसी है तो 200 रोस्टर के अनुसार अर्थात पुराने हिसाब से 49।5 फीसदी आरक्षण हिसाब से चार पद सामान्य के लिए एवं चार पद आरक्षित वर्ग के लिए
तय हो जाते थे। चूंकि 49।5 आरक्षण में क्रमशः 27 प्रतिशत अन्य पिछड़ा वर्ग के लिए,
15 प्रतिशत अनुसूचित जातियों के लिए एवं
शेष 7।5 फीसदी आदिवासियों के लिए आरक्षित है। ऐसे विज्ञापन में थोडा ही सही
लेकिन सभी आरक्षित वर्गो को प्रतिनिधि रहा करता था लेकिन अप्रैल 2017 के अंदर इलाहाबाद उच्च यायालय के जज विवेक तिवारी के फैसले के बाद 200 पॉइंट रोस्टर को अवैध करा दे दिया गया और कहा गया कि यूनिवर्सिटी एक इकाई
नहीं है बल्कि विभाग एक इकाई है अतः आरक्षण विभाग से लागू होगा। और इसी फैसले में
एक नया फॉर्मूला इजाद किया गया तेरह पॉइंट रोस्टर का। अब ये फैसला संविधान के किस
अनुच्छेद में वर्णित है या किस एक्ट की किस धारा में उल्लेखित है मैं खोज नहीं
पाया और शायद ही कोई ख़ोज पाए ये भगवान की तरह बताया तो जा रहा है होना लेकिन दिखाई
नहीं दे रहा।
खैर, तेरह पॉइंट के आधार पर आरक्षण व सामान्य के लिए पदों की संख्या इस प्रकार
होगी कि पहला, दूसरा, तीसरा पद सामान्य के लिए चौथा अन्य पिछड़े वर्ग के लिए, पांच,
छ: और सातवाँ पद फिर से सामान्य के लिए और
इसके बाद यानी आठवां पद अनुसूचित जातियों के लिए इसी तरह आगे के नौ, दस, ग्यारह और
बारहवा पद फिर सामान्य के लिए और तेहरवा पद आदिवासियों के लिए आरक्षित रहेगा। इसे
में आप देख सकते हैं कि उक्त बाताये गए उदाहरण में खाली पड़ी 8 सीटों में से एक भी सीट आरक्षित नहीं हो पाएगी अर्थात आरक्षण ख़त्म 3 सीटों के
विज्ञापन के लिए। अब चलते हैं मुद्दे की तह तक यहां आप समझने का प्रयास करें कि
यहाँ न केवल 49।5 प्रतिशत आरक्षण को खत्म किया गया है
बल्कि चार फीसदी के लोगों लिए शत प्रतिशत आरक्षण लागू किया गया है। आप देखेंगे कि
यह क्या हो रहा है? क्या यह सविधान का उल्लंघन नहीं है? इंडियन एक्सप्रेस की
रिपोर्ट देखिए जो बताती है कि 200रोस्टर के अनुसार नियुक्ति के तहत विश्वविद्यालय
में जनसंख्या प्रतिनिधित्व की प्रोफ़ेसर के पदों में क्या स्थिति है! रिपोर्ट के
अनुसार देश के 40 केंद्रीय विश्वविद्यालय में 2620 प्रोफेसर है जिसमें से महज 130 प्रोफेसर अनुसूचित जाति जबकि आरक्षण दे रखा है 15 फीसदी यानी कुल प्रोफेसरों
का केवल 4।96 फीसदी आदिवासियों की स्थिति तो और भी भयावह है जो केवल 34 प्रोफेसर आदिवासियों के हैं जबकि इन्हें आरक्षण साढे
सात प्रतिशत दिया हुआ बता रखा है। चौकिए मत आगे भी पढ़िए कि अन्य पिछड़ा वर्ग के नाम
27 प्रतिशत आरक्षण दिया हुआ बताया जा रहा है लेकिन केंद्रीय विश्वविद्यालय में
इनके लिए प्रोफ़ेसर कि नौकरी ही नहीं है। जबकि
सामान्य में जो 4 फीसदी जातियां हैं उनके प्रोफेसरों की संख्या 2434 अर्थात 92।90
फीसदी। स्थिति साफ़ लेकिन फिर भी दिखाई न दे तो दोष किसे दें?
अब सबसे बड़ा सवाल है कि ऐसा क्या हुआ कि सामान्य के सारे पद भरे जा रहे हैं
और आरक्षित एक भी नहीं। क्या ये सविधान की किसी भी भावना के खिलाफ नहीं है? स्पष्ट
है कि व्यवस्था आ अंतिम लक्ष्य चार फीसदी जनसमूह को शत प्रतिशत आरक्षण देना है। साफ़
है कि आरक्षण पहले भी लागू नहीं था और अब तो ख़त्म ही कर दिया गया है। अब स्थिति
इसी के समझ से बाहर है तो तैयार हो जाइए बेहतर तरीके से समझने के लिए निकट भविष्य
में हिंदुस्तान भी 1999 का क्या अर्जेंटीना वन ही जाएगा। फिलहाल के लिए इतना ही मिलते हैं एक और मुद्दे की तह तक
जाने के लिए आप बने रहे डॉ. नीरज मील के साथ। इन्कलाब जिंदाबाद।
No comments:
Post a Comment