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Thursday 5 July 2018

रूपये की कमजोरी पर आशंका

डॉ. नीरज मील


रुपया देश की मुद्रा कम नेताओं का चरित्र का आईना ज्यादा चरितार्थ हो रहा है. रूपये  का गिरना  फैशन बन गया है जिससे जनता परेशान नज़र रही है और ही सरकार। रूपये की गिरावट  नज़रअंदाज किया जाने  जैसे व्हॉट्स ऐप्प के गुड मॉर्निंग मैसेज को किया जाता है। अब हर कर कोई ये मानने लगा है कि गुड मॉर्निंग मैसेज तो आएंगे ही वैसे ही सरकार भी ये मानने लगी है कि रुपया तो गिरेगा ही। जिस तरह से लाख कोशिशों और कहा-सूनी के बाद भी गुड मॉर्निंग मैसेज तो कोई कोई सरका ही जाता है और हम भी उसके प्रति इतने गंभीर नहीं होते। लेकिन रूपये की गिरावट को लेकर तो सरकार जरा भी चिंतित नजर नहीं रही है। क्या सरकार भी हार मान चुकी है? क्या सरकार भी स्वीकार कर चुकी है कि वो मौद्रिक प्रबंध और मुद्रा में इस गिरावट को रोकने में नाकाम हो चुकी है। इस तरह के तमाम प्रकार के प्रश्नों के जवाब हां ही ज़ाहिर हो रहे हैं  लेकिन क्या इसके लिए भारत में केवल सत्तारूढ़ दल की सरकार को ज़िम्मेदार ठहराना जायज है जबकि भारतीय लोकतंत्र में सत्तारूढ़ पक्ष  में विपक्ष के किसी भी हस्तक्षेप की अनुमति  है!
अंतर्राष्ट्रीय बाज़ार में डॉलर के मुकाबले रूपये की कीमत का गिरना बाह्य घटकों से कहीं ज्यादा देश की सरकार के कुप्रबंध की वजह से आंतरिक घटकों और उससे भी ज्यादा राजनीतिक कारणों से ज्यादा प्रभावित है। आप खुद विश्लेषण कर देखे कि जो दल देश में विपक्ष की भूमिका अदा करता है वो किस कद्र खुद मुद्दों को संजीदगी से पेश करता है सत्ता में आते ही अपना रंग गिरगिट की माफ़िक बदल लेता है। प्रसंगवश लिखना चाहूंगा कि आज जब रुपया एक डॉलर के मुकाबले 69.10 के पार चले जाने एवं उसी विचारधारा वाले दल की सरकार होने के बावजूद भी कोई प्रतिक्रिया देखने को न मिले तो न केवल हैरानी वाली बात होती है बल्कि ऐसे व्यक्तियों के चरित्र को भी बेपर्दा करने वाली होती है। चुनावों के मध्यनज़र मई 2009 में मनमोहन सरकार ने मार्च से अप्रेल यानी केवल 3 माह के अल्प काल में अपने अर्थशास्त्र का जबरदस्त उपयोग करते हुए रूपये की स्थिति में तेजी से सुधार किया गया। मार्च 2009 में डॉलर के मुकाबले रुपया 51.97 था जिसे मई में चुनावों से ठीक पहले 49 रूपये75 पैसे पर लाया गया जिसका चुनावों में फायदा भी हुआ। यह असर दिसम्बर तक रहा और रुपया 46 रूपये 86 पैसे पर आ गया। जो जानबूझकर किये गए कुप्रबंध के आक्षेप को बल प्रदान करता है। ठीक इसी प्रकार मनमोहन सरकार ने  26 मई 2014 को भाजपा नेतृत्व में भारत सरकार बनने से ठीक पहले जनवरी से अप्रेल यानी केवल 4 माह में रूपये की स्थिति में तेजी से सुधार किया गया। यहाँ रुपया डॉलर के मुकाबले काफी कमजोर था और विनिमय दर एक डॉलर के बदले जहाँ जनवरी 2014 में 63.10 रूपये थी जिसे मई 2014 में 60.27 पर लाते हुए करते हुए जनता को आकर्षित करने का प्रयास किया गया हालांकि कांग्रेस के इस अर्थशास्त्री को देश की जनता ने नकार दिया।
अब बात करते हैं रूपये की उस स्थिति के बारे में जो सरकार बनते ही परिवर्तित होती है। पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार ने मनमोहन सिंह को डॉलर के मुकाबले रूपये की स्थिति 43 रूपये और 75 पैसों पर सौंपी थी जिसे मनमोहन जी ने एक साल बाद बढ़ाना शुरू किया और 2005 के दिसंबर माह में 46 रूपये 26 पैसे पर पहुंचा दिया। इसके बाद लगातार वृद्धि करते हुए रूपये को 2014 की मार्च तक 51 रूपये 97 पैसे तक पंहुचा दिया गया। यही कार्य वर्तमान में भाजपा की अच्छे दिनों का वादा करने वाली मोदी सरकार कर रही है। मोदी सरकार बनने के समय एक डॉलर के बदले 60 रूपये 27 पैसे थी जिसे लगातार बढ़ाते हुए मात्र 4 सालों बाद 68 रूपये 86 पैसों पर लाकर खड़ा कर दिया है। स्पष्ट है कि रूपये का राजनीतिक इस्तेमाल भी बेजां हो रहा है।
28 जून को रूपये में ऐतिहासिक गिरावट दर्ज़ की गयी। रुपया एक डॉलर के मुकाबले 69 रूपये और 9 पैसे पर आ गया जो अब तक का सबसे ऊंचा स्तर है। पाउंडस्टरलिंगलाइव डॉट कॉम के मुताबिक़ 28 अगस्त 2013 में रूपये की कीमत 68 रूपये 80 पैसे के करीब पहुंच गया था तब जो वर्तमान में भारतीय जनता पार्टी की सरकार है उसी के नेता अपने-अपने हिसाब से रूपये की गिरावट पर सरकार को कोस रहे थे और प्रधानमंत्री निशाना बना रहे थे मुझे याद है 29 अगस्त 2013 को वर्तमान वित्त मंत्री श्री अरुण जेटली जो फिलहाल के लिए स्वास्थ्य लाभ ले रहे हैं का वो वक्तव्य जो उन्होंने भारत की संसद से दिया था। उसमें उन्होंने कहा था कि "रूपये का इस कद्र गिरना वास्तव में पीड़ादायक है, प्रधानमंत्री सर्वेसर्वा हैं लेकिन कोई मुद्दा प्रधानमंत्री  के पास जाकर ख़त्म नहीं हो जाता है। चूँकि प्रधानमंत्री इस विशेष मुद्दे पर  इतने दिनों से चुप रहे हैं और मुझे विश्वास है कि वह इस मुद्दे के समाधान के लिए सबसे उचित व्यक्ति हैं, इस लिए उन्हें चाहिए कि वे इस सभा को और देश को विश्वास में ले कि वह देश को इस समस्या से उबारने के लिए क्या कदम उठाने जा रहे हैं। यदि माननीय सदस्यगण स्पष्टीकरण चाहते हैं या अपनी राय देना चाहते हैं तो उन्हें इस हेतु अनुमति दी जानी चाहिए। महोदय, मेरा एक सुझाव है कि यह एक भयावह स्थिति है और इसलिए देश आर्थिक सिद्धांतों पर सिर्फ व्याख्यान नहीं चाहता है बल्कि देश माननीय प्रधानमंत्री से यह जानना चाहता है कि इस स्थिति में सुधार लाने के लिए क्या योजना बना रहे हैं?" अब आप ही सोचिए क्या श्री अरुण जेटली का ये वक्तव्य चिंता जाहिर करने वाला था या राजनीति में विपक्ष की महत्वकांक्षा! क्या जो जिम्मेदारी अगस्त 2013 में प्रधानमंत्री की बन रही थी वो ही अब है? क्या 68 से 69 पर आना रूपये का अब आनंद देने वाला हो गया है?
देश तो वर्तमान में भी जानना चाहता है कि क्या रूपये का गिरना देश की अर्थव्यवस्था के लिए अच्छा संकेत है? रूपये की कीमत में इतनी गिरावट क्यों आयी? क्यों दो अन्य देशो की आपसी लड़ाई का असर देश पर हो रहा है? भारत की अर्थव्यवस्था में कितना सुधार हुआ है? लोकतंत्र में ऐसे हज़ारों सवाल हैं जो देश के उद्भव से लेकर आज तक मुँह बाये खड़े हैं लेकिन जवाब एक का भी नहीं मिलता। संसद में ऊँची आवाज में विपक्ष के सदस्य मांग करते हैं कि प्रधानमंत्री जवाब दे लेकिन प्रधानमंत्री हमेशा चुप्पी साध लेते हैं। ये चुप्पी बताती है कि सत्ता आने से वाकई समझदारी आ जाती है। देश को प्रधानमंत्री का जवाब न 2013 में मिलता है और न  ही 2018 में। यह नजरअंदाजगी देश के लिए कितनी खतरनाक है ये तो आने वाला वक्त ही बताएगा लेकिन इस बीच रुपए की कीमत के राजनीतिक इस्तेमाल और प्रभाव की संभावनाओं से इनकार नहीं किया जा सकता। अगर ऐसा हुआ तो निश्चित ही  देश के लिए न केवल खतरनाक है बल्कि आर्थिक गुलामी वाली भी है। ये चुप्पी अपनी कमजोरी को छुपाने के लिए भी जरुरी होती है। देश की राजनीती कब किस मसले को खुद के लिए अवसर बना लेती है और कब उसे छोड़ देती है ये आम जनता के जब तक समझ में आता है तब तक राजनीतिक लाभ ले लिया जाता है और जनता हमेशा की तरह ठगी जाती है। स्पष्ट है कि  रूपये का गिरना देश की अर्थव्यवस्था से ज्यादा देश की राजनीती और नेताओं के भविष्य को संवारने-बिगाड़ने में ज्यादा असरकारक है।
निष्कर्ष में सुझाव न निकले तो वो निष्कर्ष निश्चित ही देशविरोधी होता है इसिलिए मेरे निष्कर्ष में सुझाव जरूर निकलते हैं ये अलग बात है कि देश की सरकार को वे नज़र आएं या न आएं। सुझाव के तौर पर मैं लिखना चाहूंगा कि देश को सूचना और प्रौद्योगिकी के इस्तेमाल में चीन की नीति का अनुसरण करना चाहिए और पायरेसी को हरी झंडी दे देनी चाहिए। इसका सीधा-सीधा प्रभाव ये होगा कि सालाना करीब 70  बिलियन रूपये के बदले कम डॉलर चाहिए होगा। ये एकमात्र उपाय नहीं है इसके आलावा कोयले जिसके आयत के लिए देश लगातार एक बड़ी डॉलर की खेंप अदा करता है को भी काम करके अपने प्राकृतिक संसाधनों से विदोहन करके इस मांग को पूरी करे तो भी साललना करीब 22 हज़ार करोड़ डॉलर की आवश्यकता को काम कर सकते हैं। भुगतान संतुलन को दुरस्त करने के लिए भी भण्डारण जैसी तकनीकें  चाहिए और भुगतान पद्धतियों को दुरस्त करना चाहिए। कृषि पर ध्यान देकर आयात होने वाले कृषि उत्पादों के आयात को कम किया जा सकता है। स्पष्ट है कि बेवजह के आयातों पर लगाम लगेगी तो रूपये में मजबूती तय है। चोर गलियों को बंद कर देना चाहिए और देश में नैतिक शिक्षा की ओर ध्यान देना चाहिए।उम्मीद काम ही है उक्त कार्यों  होने  की लेकिन क्या करें? हिन्दुस्तान के ही शैदा है तो फितरत तो जुदा हो नहीं सकती।  .......इंक़लाब ज़िंदाबाद।
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