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Friday 6 July 2018

अन्याय और शोषण की इंतिहा...

डाॅ. नीरज मील
               


      ये कहानी सिर्फ भाजपा की नहीं है बल्कि अब तक बनी सभी सरकारों की है जिसमें भाजपा, कांग्रेस और अन्य सभी राजनैतिक दल शामिल हैं। देश में लाखों की तादाद में संविदा कार्मिक विभिन्न विभागों में करीब 2 दशकों से कार्यरत हैं। आज देश के लगभग सभी राज्यों में मनरेगा, एनएचएम, शिक्षामित्र आदि स्कीमों में संविदा पर भर्ती किये जाते हैं जिन्हें दस साल, पन्द्रह साल या बीस सालों तक अल्पमानदेय पर काम में लेकर बाहर फैंक दिया जाता है। इतने सालों बाद काम करने के बाद ये लोग सचिवालयों और मंत्रालयों के बाहर धरना-प्रदर्षन करते देखे जा सकते हैं। कई बार तो अदालतों में केस जीतकर भी ये अपनी स्थायी नियुक्ति नहीं करा पाते।कई बार देश में न्याय का स्थान कहे जाने वाले न्यायालयों में भी बहुत से फैसले समझ से बाहर है।   अदालतों में हार जाने पर न्यायालय के फैसले की आड़ में इनकी सुनवाई बन्द कर दी जाती है। ऐसे में सरकार की नीति और अदालती फैसलों की त्वरीत और सख़्त जरूरत है। लाखों की तादाद और राष्ट्रीय स्तर का मुद्दा है संविदाकार्मिकों का स्थायीकरण। बावजूद इसके यह मुद्दा तो कभी राष्ट्रीय स्तर पर किसी टीवी न्यूज वालों ने डीबेट के माध्यम से उठाया है और स्थानीय स्तर पर किसी पत्रकार ने राज्य या केन्द्र सरकार ने इस बाबत कोइ सवाल किया है। इंतिहा की हद तो तब हो जाती है जब इनकी हड़ताल और प्रदर्शन को 100 दिन होने के बावजूद किसी न्यूज चैनल और ही किसी अखबार में इस मुद्दे को जगह मिल पाती है।

                संख्या और विस्तृत क्षेत्र के हिसाब से ये मुद्दा बड़ा ही गम्भीर है लेकिन विडम्बना ही है कि इनके समाधान का कोई अता-पता नहीं है। पिछले 10 सालों में ये कार्मिक कितने प्रदर्शन कर चुके हैं हिसाब लगाना मुष्किल है। इतने प्रदर्शन और आन्दोलनों के बावजूद भी सरकारों द्वारा कोई फैसला लेना आश्चर्यजनक और अलोकतान्त्रिक है। इन कार्मिकों की संविदा नियुक्ति 5000 से 7500 के विभिन्न  वर्गों में 2005 से हुई है। तब यह कार्यक्रम अस्थाई थे लेकिन उसके बाद ये सारे कार्यक्रम स्थाई हो गए। 13 सालों तक अल्प मानदेय पर कार्य करने के भी कार्मिक स्थाई नहीं हो पाये। आज इनकी संविदा कार्मिकों कुल संख्या एक आंकलन के मुताबिक पूरे देश में 15 लाख से उपर है। इतनी बड़ी संख्या में इस मुददे पर संबन्धित होने के बाद कोई मुद्दा छोटा और सामान्य नहीं रह जाता। लेकिन विडम्बना ही है कि इस मुद्दे का क्या हल निकलेगा किसी को पत्ता नहीं है और कब निकलेगा कोई नहीं बता सकता। जब इनको साढ़े चार हजार के अल्प मानदेय पर इनको रखा गया तब ये क्यों नहीं सोचा गया कि इनके भविष्य का क्या होगा? ऐसा नहीं है कि ये अयोग्य हैं। इनकों एक स्वस्थ चयन पद्धति द्वारा रखा गया था, आरक्षण की भी चयन में उचित व्यवस्था रखी गयी थी। अब जबकि ये 13 सालों के सरकारी महकमों में अपनी सेवाएं देते हुए एक अच्छा अनुभव हासिल कर चुके हैं और अपनी सेवाएं भी बदस्तूर दे रहे हैं तो इनको संविदा पर रखकर न्यून मानदेय पर काम करवाने को सरकार उचित कैसे मान सकती है, समझ से बाहर है।
                इनमें सभी संविदाकार्मिक साधारण घरों से आते हैं। अब लम्बे समय से अल्प मानदेय पर काम करते हुए कंठित होने लग गये हैं। अल्प मानदेय और भारी भरकम कार्य की बदौलत कार्मिक अवसाद के शिकार हा रहे हैं। इसी अवसाद कभी कोई आत्महत्या कर रहा है तो कोई अन्य अनैतिक कार्यों में संलग्न हो रहे है या फिर अवसाद से असामान्य मौत का शिकार भी हो रहे हैं। कई कार्मिक कैंसर जैसी गम्भीर बिमारी ग्रसित हो जाते हैं और इलाज के अभाव में अकाल मौत का शिकार भी हो जाते हैं। मानदेय की अल्पता का आलम इतना गम्भीर है कि अपने परिवार के लिए एक माह का भोजन का प्रबन्ध भी नहीं हो पाता, बच्चों की शिक्षा का प्रबन्ध तो दूर की कौड़ी साबित होती है। यहां यह सोचने वाली बात है कि एक तो अल्प मानदेय जिसको शब्दों या अंकों में बयां करने में भी शर्म आती है और वो भी नियमित मिले तो क्या गुजरती होगी। मानदेय में 3-4 महिनों की लेटलतीफी तो सामान्य बात मानी जाती है। यूपी में 2 जून हापुर के एक शिक्षामित्र की मौत इसी बानकी को बयां करने वाली है। देश में ऐसा कोई राज्य नहीं जो इन संविदाकार्मिकों की समस्या से वाकिफ़ हो। इनकी समस्याओं के समाधान के लिए भाजपा-कांग्रेस अन्य सभी दलों के विधायकों ने अभिशंषा पत्र भी लिखे हैं लेकिन जनप्रतिनिधियों के ऐसे पत्रों का इस देश में कोई मोल नहीं है साबित हो चुका है। कई विधायक तो इस तरह के जो विपक्ष में रहतें हुए संविदा कार्मिकों के स्थाईकरण के लिए सरकार को पुरजोर तरीके से लिखते है लेकिन वही विधायक सरकार में आकर मंत्री बनते ही अपनी ही लेखनी से मुकर जाता है। ऐसे में लिखने और कहने कुछ शेष नहीं रह जाता है क्योंकि जोश तो नासमझी में ही आता है। राजस्थान सहित देश के कई राज्यों के विगत विधानसभा चुनावों में भारतीय जनता पार्टी अपने घोषण पत्र में भी इन संविदा कार्मिकों के स्थायीकरण की पैरवी करते हुए वायदा करती 3 से 6 माह में स्थाईकरण का लेकिन चुनाव जीतने के बाद ये वादे ऐसे गायब हो जाते है जैसे गधे की सिर से सींग।
                इन संविदाकार्मिकों में अधिकतर नौजवान हैं और जब नौजवान के साथ लगातार अन्याय शोषण होता है तो उसका प्रतिशोध की तरफ आकर्षित होना स्वभाविक हैं। अकेले उत्तर प्रदेश में करीब छः सौ से ज्यादा शिक्षा मित्रों की अवसाद के चलते विभिन्न कारणों मौत और आत्महत्या की ख़बर वाकई डराने वाली तो है ही साथ ही देश के लोकतन्त्र की संवेदनशीलता को समीक्षा करने के लिए बल देने वाला भी है। एक कहावत है मरता क्या करता? ऐसे में जब संवेदनशीलता शून्य को प्राप्त हो रही हो और अगर कोई आहत व्यक्ति को आकर कहे कि इस अन्याय के खिलाफ आवाज के साथ-साथ हथियार उठाओं तो हथियार भी उठा सकते हैं और माववादियों के पदचिन्हों पर चल सकते हैं। इससे केवल हमारा सामाजिक तानाबाना बिखरेगा बल्कि देश की आन्तरिक सुरक्षा और अखण्डता के लिए भी खतरनाक है। इसलिए समय रहते हुए संविदा कार्मिकों की सुध ले ही लेनी चाहिए।
                दस लाख लोगों की नौकरी, पगार और जिन्दगी का फैसला राम भरोसे या किसी कमेटी के भरोसे नहीं छोड़ा जा सकता है। देश के राज्यों के मुख्यमंत्रियों को इस दिशा अब केवल सोचने से काम नहीं चलेगा। अब इन कार्मिकों के स्थाईकरण के लिए अधिकतम 3 माह में सख़्त मेहनत करते हुए फैसला कर स्थाई करने के लिए कार्य करना होगा। सरकार को पैसे का रोना नहीं रोना चाहिए क्योंकि आज तक इन संविदा कार्मिकों ता पीएफ दिया और ग्रेच्युटी और ही कोई बीमा इत्यादि। ऐसे में आप सोचिए एक कार्मिक को सिर्फ 5000 रूपये मासिक में 15 सालों तक काम करवाकर कितना रूपया बचा लिया है। मोटे अनुमान के आधार पर सरकार द्वारा प्रति कार्मिक 35 से 40 लाख रूपये बचा लिए हैं इस पर सालाना अर्जित ब्याज अलग है। इस कोष से इन्हीं संविदा कार्मिकों को अगले 12 सालों तक पूरा वेतन दिया जा सकता है। दूसरा जब सात सौ बाइस लाख तिरपन हजार की राशि केवल प्रधान सेवक की एक सभा में भीड़ जमा करने की चाकरी के लिए राज कोष से उड़ाई जा सकती है तो फिर संविदा कार्मिक तो जनता का ही एक भाग है इन्हें क्यों नही दी जा सकती? अगर यही हाल जनता का बदस्तूर जारी रहा तो 2019 में मोदी आयेगा और ही किसी राज्य में भाजपा की सरकार। लेकिन भूतकालीन प्रवृतियां का विश्लेष्ण यही कहते हैं कि भाजपा नेतृत्व में बनने वाली सरकारें निष्ठुर होती है जिन्हें या तो केवल 5 साल ही राज करना होता है या इनमें इससे ज्यादा क्षमता होती ही नहीं है। जो भी हो लेकिन  संविदा पर कार्मिकों को 10 से 15 साल तक अल्प मानदेय पर नौकरी करवाकर बाहर फैंक देना  सरकार द्वारा ब्यूरोक्रेट्स के माध्यम से बर्बरतापूर्वक किये गए अन्याय और शोषण की इंतिहा ही है.......इंक़लाब ज़िन्दाबाद।

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