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Wednesday 19 December 2018

इंसाफ में देरी इंसाफ नहीं।

डॉ. नीरज मील 'निःशब्द'


           हो सकता है कोई मेरे विचारों से सहमत न हो लेकिन फिर भी मैं मेरी विचार अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का इस्तेमाल अवश्य करूंगा। क्या वर्तमान में इंसाफ की बात की जा सकती है? क्या वर्तमान प्रासंगिकता में हिंसा शब्द का इस्तेमाल जायज है? क्या वर्तमान वस्तुस्थिति से अवगत होने के बाद इंसाफ शब्द इंसानों के बीच खोजा जा सकता है? क्या हम वाकई इंसाफ की बात कर सकते हैं या फिर इंसाफ के नाम पर राजनीति या कांग्रेस बनाम बीजेपी करते है? दंगों और नरसंहार की बात आती है तो इंसाफ की बात वहां भी पहुचती है जहाँ इसकी बात नहीं होती है।
         सचिन कुमार ने कांग्रेस की प्राथमिक सदस्यता से इस्तीफा दे दिया है। न तो सज्जन कुमार एक हैं,और न ही एक दल में। सज्जन कुमार कहाँ है इस पर किसी को पता नहीं! लगता अजीब है लेकिन है। 17 दिसंबर को जब 1984 के आंशिक हिस्सा इंसाफ की बात हो रही थी तब टीवी चैनलों में 1984 बनाम 2002 का मजमा भी लगा दिया गया। लेकिन  सोचने वाली बात विचार ने वाली बात यह है कि 1984 के सिख दंगों का फैसला 2018 के अंत में आता है। यानी कि लगभग 34 साल बाद फैसला और वह भी आंशिक धन्य है ऐसी न्याय व्यवस्था। देश की आम जनता के मानस पर टीवी न्यूज़ चैनलों द्वारा हिंदू बनाम मुस्लिम की प्रायोजित व्यू रचना मुकम्मल करके लोगों का ध्यान असली मुद्दों से भटकाने के लिए काफी साबित हो रहा है। इस तरह से ध्यान भटकाना भी नाइंसाफी है।
      34 साल बाद आए फैसले में एक बार फिर से सबको झकझोर कर रख दिया।उन दंगों की नरसंहार की ब्लैक एंड व्हाइट तस्वीरें पटल पर उभरने लगी। एक बार फिर उन स्मृतियों को कैद खाने से बाहर आने को मजबूर कर दिया जिन्हें कोई व्यक्ति शायद ही पसन्द करे। दिल्ली उच्च न्यायालय के फैसले के अनुसार देश की आजादी के 37 साल बाद 1984 में एक और भयंकर त्रासदी होती है। तब देश तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की हत्या के बाद देश में सिख विरोधी लहर चलते दो हज़ार सात सौ तैतीस सिखों को निर्ममतापूर्वक मार दिया जाता है। घर नष्ट कर दिए जाते हैं और देशभर में सिखों पर नरसंहार का कहर टूट पड़ता है। इस नरसंहार में शामिल ज्यादातर हत्यारे राजनीतिक संरक्षण पाते रहे, जांच एजेंसियों का उदासीन रवैया उनके लिए मददगार साबित होता रहा। इसी कारण अपराधी सजा और मुकदमों से दो दशकों से भी ज्यादा समय तक महफूज रहे। 10 कमियां व जांच आयोग इसमें शामिल लोगों की भूमिका की जांच करते हैं लेकिन 2005 को इसे सीबीआई को सौंप दिया जाता है।  दिल्ली के राजनगर में 84 के दंगों में मारे गए 5 लोगों की हत्या के जुर्म में सज्जन कुमार को उम्र कैद की सजा सुनाई जाती है बेशक सज्जन कुमार और नरसंहार में शामिल 5 अन्य को सजा सुना दी गई। बेशक सज्जन कुमार उन 5 लोगों की हत्या के खलनायक हैं लेकिन सजा को मुकम्मल करवाने के लिए 30 साल से जंग लड़ रही एक और शख्सियत है जगदीश कौर। अगर उनका एक न्यूज चैनल पर दिए गए साक्षात्कार देखे और सुने तो हम भी हमारे वर्तमान इंडिया को नहीं पहचान पाएंगे। क्यों मुल्कों के बंटवारे के बाद यहां आए लोगों के साथ अन्याय हुआ? क्यों भयंकर बर्बरता पर सरकारें आंखे मूंदकर अनभिज्ञ बनी रही? क्या यही न्याय या इंसाफ है?
        जगदीश कौर के अनुसार ''जिस मुल्क को अपना समझकर स्वीकार करें और वहीं पर अपने जब वो गहरे ज़ख्म दे जो नासूर बन जाएं तो उस मुल्क को कोई कैसे अपना कह दे?'' क्या कोई जवाब है किसी के पास जब दंगों में मारे गए अपनो का अंतिम संस्कार घर के ही फर्नीचर को जलाकर घर मे ही करना पड़े! कैसे उचित ठहरा दे कोई इस लाचारी को? मुल्तान से हिंदुस्तान आई जगदीश कौर का मुल्क तो वो भरोसा था जो 1984 में ही ख़त्म हो गया। बर्बादी की पूरी किताब का ये केवल एक छोटा सा भाग होगा। पूरी किताब को पढ़ने और विवेचने का सामर्थ्य मेरी कलम में तो नहीं है।
       80 साल की उम्र में फैसले को सुनना, 30 साल तक लगातार अदालती कार्रवाई के दांव पेचों को झेलना, सबूत पेश करना दलीलें रखना महज एक इत्तफाक नहीं होता बल्कि बहुत ही भयावह होता है। सामान्य अवस्था में ऐसी लड़ाई हर किसी के बस की बात नहीं होती। हालांकि इस लड़ाई में उन्हें भले ही दुनियां की नज़र जीत हासिल हुई हो लेकिन क्या इतनी बर्बरता के बाद इसे जीत कह पाना सहज होगा? क्या इतनी देर से हासिल हुई इंसाफ को इंसाफ कहा जाएगा? क्या इंसाफ में हुई देरी की जिम्मेदारी कोई स्वीकार करेगा ? क्या सरकार इस और ध्यान देगी? क्या गारंटी है कि फिर से किसी के साथ इस तरह का बेजां अन्याय नहीं होगा? फिर से किसी के साथ इस तरह की बर्बरता नहीं होगी, इस बात की पुख्ता गारंटी क्या सरकार दे पाएगी? अगर नहीं । तो क्या यह सरकार की विफलता नहीं है ? क्या यह लोकतंत्र पर एक करारा तमाचा नहीं है? क्या यह इंसानियत पर एक बहुत बड़ा दाग नहीं है?
        यहां यह कहना भी शर्मनाक होगा लोकतंत्र के लिए कि 2004 में इसी सज्जन कुमार को कांग्रेस द्वारा टिकट दिया गया और वे 2009 तक सांसद रहे। इन्हीं 84 के दंगों के एक और आरोपी हाल ही में चर्चा में आए और चर्चा में आने की वजह रही उन्हें एक बहुत बड़े प्रदेश का मुख्यमंत्री बनाया जाना। साफ है कि राजनीति किस कदर अपराधियों को संरक्षण देती है या यूं कहें कि राजनीति ही अपराध की, नरसंहार की, दंगों की कहानी लिखती क्योंकि कुछ भी हो जाए सरकार बचानी है सरकार चलानी है।1984 की मौतें किसी बरगद या चिड़ी के मरने से नहीं हुई, सरकार की एकतरफ़ा नीतियो व उदासीनता के कारण बढ़ी पहल का फल थी। न्याय की इस परिभाषा के चलते सज्जनकुमार मिट्टी का पूत है, लालू की तरह सज़ा हो गयी उसे।टाईटलर,कमलनाथ जैसे थाईलैंडी शरणार्थी ऐश काट रहे है।
        फैसले पर गौर फरमाएं तो पूर्व सांसद सज्जन कुमार के अलावा नौसेना के एक के पूर्व अधिकारी कैप्टन भागमल, बलवान खोखर, गिरधारी लाल पूर्व विधायक महेंद्र यादव, किशन खोखर को भी सजा हुई है। साफ है कि जिन की शह पर नरसंहार होता है वे सरकार पाते हैं, और जो भीड़ में शामिल होते हैं वह सजा के हकदार होते हैं सजा पाते । यहां अगर विश्लेषण किया जाए तो आशंका इस बात की भी बनी है हुई है कि 35 साल बाद आए इस फैसले मैं एक बात तय हो गई कि जिन की शह पर यह नरसंहार हुए उनको बचाने के चक्कर में इतने साल लगना लाजमी था क्योंकि एक खास किस्म के लोग थे जिनको बचाना जरूरी था और यह आम लोग थे जिनको फसाना जरूरी था। खैर न्याय बड़ा बलवान होता है और न्याय की आड़ में जो होता है वही स्वीकार्य होता है। हमारे पास कोई सबूत नहीं है,कोई चश्मदीद गवाह नहीं है केवल विश्लेषण है,इसलिए हम कमजोर है व आज इस देश में यह विडंबना है। हाल ही में आए फैसले को हमें पूरा पढ़ना चाहिए ताकि जान सके की भीड़ में शामिल हुए लोग भी सजा के कितने हकदार होते हैं और उन्हें ही सजा मिलती है । इसलिए दंगाइयों की भीड़ में शामिल ना हो और दंगाई न बने। किसी के उकसावे में न आए और किसी का नुकसान ना करें।
       वैसे मेरा निजी विचार यही है कि इस फैसले में न्याय जैसी कोई बात नहीं है। क्योंकि 34 साल की घटना कोई ज्यादा पुरानी घटना नहीं होती जिसका कोई चश्मदीद गवाह टीवी पर सामने ना पाए। इसलिए न्याय के रूप में इस फैसले को और इस पूरे घटनाक्रम को हम ना देखें तो ही बेहतर होगा। न्याय में देरी अन्याय है और यहां मेरी क़लम निःशब्द है। इंक़लाब ज़िंदाबाद।

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