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Sunday 17 November 2019

राजस्थान में विवाह की एक बेहतरीन तस्वीर

विवाह मानव-समाज की अत्यंत महत्वपूर्ण समाजशास्त्रीय संस्था (Institution of society) है। यह समाज का निर्माण करने वाली सबसे छोटी इकाई जिसे हम परिवार कहते हैं, उसका मूल है। यह मानव प्रजाति के सातत्य (continuity ) को बनाए रखने का प्रधान जीवशास्त्रीय माध्यम ( Biological medium ) भी है।


पाणिग्रहण संस्कार का महत्त्व

पाणिग्रहण संस्कार को सामान्य रूप से हिंदू विवाह के नाम से जाना जाता है। हिंदू धर्म शास्त्रों में मानव जीवन के गर्भाधान से लेकर अंत्येष्टि तक जो सोलह संस्कार बताए गए हैं, उनमें विवाह संस्कार ‘त्रयोदश संस्कार’ ( 13 वां ) है। ये जो शब्द 'विवाह = वि + वाह' है, इसका शाब्दिक अर्थ है – विशेष रूप से ( जिम्मेदारी/उत्तरदायित्व का ) वहन करना। विवाह पति और पत्नी के बीच जन्म-जन्मांतरों का सम्बंध माना गया है, जिसमें अग्नि के सम्मुख सात फेरे लेकर और ध्रुव तारे को साक्षी मान कर दो तन, मन तथा आत्मा एक पवित्र बंधन में बंध जाते हैं।

विवाह को गृहस्थी का मेरुदण्ड मानते हुए ही यह कहा गया है ‘धन्यो गृहस्थाश्रमः’। तात्पर्य यह है कि सद्गृहस्थ ही समाज के विकास में सहायक होते हैं तथा वे ही उत्तरोत्तर श्रेष्ठ नई पीढ़ी का सृजन करने का भी कार्य करते हैं।

स्त्री और पुरुष दोनों में अपनी-अपनी अपूणर्ताएँ हैं। अपेक्षा की जाती है कि विवाह के जरिए सम्मिलन से पति-पत्नी एक-दूसरे की अपूर्णताओं को अपनी विशेषताओं से पूर्ण कर समाज में एक समग्र व्यक्तित्व का उदहारण प्रस्तुत करें।

हर अंचल व जात-बिरादरी की वैवाहिक रस्में तथा अन्‍य रीति-रिवाज भिन्‍न-भिन्‍न हैं। ये रस्में, रीति-रिवाज और परम्‍पराएं उस अंचल व जात-बिरादरी की पृथक पहचान को रेखांकित करती हैं। इन रस्मों को पूरी करते समय गाए जाने वाले गीतों की शब्दावली में भी कुछ भिन्नता है। इलाक़े की बोली के हिसाब से शब्द-रूपांतरण होना लाज़िम है। भाषान्तर हो सकता है पर भाव के स्तर पर प्रायः एकरूपता पाई जाती है।

यह स्पष्ट कर दूँ कि मैं यहाँ पर जिन वैवाहिक रस्मों की रूपरेखा प्रस्तुत कर रहा हूँ और उन्हें पूरा करते समय जो गीत गाए जाते हैं, वे मेरे गाँव मेघसर व आसापस के गाँवों (जिला-चूरू) में खेतिहर-मजदूर बिरादरी से सम्बंधित है। बात भी 'तब' की कर रहा हूँ। वो ही बीते सालों की। ख़ासतौर से सन 1980 से पहले की।

रिश्ते में हैसियत का आंकलन

'तब' रिश्ते पितवाणे या परखे हुए (tested) परिवार से ही करने की परंपरा थी। इसलिए विवाह के रिश्ते अक़्सर रिश्तेदारियों में और संयुक्त परिवार की परिपाटी में बंधे परिवारों में करने को प्राथमिकता दी जाती थी। लड़की जिस घर में परणाई (विवाह करना) जाने का विचार किया जाता था उसकी हैसियत व ज़ायदाद का आंकलन करने के लिए आमतौर पर ये प्रश्न पूछे जाते थे या इनके बारे में जानकारी जुटाई जाती थी: " खेती के लिए कितनी बीघा जमीन है? घर में पशुधन में क्या-क्या है? भाई-बंधुओं में आपसी तालमेल कैसा है? लड़का या लड़की घर-बार व खेती-बाड़ी के काम करने में सक्षम है या नहीं?" कहा भी यही जाता था कि बिन खेत और बिन धीणा (दुधारू पशु) लडक़ी खाएगी क्या? जीवन की गाड़ी को ठेलते रखने की उम्मीद का सहारा भी तो 'तब' ये ही थे।

'तब' बचपन से ही बोझा ढोने में पारंगत होने के कारण अगर कोई संबंध बोझ भी बन जाता था तो भी उसे ढोते रहते थे, निभा डालते थे। कमाल की जीवटता और समझ के धनी थे। कहते भी थे कि 'जो बिंध गया सो मोती'। रिश्ते की डोर से जो बिंध (पिरोया गया) गया उसकी मोती की मानिंद क़दर करो, चाहे कंकड़ भी क्यों न हो। मनचाही मुराद पूरी नहीं होने के बावज़ूद भी रिश्तों को जात-बिरादरी का काण-कायदा (सम्मान) रखते हुए निभाते थे। रिश्तों की गहरी समझ रखते थे वे। इसलिए बात कुछ बिगड़ जाती थी तो उसे तत्काल संभाल लेते थे। बात का बतंगड़ बनाने से बचते थे।

नेगचार (परंपरागत विवाह की रस्में)

रंगीले राजस्थान में वैवाहिक रीति-रिवाजों का रंग-ढंग कुछ निराला है। ढेर सारी रस्में उत्साहपूर्वक निभाई जाती हैं। कुछ रस्में विवाह से पहले शुरू हो जाती हैं और विवाह के बाद तक चलती हैं। 

विवाह से सम्बंधित रीति-रिवाज अत्यंत प्रतीकात्मक हैं और उनमें कृषि आधारित जीवनप्रणाली के अनेक बिंब देखने को मिलते हैं क्योंकि उस बीते दौर में कृषि ही ग्रामीण राजस्थान की आजीविका का मुख्य साधन था। वर्षात के पुनरुद्धारक सामर्थ्य (regenerative power) का भरपूर ज़िक्र विवाह के गीतों में देखने को मिलता है। चौमासे(वर्षा ऋतु), कृषि-कर्म और पशु-धन का बार-बार उल्लेख इन गीतों में किया गया है। 

राजस्थान में वैवाहिक रीति- रिवाज़ आर्य और अनार्य दोनों परंपराओं का समिश्रण हैं। अनार्य मूल के रीति-रिवाजों में ब्राह्मण की आवश्यकता नहीं रहती जैसे चाक-पूजना, मुगदणा, तोरण मारना आदि। कुछ परम्पराएं मानव सभ्यता और क्रमिक विकास को भी प्रतिबिंबित करती हैं जैसे चाक-पूजना जो चक्का के आविष्कार और मटका निर्माण तथा पानी संग्रहण की महत्ता की याद दिलाते हैं।

वैवाहिक परंपराओं का संबंध इतिहास और शाही परंपराओं से भी है। बान बैठने के बाद लड़का बनड़ा कहलाता है जिसका अर्थ होता है कि वह राजकुमार के रूप में है। उसकी बड़ी आव-भगत होती है और उसे पोष्टिक पकवान खिलाये जाते हैं। दूल्हा बनने पर वह बीन-राजा कहलाता है तब वह राजा के रूप में होता है। दुल्हन लाने का अर्थ है कि वह दूसरे राज्य की राजकुमारी को जीत कर ले आया है। दुल्हन वाले दूल्हे की बारात के सामने पड़जान लेकर कांकड़ तक आते थे जो राज्य की सीमा का प्रतीक थी। उस समय गीत गाया जाता था ...कांकड़ निरखन आयो राज... बारात द्वारा कांकड़ पर रुक कर पूजा की जाती थी कि हम सही-सलामत लौट आयें।

बारात लौटते समय-दूल्हा-दुल्हन दूल्हे की कांकड़ को पूजते थे और ग्राम-देवता को धन्यवाद देते थे। चंदवा लगाना भी राजशाही परंपरा है क्योंकि राजा हमेशा छतरी में ही चलता था। इसी तरह दूल्हे की ड्रेस एक राजा की तरह ही होती थी। सिर पर कलंगी, पगड़ी, कोट और कटार या तलवार ये राजा के रूप में धारण किया जाता था। ऊँटों पर सजी बारात सेना के रूप में होती थी। मांडा रोपना नया राज्य प्रारंभ करने का प्रतीक है।

सगाई: इसे सगापण, संबंध, मगनी या रिश्ता तय करना भी कहते हैं। हिन्दू धर्म मानने वाली प्रायः सभी जातियों में सम गोत्र में सगाई नहीं करने और सगाई तय करते समय चार गोत्र क्रमश: मां, बाप, दादी तथा नानी की गोत्रों को टालने का रिवाज़ है।

'तब' लड़के-लड़कियों की सगाई प्राय: छोटी उम्र में ही तय कर दी जाती थी। रिश्‍ते की बात परिजनों व सगे- संबंधियों के जरिये शुरू करवाई जाती थी। बड़े-बुजुर्ग ही सगाई तय कर देते थे। लड़के-लड़की से पूछने व उनकी रजामंदी लेने की ज़रूरत नहीं समझी जाती थी। कुछ ऐसे मामले भी होते थे जिसमें कोख़ में पल रही संतान की जन्म से पहले ही सगाई सशर्त तय हो जाती थी।

सगाई की रस्म: सगाई की बात तय होने पर कन्या/ लड़की को शगुन का एक रुपया तथा 'खोपरा'  दिया जाता था। दोनों पक्षों के परिवार के बुज़ुर्ग व नजदीकी रिश्तेदार तय दिन एक-दूसरे के घर जाकर चावल खा लेते थे और इसका मतलब दोनों ओर से सगाई की बात पक्की। लड़की के परिवार वाले लड़के के दादा-पिता-मामा आदि को कम्बल ओढ़ाकर अपने सामर्थ्य के अनुसार 5/ 11/ 21 रुपये देकर उनका सम्मान कर देते थे।

ब्याव माण्डना: विवाह की तिथि तय करना - वर्तमान में कानूनी रूप से विवाह हेतु लड़की की उम्र 18 वर्ष और लड़के की उम्र 21 वर्ष निर्धारित है पर 'तब' लड़के-लड़कियों का विवाह अल्पायु में ही कर दिया जाता था। सामाज इसकी संस्तुति देता था और ये रीत भी थी।

लड़के-लड़की के परिजन अपनी सहूलियत और आपसी रजामंदी से खेती व सर्दी की रुत को टालते हुए खेती का पूरा काम सलट जाने के बाद विवाह की कोई तिथि तय कर लेते थे, जो कि अक्सर होली (मार्च) के बाद से जून माह तक की अवधि में होती थी। गाँव में शादी की सीज़न के रूप में यही अवधि सर्व स्वीकार्य होती थी। आखातीज (अक्षय तृतीया) का खेती-किसानी में ख़ास महत्व होने के कारण इसे अबूझ सावा (विवाह का मुहूर्त) मानते थे। इस दिन हर गांव-बस्ती में शादियों की भरमार होती थी।

'तब' गाँववासी जन्मपत्री मिलाने, ग्रह-नक्षत्र की दशा देखने व शुभ मुहूर्त निकलवाने के पचड़े में नहीं पड़ते थे। गाँवों में ये सब चोंचलेबाजी और 'अफण्ड' देखा-देखी नकलची बनने की होड़ में शामिल होने के बाद से शुरू हुए हैं। विवाह की तिथि तय करने से पहले अगर गाँव या आसपास के गाँव के पंडित से सम्पर्क भी करते थे तो वह मामूली पढ़ा-लिखा होने के कारण प्रपंच से परहेज़ करते हुए लड़के-लड़की के परिवार की सहूलियत के हिसाब से विकल्प सहित कुछ तिथियां सुझा देता था।

पीला चावल: सगे-संबंधियों और भायलों (मित्रों) को विवाह का औपचारिक निमंत्रण देने हेतु पीला चावल (हल्दी के पीले रंग से रंगे चावल) देकर किया जाता था। माटी के ढेले पर मौळी लपेटकर उसे गणेश जी मान लिया जाता है या फिर दीवार पर रोळी से गणेश जी का सातिया/चिह्न बनाकर पहला निमंत्रण गणेश जी को देने का रिवाज़ था।

भात नूतणां : लाडेसर (बेटे-बेटी ) के वैवाहिक-सूत्र में बंधने की तय तिथि से लगभग सप्ताह-दो सप्ताह पहले लाडेसर की मां अपने पीहर जाकर भाई-भतीजों और कुटुम्ब-कबीले को विवाह के अवसर पर उपस्थित होकर सहयोग प्रदान करने का न्यौता देती है।

विवाह के लोक गीत : विवाह के रीति-रिवाज निभाते समय गाए जाने वाले कुछ ही लोक गीतों को भी इस आलेख में समाविष्ट कर रहा हूँ ताकि बीते कल (yesteryear) के लोक के मन की थाह ली जा सके। इनमें उनकी आशाएं, आकांक्षाएं, आशंकाएं पढ़ी जा सकती हैं। बस, ये सब पढ़ना जानने वाला होना चाहिए।

लोक गीतों को संस्कृति का सुखद संदेश प्रवाहित करने वाली कला माना जाता है। लोक गीत राजस्थानी संस्कृति के अभिन्न अंग हैं। विवाह की रस्में सम्पन्न करते समय जो लोकगीत गाए जाते हैं वे सरल तथा साधारण वाक्यों से ओत-प्रोत हैं और इसमें लय को ताल से अधिक महत्व दिया गया है। इन्हें सुनकर लोक के मन की थाह ली जा सकती है। तभी तो महात्मा गाँधी ने कहा है कि 'लोकगीत जनता की भाषा है ...... लोक गीत हमारी संस्कृति के पहरेदार हैं।'

भात के गीत: भात के अवसर पर गाए जाने वाले गीत अपनेपन के भाव से सरोबार हैं। गीत में बहन अपने भाइयों व परिजनों से सपरिवार भात भरने आने का आग्रह करती है। रीत के अनुसार कुछ गहने व गोटा-किनारी व तारों से सुसज्जित जाळ की चुनड़ी लाने का अनुरोध करती है। बहन अपने ससुराल से जब रवाना होती है व पीहर में भात न्यूतने की रस्म पूरी करती है तब औरतें ये गीत गाती हैं:

म्हारा रुणक-झुणक भत्ती आज्यो
बीरोजी म्हारे माथै ने मेमद ल्याज्यो
बीरोजी म्हारे काना ने कुंडल ल्याज्यो
म्हारी रखड़ी बैठ, घड़ाज्यो जी
म्हारा रुणक-झुणक भत्ती आज्यो
बीरा थे आज्यो-भावज ल्याज्यो
छोटो सो भतीजो, सागै ल्याज्यो जी
म्हारी पायल बैठ, घड़ाज्यो जी
म्हारा रुणक-झुणक भत्ती आज्यो
बीरोजी म्हारे माथै ने चूनड़ ल्याज्यो
म्हारी चूनड़, जाल घलादयो जी
म्हारा रुणक-झुणक भत्ती आज्यो।

थाली में गुड़ के भेली, चावल आदि रखकर लाडेसर की माँ अपने पीहर में सभी भाई-भतीजों व परिजनों के माथे पर चांदी के सिक्के से टीका लगाती है। गीत में भाइयों व परिजनों को भात भरने के दिन जल्दी पहुंचने का आग्रह किया जाता है क्योंकि उस दिन उनकी उडीक (पलक-पांवड़े बिछाकर इंतज़ार) रहेगी। बेटी को माँ आश्वस्त करती है कि वह सबको भात में भेज देगी तथा ख़ुद अकेली घर की रखवाली कर लेगी। गीत के बोल ये हैं:

मां का जाया-बीरा बेगो आई
मां का'र जाया-बीरा बेगो र आई
हम घर बिड़द उतावली
माँ की ए-जाई-मेरो आवण ना ही
...............................
सोई म्हारा भाई-भतीजा आईया
इतना सा आया वीरा, बगड़ न माँया
तंबू तो ताण्यो वीरा, चौक में
भाई 'र भतीजा मेरा सब मिल आया
लोभड़ मायड़ मेरी कित रही
लोभण बेटी मेरी लोभ न करिए
जायै को फल दिज्ये
भाई' र भतीजा तेरी भात भरेगा
घर रखवाली तेरी मावड़ी

बान बैठाना: पाट बैठाना/हल्दहाथ - विवाह के बंधन में बंधने वाले लाडेसर को उसके परिजन विवाह के 7 या 5 या 3 दिन पहले पाटे/चौकी पर बैठाकर बान बैठाने की रस्म पूरी करते हैं। बान बैठने के बाद लड़के को बनड़ा व लड़की को बनड़ी शब्द से संबोधित किया जाता है। बान बैठाते समय ही एक छोटे बच्चे को 'बिनाकिया' बनाया जाता है जो बिनाकजी या विनायक को उठाते समय तक रहता है। बान और बिनाकिया शब्द बिनायक से बने हैं जो बौद्ध रीति-रिवाज को प्रतिबिंबित करते हैं। विनायक शब्द गणेश का पर्यायवाची है।

पीठी मलना: बान बैठने के बाद बनड़े-बनड़ी को दूल्हा-दुल्हन बनने तक हर रोज शाम को पाटे पर बैठाकर शरीर पर पीठी (हल्‍दी व आटे का उबटन) रगड़ कर स्नान कराया जाता है। 'तब' घर-खेती का काम करते रहने से शरीर मैल से कुछ बदरंग सा रहता था। लगातार पांच-सात दिनों तक पीठी रगड़ने से शरीर मैल की परत से मुक्त होकर सुन्‍दर व कोमल दिखने लग जाता था और उसमें निखार आ जाता था।

कांकड़ डोरड़ा: बान बैठने व तेल चढ़ाने के बाद बनड़े-बनड़ी के दाएँ हाथ में मौळी को बंट कर बनाया गया एक मोटा डोरा बांधा जाता है, जिसे कांकड़ डोरड़ा कहते हैं। इसमें लाख, कौड़ी और लोहे के छले डालकर बांधा जाता है। विवाह सम्पन्न होने के बाद वर के घर में वर-वधू एक दूसरे के कांकड़ डोरड़ा खोलते हैं। इस रिवाज का संबंध शाही परंपराओं से है। कांकड़ डोरड़ा दो राज्यों के एक राज्य में समाहित होने का प्रतीक है।

झोळ घालना: बनड़े के दूल्हा बनाने से पहले झोळ घालने की रस्म सम्पन्न की जाती है। इसमें बनड़े के सभी संबंधी जोड़े में कांसे के बाटके में दही लेकर पुरुष बनड़े के सिर में दही डालता है और स्त्री बाल मसलती है। आशीर्वाद स्वरूप कुछ पैसे दिये जाते हैं।

झोळ का गीत
म्हारा बापूजी झोल घलाई या
मेहा बरसण लाग्या ए
म्हारी माऊजी मसल नुहाई या
मेहा बरसण लाग्या
.........

नहाने के समय का गीत-
अलखल-अलखल नदी ऐ बहे, म्हारो बनड़ो मल-मल न्हावै जी
गैर भगत मत नहावो रायजादा, दोपारा बीच नहावो जी।दोपारा तो धूप पड़त है, ढलते भगत भल नहावो जीकुण्यां जी रो रतन कटोरी, कुण्यां जी रो मोतीड़ा रो हारो जी।
लीनी है म्हे रतन कटोरी, बदल्यो है मोतीड़ा रो हारो जी।हार सौवै म्हारे हिवड़ा रै ऊपर, मोतीड़ा दीपै ये लिलाड़ो जी।
अलखल-अलखल  नदी ऐ बहे, म्हारो बनड़ो मल-मल न्हावै जी

चंदवा ताणना: बनड़ी के पीठी मलते समय लड़कियां उसके सिर पर गुलाबी रंग के ओढ़णे के चारों छोरों को पकड़ कर चंदवा ताणती हैं। झोल घालने (कचोले में रखे दही को पिता व परिजनों द्वारा बनड़े-बनड़ी के सिर पर डालना और उनकी पत्नियों द्वारा सिर पर दही मलना) की रस्म पूरी होने पर चंदवे को बनड़ी के सिर पर बांध दिया जाता है। बनोरी लाते समय लाल लुंकार का चनवा तानते थे। बनड़ा निकासी के बाद में जब मंदिर जाता है तब भी चुनड़ी का चंदवा ताणते हैं। दूल्हा-दुल्हन के गृह प्रवेश के समय भी चंदवा ताणते हैं। अगले दिन देवी-देवता ढोकते समय भी चंदवा ताणते हैं। लड़की जब पिता के घर से शादी के बाद विदा होती है तब भी चंदवा ताणते हैं। इस रिवाज का संबंध शाही परंपराओं से है। राजा-रानी हमेशा छतरी के नीचे ही चलते हैं।

रातिजका या रातिजगा देना: विवाह के दिन की पूर्व रात्रि को बनड़े-बनड़ी के घर में रतजगा होता है, जिसमें महिलाएं कुल देवता व देवी-देवताओं के स्तुति गीत व मांगलिक गीत गाती हैं। इसी रात लाडेसर के हाथों में मेहंदी रचाई जाती है।

टूंटिया/ टून्ट्यो: दूल्हे की बारात जिस दिन निकासी करती है उस दिन सभी औरतें रातभर जागकर टूंटिया की परंपरा करती हैं जिसमें मुख्ययत: मनोरंजन किया जाता है। जिस दिन दूल्हा बरात लेकर बनड़ी के घर चला जाता है तो उस दिन की रात को दूल्हे के घर पर औरतों की एकछत्र सत्ता क़ायम हो जाती है। उस रात को औरतें स्वछंद होकर अपने मनोंजन के लिये जो कार्यक्रम करती हैं, उसे टूंटिया कहा जाता है। टूंटिया में औरतें खूब हंसी-ठठ्ठा करती हैं। बीन-बीनणी का सांग भरकर फेरा भी लेती हैं। 'तब' टाबर-टिकर (बच्चे-बालक) लुक-छुपकर टूंटिया देखा करते थे क्योंकि मनोरंजन के अवसर व साधन कभी कभार ही सुलभ होते थे।

थापा लगाना: बान बैठने के दिन घर में सामान्यतया रसोई के पास बनड़ी या बनड़े से गीली पीठी पर अपना बांया हाथ रखकर दीवाल पर थापा लगवाया जाता है। बनड़ी या बनड़े की मां कलश में चावल-मूंग डालती है। उसी दिन शाम को बनोरे के बाद या रातीजके के दिन औरतें मेहंदी के घोल से बनड़ी या बनड़े के दायें हाथ का थापा लगवाती हैं। इस रस्म अदायगी के दौरान औरतें गीत गाती रहते हैं।

बनोरा निकालना: सगे भाई बनोरा निकालते हैं अर्थात बनड़े-बनड़ी व उसके परिजनों को सीगरी न्‍यौता (सारे घर के सदस्यों को निमंत्रण) देकर अपने घर भोजन परोसते हैं।

गीत बनड़े की घोड़ी
दादोजी 'र मुलावे ये घोड़ी,दाद् यां निरखण आवै,
आवेगो दादा जी रो प्यारो,सुत्यो शहर जगावे ऐ
घोड़ी हलवा-हलवा चाल।
इन्दरियो धरावै ऐ घोड़ी चौमासो लगज्याय
चौमासे की रात अंधेरी, बंधी भैंस तुड़ावे ऐ
घोड़ी ठुमक ठुमक कर चाल
ई नगरी रो लोग रसीलो, तन्नै नीरखण आवै
ऐ घोड़ी मधरी-मधरी चाल
बापूजी 'र मुलावे ए घोड़ी मांयां निरखण आवै।
.........
इस प्रकार परिवार के सदस्यों का नाम लेकर यह गीत पूर्ण किया जाता है। गीत में चौमासा (वर्षा ऋतु) के बिंबों की भरमार है।]

भात भरना (मायरा): विवाह के सूत्र में बंधने वाले लाडेसर (लड़के-लड़की ) के ननिहाल से उसके मामा-मामी व अन्य परिजन गांववासियों के साथ भात भरने पहुंचते हैं। लाडेसर की माँ को गाँव की बेटी मानते हुए गांववासी भात में भागीदारी करते हैं। अगर उसका प्रथम भात है तो गांव के तक़रीबन हर घर से भागीदारी होने के कारण भातियों की संख्या सैंकड़ों में होती है।

बनड़े-बनड़ी की माँ थाली में रोली-मोली-चावल व चोपड़ा रखकर घर के अंदर के दरवाज़े पर खड़ी हो जाती है। औरतें भात के गीत गाती रहती हैं। गीत में नव- निर्माण के प्रतीक के रूप में मेह बरसने का ज़िक्र है। 'बरसने' का अभिप्राय ये भी है कि भाई भात में उपहारों की बारिश करेगा।
भात का गीत
1
ओ बीरा झेर् यो-मेर् यो बरसगो मेह जामण जाया
नान्ही सी बूंद सुहावणी जी
ओ बीरा ओरा न नाई क हाथ जामण जायी
ओ बीरा औरा न चून- चावल की भेंट, जामण जाया
थानै रे गुड़ की भेलिया जी
ओ बीरा नूत्यो मेर ठाकुर बर को बीर जामण जाया
राधा- रुकमण सी भावजा जीओ बीरा मेरा नूत्यो मेरो जलवर जामी बाप जामण जाया
राता देयी मावड़ी जी
ओ बीरा नूत्यो मेर काके ताऊ की जोड़ जामण जाया

2
(इस गीत में भात में भाई की ओर से ओढाई जाने वाली चुनड़ी की भरपूर प्रशंसा की गई है)

चूनड़ ल्याया मोज की जी-
कांकड़ बाज्या जंगी ढोल, झालर झिणक करैजी
आया म्हारा मा का जाया बीर, चूनड़ ल्याया मोज की जी
नापूं तो हाथ पचास, तोलू तो तोला तीस की जी
मैलू तो डिब्बो भर ज्याय, ओढू तो हीरा झड़ पड़े जी
ओढा म्हारी बनड़ी के ब्याव, च्यारू पल्ला छिटकताजी-देखेला देवर-जेठ, राजन आवै मूलकतो जी
आया महारा मा का जाया बीर, चूनड़ ल्याया मोज की जी।

भात भरते समय भाई अपनी बहन को गले लगाकर उसे ओझरिया की बेलबूटेदार, तारा-जड़ी मनोहारी चुनड़ी ओढ़ाते हैं। सभी भातियों को चांदी के सिक्के से टीका लगाया जाता है। भात में लाडेसर के ननिहाल पक्ष द्वारा पोशाक, गहने, नकदी आदि बहुत सारे उपहार दिए जाते हैं। साथ ही बहनोई एवं उसके अन्य परिजनों की झुंवारी भी की जाती है।

न्यूता (न्‍यौता) लेना : लड़के की शादी में मेळ/ बढार/ प्रीतिभोज के दिन और लड़की की शादी में फेरों के दिन भाइयों, कुटुंब-कबीले, सगे- संबंधियों, स्नेहीजनों से न्यूता (payable support money ) लिए जाने का रिवाज़ रहा है। हर घर में न्यूता लिखने की बही होती है। बही में लिखना शुरू करने से पहले कुंमकुंम का सातिया (स्‍वास्‍तिक) बनाकर कुंमकुंम के छींटे डाले जाते हैं। स्‍वास्‍तिक के ऊपर 'गणेशाय नमः' जरूर लिखते हैं। इसके बाद लाडेसर का नाम व विवाह की तिथि वगैरा लिखकर न्यूता लिखना शुरू किया जाता है।

न्यूते के लेनदेन की अहमियत: बीते दौर में भाई-बंधु, रिश्तेदार, स्नेहीजन आपसी सहयोगार्थ एक-दूसरे के काण-कावे/ ठींचे ( उत्सव/ भोज ) में कुछ राशि न्यूते के रूप में एक-दूसरे के पास डिपॉजिट करवाते थे। इस डिपॉजिट (अमानत ) को सवाया/सवाई(मूल से अक्सर सवा गुणा अधिक) कर एक-दूसरे को लौटाये जाने का प्रावधन रहा है। न्यूते के ज़रिए प्राप्त इस सहयोगात्मक राशि से विवाह में होने वाले ख़र्चे के लिए आवश्यक धनराशि जुटाने में सहूलियत हो जाती थी।

एक थाली में रोली (कुमकुम), मौली, कुछ चावल, तिलक लगाने का चोपड़ा वगैरा रख दिया जाता है। न्यूता लेने का बुलावा/ निमंत्रण मोहल्‍ले वालों व मेहमानों के ठहरने के घरों में भिजवाया जाता है। न्यूता लेते समय औरतें गीत गाती रहती हैं। न्यूता सबसे पहले भाइयों तथा बाद में रिश्‍तेदारों और मोहल्‍ले वालों का लिया जाता है। न्यूता देने वाला ( guest ) अपनी बही में पहले ये देखकर या दिखवाकर आता है कि न्यूता लेने वाले (host) ने उसकी बही में पहले से कितने रुपये बती (अधिक) करवा रखे हैं। जितने रुपये उसकी बही में बती लिखवाए हुए हैं, उससे अधिक रुपये वह मेज़बान की बही में लिखवाकर थाली में डालता है।

मांडा या थाम्‍भ रोपना: लड़की की शादी में मांडा/ थाम्‍भ रोपना और तोरण की व्‍यवस्‍था करने का रिवाज़ है। मांडा/ थाम्‍भ लकड़ी का बना होता है, जिस पर चार लाल-गुलाबी खूँटियाँ लगी होती हैं। इन खुंटियों के बीच एक कलश रखकर उसके ऊपर नया लाल कपड़ा लपेटा जाता है। इनको मूंज की नई रस्‍सी से बांध दिया जाता है। इस थाम्‍भ को चंवरी में अग्नि-कुण्‍ड (वेदी) के पास ही जमीन में गाड़कर खड़ा किया जाता है। विवाह के बाद बरात जब वापस रवाना होती है तब दूल्हा थाम्‍भ पर बंधी मूंज को खोलता है। इसे जूंण (गांठ) खोलना कहते हैं। इस रिवाज का संबंध शाही परंपराओं से है। मांडा रोपना नया राज्य प्रारंभ करने का प्रतीक है।

चाक-पूजा: बनड़े-बनड़ी के घर की सुहागिन औरतें गीत गाती हुई कुम्हार के घर जाती हैं वहाँ कुम्हार के चाक की पूजा होती है और वहां से मटके सिर पर रखकर गीत गाती हुई अपने घर आती हैं। यह परम्पराएं मानव सभ्यता और क्रमिक विकास को प्रतिबिंबित करती है। चाक-पूजना चक्का के आविष्कार और मटका निर्माण तथा पानी संग्रहण की याद दिलाते

बरात का प्रस्थान
ऊँटों को तैयार करना
विवाह के दिन बनड़े को बीन (दूल्हा) बनाने की रस्म पूरी की जाती है। दूल्हा ऊँटों पर सज-धज कर लावलश्कर (बरात) व गाजे-बाजे के साथ दुल्हन का वरण करने के लिए प्रस्थान करता है। इस रिवाज का संबंध शाही परंपराओं से है। ऊँटों पर सज-धज कर रवाना होने वाली बारात वस्तुत: सेना के रूप में नया राज्य जीत कर लाने का प्रतीक है, वे जीत कर दुल्हन को लाते हैं और उस राज्य को अपने राज्य में समाहित कर लेते हैं।

दूल्हे के साथ जब बरात रवाना होती है, तब दूल्हे को उसकी माँ प्रतीकात्मक स्‍तनपान कराती है। मां जीवित नहीं होने की स्थिति में दूल्हे की बड़ी भोजाई स्‍तनपान कराती है। इस प्रतीकात्मक स्‍तनपान के ज़रिए मां अपने बेटे को यह संदेश देती है कि 'बेटा दूध की लाज़ रखना।' बड़ी भोजाई का स्‍तनपान कराने का आशय यह है कि बड़ी भोजाई को मां के बराबर दर्जा दिया जाता है।

ऊँटों का लवाजमा: ये वो जमाना था जब बरात ऊँटों पर सवार होकर जाती थी। दूल्हा जिस ऊँट पर सवार होता था, उसकी गिनती तेज दौड़ने वाले ऊँटों में होती थी। इसके साथ ही वह बलिष्ठ होता था और दिखने में मनोहारी भी। उसकी कतराई भी कमाल की होती थी। कई डिज़ाइन बनाए जाते थे। उसके घुटनों पर पैजनियाँ बांधी जाती थी। गले में रंगबिरंगे रिबन व घुंघरू की लड़ियाँ बांधकर उसे ख़ूब सजाया जाता था। उसकी पीठ पर रंगबिरंगी छेवटी बिछाकर उस पर बढ़िया जीन (saddle काठी/ ऊँट पर बैठने का चमड़े का गद्दी दार आसन ) बांधा जाता था। फिर तंगड पटिया बांधकर और पैग़ड़ालगाकर उस पर बीन ( दूल्हा) व उस ऊँट का धणी (मालिक) बैठता था।

ऊँट की रंगबिरंगी मूरी/ मोरी (नकेल में दोनों ओर डली रस्सी) ऊँट के मालिक के हाथ में होती थी अर्थात वह ही उस ऊँट का ड्राइवर होता था। अगर ऊँट को व्हीकल माने तो मूरी को स्टेरिंग माना जा सकता है।

बनड़ी के परिवार की ओर से बरात में आए ऊँटों की भी समुचित आवभगत अर्थात उनके चारे-पानी की व्यवस्था आपसी सहयोग से की जाती थी। ऊँटों के लिए चारे का जिम्मा कुटुम्ब के लोग मिलकर वहन कर लेते थे। 1975 के आसापस ट्रेक्टर ट्रॉली और फिर बस में सवार होकर बरात जाने लगी। दूल्हा भी बस में ही सवार होता था।

बरात की रवानगी के समय एक तरह से रणभूमि की ओर बढ़ने एवं वहां विजयश्री हासिल करने का सा माहौल सृजित (create) किया जाता था। एक-दो बराती देशी दुनाली बंदूक लेकर भी सवार होकर चलते थे। 
बरात के सजे -धजे ऊँटों के लवाजमें की दौड़ होती थी। क़ाबिल ऊँट सवार बड़े उत्साह से ऊँट दौड़ की प्रतिस्पर्धा में शामिल होते थे। बनड़ी के गाँव पहुंचकर वहाँ की गलियों में भी ऊँटों का लवाजमा दौड़ लगाते हुए कई चक्कर लगाता था। उस दौर में सबके लिए ये सब मनोहारी एवं मनोरंजक दृश्य हुआ करता था।

* इससे आगे के कुछ ख़ास नेगचार आगे की पोस्ट में...
नोट: ग्राम्य जीवन की झांकी प्रस्तुत करते हुए लिखे गए आलेखों की श्रृंखला के इस आलेख में कुछ चुनिंदा वैवाहिक रीति- रिवाजों का वर्णन किया गया है। आलेख लंबा है, इसलिए यहाँ उसके कुछ ख़ास अंशों को प्रस्तुत किया जा रहा है।
✍️✍️ हनुमाना राम ईसराण
H. R. Isran
रिटायर्ड प्रिंसीपल, कॉलेज शिक्षा, राजस्थान

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