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Saturday 15 December 2018

सर्वोच्च फैसले का सामाजिक अंकेक्षण।

डॉ. नीरज मील 'निःशब्द'



जब किसी देश में संविधान बाहरी हो तो न्यायपालिका भी असंगत होती है और सरकार भी ढकोसलेबाज़ होती है। ऐसे में देश की न्यायिक व्यवस्था मजाक बन जाती है। देश मे न्यायालयों द्वारा दिए गए फैसले भी बिंदु प्रकृति के होते हैं। जिस तरह रेखागणित में एक बिंदु से अनन्त रेखाएं खींची जा सकती है वैसे ही इन न्यायालयों द्वारा दिये गए फैसले भी प्रयोगकर्ता के अनुरूप अर्थ देने वाले ही होते हैं। आज ठीक ऐसी ही स्थिति इंडिया के सर्वोच्च न्यायालय के फैसलों की हो गयी है। राफेल पर दिए गए फैसले में भी यही स्थिति सामने रही है। उनतीस पृष्ठ के फैसले को अव्वल तो कोई पढ़ना ही नहीं चाहेगा। इसीलिए देश में पेशेवर राजनीतिक दल भी जनता को गुमराह कर अपना-अपना उल्लू सिधा करने निकल पड़े हैं। एक तरफ जनता के बीच बारतीय जनता पार्टी इस फैसले को इस तरह से पेश कर रही है जिससे ये लगे कि ये वर्तमान सरकार का ईमानदारी का सर्टिफिकेट हो। जबकि कोंग्रेस इस फैसले को लेकर अपने दावों को और ज्यादा मजबूत होना बता रही है। क्या जनता को ये फैसला खुद ही नहीं पढ़ना चाहिए?
विश्लेषण करें तो इंडिया के सर्वोच्च न्यायालय ने इस फैसले में लिखा है कि "कई सवालों की न्यायिक समीक्षा उसके अधिकार क्षेत्र में नहीं आती।" ऐसा न्यायालय ने क्यों लिखा? वो कौनसे मुद्दे हैं जो सर्वोच्च न्यायालय के अधिकार क्षेत्र में भी नहीं है? क्या ये न्यायालय द्वारा अपने कर्तव्य से मुह छिपाने वाली बात नहीं है? सवाल ये भी उठता की आखिर वे मुद्दे किसके अधिकार क्षेत्र में आते हैं? हालांकि फैसले में इन सवालों के जवाब अब कहीं भी नहीं मिलेगा ऐसा भी नहीं लिखा। स्पष्ट है कि हर कोई अपने हिसाब से इन सवालों का जवाब तैयार कर सकता है! मनोहर लाल शर्मा, विनीत ढांडा सांसद संजय सिंह सहित कई लोगों की ओर से दायर जनहित की याचिकाओं पर ये फैसला दिया गया। याचिकाओं में हथियारों एवं रक्षा उपकरणों की खरीद प्रक्रिया अवैध है, पारदर्शिता का अभाव इसमें व्यापक स्तर पर भ्रष्टाचार को दर्शाता है इसलिए इसे रद्द किया जाए। जबकि इसी मामले में यशवंत सिन्हा, प्रशान्त भूषण अरुण शौरी ने कहा कि इस मुद्दे पर हमारी ओर से की गई शिकायत पर सीबीआई ने प्राथमिकी दर्ज नहीं की। न्यायालय ने रक्षा सौदा होने और मुद्दा रक्षा से जुड़ा होने के कारण न्यायिक जांच से इनकार कर राह है। ऐसे में सवाल उठता है कि क्या ये रक्षा सौदों के नाम पर , गोपनीयता के नाम पर खुली छूट नहीं है? यहाँ यह कहना भी मुश्किल हो गया है कि आखिर देश का सर्वोच्च न्यायालय आखिर किन मामलों में दखल देगा? क्या न्यायालय को सिर्फ अनुत्पादक विषयों पर ही संज्ञान लेने की आज़ादी है? अगर नहीं तो हमारी न्याय प्रणाली इतनी सुस्त क्यों है कि फैसला आने तक मुक़दमा करने वाली पार्टियाँ ये तक भूल जाती है कि आखिर झगड़ा किस बात को लेकर हुआ था? मान लेते हैं अदालत की कुछ सीमाएं होती है लेकिन क्या इस राफेल मामले में इस सवाल का जवाब मिल सकता है कि आखिर इस डील से हिंदुस्तान एयरोनॉटिक्स को क्यों बाहर किया गया?वो कौनसी नीति है जिसमें एक सरकारी कम्पनी जो कई दशकों से देश की सुरक्षा में लगी हुई है को अचानक से अयोग्य घोषित कर के एक ऐसी निजी दिवालिया कम्पनी पर भरोसा किया जाए जिसको कुछ बनाने का अनुभव है।
फैसले के अनुसार डील में 126 मीडियम मल्टी रोल कॉम्बैट एयरक्राफ्ट जिनमें से 18 तैयार अवस्था में इंडिया को मिलने थे और बाकी 108 हिंदुस्तान एरोनॉटिक्स लिमिटेड द्वारा डील होने की तारीख के 11 साल के भीतर तैयार किये जाने थे। सरकारी दस्तावेजों के अनुसार 126 विमानों की खरीद का अनुरोध प्रस्ताव मार्च 2015 वापस ले लिया गया। इस प्रस्ताव के बाद 10 अप्रेल 2015 को केवल 36 रफाल एयरक्राफ्ट खरीदने का इंडिया-फ्रांस साँझा घोषणापत्र में एलान होता है। इसे डी सी यानी रक्षा खरीद कमेटी ने मंजूरी दी थी। जिसके अनुसार जून 2015 में 126 एयरक्राफ्ट खरीदने का पूरा प्रस्ताव वापस ले लिया जाता है जबकि 10 अप्रेल के साँझा घोषणापत्र में ऐसी किसी बात होने पर संशय है! लेकिन अदालत के फैसले में लिखी गयी है जिसका कोई रेफरेंस नहीं दिया गया है। अब आते हैं दूसरे पहलू पर 8 अप्रेल 2015 को यानी साँझा घोषणा होने से 2 दिन पहले तत्कालीन विदेश सचिव जयशंकर कहते हैं कि हिंदुस्तान एरोनॉटिक्स लिमिटेड(एचए एल) डील में शामिल है लेकिन 10 अप्रेल को एचए एल बाहर हो जाती है तो इस बात का जिक्र फैसले में क्यों नहीं है? क्या एचए एल को अंधेरे में रखा गया? उनको बाहर होने की ये जानकारी क्यों नहीं दी गई? पक्षकारों की जानकारी के बगैर डील में बदलाव कोई भी न्यायालय कैसे उचित मान लेता है इसका कोई प्रमाण फैसले में नहीं है। यहीं से सवाल उठना शुरू हो जाते हैं जो लाज़मी है।
पिटीशनर प्रशांत भूषण के अनुसार   "सर्वोच्च न्यायालय के इस फैसले में रंजन गोगई, संजय किशन कौल केएम जोसेफ की बेंच ने याचिका की प्रार्थना को दरकिनार किया है एवं वो बाते शामिल की जो सरकार ने कही। अफसोस तो उन बातों का फैसले में लिखे जाने का है जो धरातल पर कहीं नहीं है। न्यायालय ने फैसले में कहा है कि सीएजी ने इस पर एक रिपोर्ट संसद में दी है जबकि ऐसी कोई रिपोर्ट आई ही नहीं है, एयरफ़ोर्स के चीफ़ ने कीमत को सार्वजनिक करने का अनुरोध करने की बात भी कही है जबकि ऐसा कोई दस्तावेज नहीं है, न्यायालय ने फैसले में कहा है कि अम्बानी कम्पनी से 2012 से ही नेगोशिएशन चल रहा है जबकि हकीकत में ये कम्पनी 2015 में बनी है।" वास्तव में प्रशांत भूषण की दलीलों को दरकिनार करना भी तह तक जाने से मना करने के समान ही है। अब फैसले का संदेह में आना और अनेकों अर्थ भाव सामने आने के पीछे फैसले की प्रक्रिया पर भी सवाल उठना और उठाना लाज़मी है। क्या डील के फैसले की प्रक्रिया सही थी? निर्णय के अनुसार न्यायालय को डील प्रक्रिया में ऐसी कोई खामी या कमी नज़र नही आई है जिसके आधार पर समीक्षा की जाए अगर कोई बारीक बिंदु फिर भी भिन्नता वाला है तो न्यायालय की समीक्षा जरूरत नहीं है। सरकार ने 126 की जगह 36 विमानों की खरीद का निर्णय क्यों लिया, न्यायालय को इससे कोई सरोकार नहीं है।
एक बड़ा विवाद इन एयरक्राफ्ट की कीमतों उसके रखरखाव की लागत को लेकर भी है। आरोप है कि ऐसा इसलिए हुआ है ताकि एक लगभग दिवालिया हो चुके उद्योगपति को फायदा पहुचाया जा सके। क्या न्यायालय ने इस पर कोई क्लीनचिट दी है? फैसले में न्यायालय ने साफ कहा है कि " यह कहना पर्याप्त होगा  कि सरकारी दस्तावेजों में दावा किया गया है कि 36 एयरक्राफ्ट की खरीद में व्यावसायिक लाभ है रखरखाव और पैकेज की शर्तें भी बेहतर है, लेकिन सरकारी दावों के अनुसंधान या विश्लेषण करने का कार्य न्यायालय का नहीं है। हम इसलिए भी नहीं करेंगे क्योंकि इस मामले को गोपनीय रखना भी जरुरी है।" साफ है न्यायालय ने क़ीमतों को लेकर किसी को क्लीनचिट नहीं दी है लेकिन इसी गोपनीयता के चलते इंडिया में सबसे ज्यादा गबन और घपलेबाजी रक्षा सौदों में होने की आशंका बेहद मजबूत होती है। आप खुद तय कीजिए कि अब तक देश के रक्षा सौदों में खरीदी गई सामग्री कितनी काम मे पाई है?
तो फैसले में न्यायालय ने सरकारी दावों की पुष्टि की है नकारा है! फिर कैसा फैसला? सर्वोच्च न्यायालय:फैसला एक, अर्थ अनेक! क्या सब कुछ करना सरकार की एजुकेटिव ब्रांच का काम है? अगर हां तो कौन नौकर अपने मालिक के खिलाफ बोलने का साहस रखता है ? बात सोचनीय है कि हिंदुस्तान में अब तक किसी भी नौकर द्वारा अपने मालिक के खिलाफ बोलने की हिम्मत हुई है या हिम्मत जुटाई है? इसलिए यह तय है कि इस पूरे प्रकरण में  सुप्रीम कोर्ट कुछ नहीं बोलना चाहता है सरकार की एग्जीक्यूटिव शाखाएं भी इस बारे में कुछ नहीं बोलना चाहती हैं और सक्षम है। सरकार गोपनीयता के आधार पर इस मामले को भी केवल ठंडे बस्ते में डालने का पूरा प्रबंध करने के मूड में है और अंतत:करेगी भी क्योंकि जो लोग आरोप लगा रहे हैं वह भी इस तरह के मामले की तह तक जाने का प्रयास नहीं करते हैं और क्षम होते हैं। क्योंकि गोपनीयता के चलते उनके पास पर्याप्त मात्रा में ऐसे सबूत नहीं हो सकते है जिनकी बदौलत किसी निष्कर्ष पर पहुंच कर कोई दावा कर सकें। तोपों का घोटाला हो या ताबूत घोटाला हो या फिर मिग विमान की खरीद-फरोख्त हो सभी रक्षा मामलों में परिणाम उनको ठंडे बस्ते में डाल कर धीरे धीरे भुला देना ही होता है।  वैसा ही इसमें होगा लेकिन यह तय है कि देश में रक्षा सामग्री पर किया गया खर्च देश के उतना काम नहीं आता जितना हम डर के मारे इस खरीद-फरोख्त को करते हैं। अपने देश के बजट का एक बहुत बड़ा हिस्सा रक्षा के नाम पर अनु उत्पादक कार्यों में खरीद कर कर देते हैं, परिणाम देश का विकास नहीं हो पाता और इस खरीदफरोख्त की आड़ में आतंक का जन्म होता है और  कालाबाजारी और गबन से देश के दुश्मनों को धन कमाने का मौका मिल जाता है।  इंकलाब जिंदाबाद

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