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Tuesday 11 August 2020

बिकती हुई सम्पति पर सवाल क्यों नहीं?

 डॉ. नीरज मील ‘नि:शब्द’



इंडिया में मोदी सरकार ने इस वक्त देश की 28 सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनियों (पी.एस.यू) को बेचने की तैयारी शुरू कर दी है ख़बरों के मुताबिक इन सभी कंपनियों की हिस्सेदारी बेचने के लिए सरकार ने सैद्धांतिक रूप से हामी भर दी है। बोलता हिन्दुस्तान न्यूज़ पोर्टल के मुताबिक़ लोकसभा में जब तमिलनाडु के डी.एम.के सांसद पी वेलुसामी ने मार्च के माह में ऐसे सरकारी उपक्रमों का ब्यौरा मांगा जिन्हें हिस्सेदारी बेचने के लिए चिन्हित किया गया है इसके जवाब में वित्त राज्य मंत्री अनुराग ठाकुर ने 28 कंपनियों को बेचने की मंशा जाहिर की। विडम्बना तो ये है कि देश में एक के बाद एक बिकती जन सम्पति(सरकारी उपक्रम) का कहीं कोई विरोध नहीं है जो स्वभाविकता से भरा हुआ है!

मार्च 2020 के वित्त वर्ष के लिए सरकार ने विनिवेश के जरिए 1 लाख 5 हजार करोड़ रुपये जुटाने का लक्ष्य रखा था, लेकिन एक मोटे आंकलन के अनुसार देखें तो सरकार अपने लक्ष्य के आसपास भी नहीं है सरकार ने अबतक करीब 17 हजार करोड़ रुपये ही जुटाएं हैं लेकिन इतने ही पैसे जुटाने में काफी कंपनियों की हिस्सेदारी बेची जा चुकी है ताजा जानकारी के अनुसार विनिवेश से मोदी सरकार वित्त वर्ष 20-21 के लिए 2.10 लाख करोड़ रूपये का लक्ष्य रखा है। क्या यहाँ यह सवाल नहीं है कि सरकार के पास कोष की कमी क्यों आई? क्या इंडिया में सरकार अस्तित्व ख़त्म नहीं हो रहा है? पिछले साल 20 नवंबर को सरकार ने फैसला किया था कि बीपीसीएल समेत 5 बड़ी कंपनियों(बीपीसीएल, सीओएनसीओआर, एसआईसी, टीएचडीसी और नीपको) के हिस्से बेचे जाएंगे उदाहरण के लिए, एनटीपीसी का विनिवेश प्रतिशत साल 2014 में 0.04% था जो कि साल 2017 में बढ़कर 5% हो गया था

एक बहुत जाने-माने अर्थशास्त्री का एक कथन है कि “अर्थशास्त्र एक अर्थशास्त्री को नौकरी दिलाने के अलावा और कुछ नहीं है।” ये कितना सही है सोचने वाली बात नहीं है बल्कि क्या ये वर्तमान में इंडिया के तथाकथित अर्थशास्त्रियों पर सटीक नहीं बैठता? देश ही नहीं बल्कि सम्पूर्ण वैश्विक परिदृश्य में इंडिया की अर्थव्यवस्था किसी भी तरह से फिलहाल ऊपर उठती हुई तो नहीं दिख रही है, जो वाकई अफ़सोसजनक नहीं है इसे आप आर्थिक सुस्ती या मंदी जो भी कह लें, लेकिन क्या इस प्रतिकूल परिस्थिति से निपटने के लिए क्या  रिजर्व बैंक से मोटी-मोटी रकम उधार लेना काफी नहीं है? विनिवेश कितना कारगर रहेगा, क्या वाकई सभी विशेषज्ञ निजी क्षेत्र में ही हैं? खैर, ये भी देर-सबेर सभी को समझ आ ही जाएगा लेकिन तब तक आप हम बस यही जश्न मना सकते हैं कि हम या हमारे जानने वालों के घर चूल्हा जल रहा है जिसकी वजह सिर्फ खेती-किसानी की निस्वार्थता है। बीबीसी न्यूज़ के अनुसार नवम्बर 2019 में इंडिया का राजकोषीय घाटा 6.45 लाख करोड़ रुपए का था इसका मतलब ख़र्चा बहुत ज़्यादा और कमाई कम ख़र्च और कमाई में 6.45 लाख करोड़ का अंतर

बहरहाल 23 सरकारी कंपनियों की निजीकरण के वास्ते बोली लगेगी जिसका ज़बरदस्त स्वागत करने की तैयारियां जोरों पर है। विनिवेश बेचने जैसा ग़ैर ज़िम्मेदार शब्द नहीं बल्कि उससे कहीं ज्यादा है। इंडिया में ख़ुद को काम करने वाली सरकार होने का दावा करने वालों को पता नहीं क्या सूझता है हर कोई सरकारी कंपनियों को बेचना चाहती है ताकि उनका उत्पादन बढ़ सके। इंडिया टुडे न्यूज़ पोर्टल  की रिपोर्ट में लिखा है कि सरकार को विनिवेश के ज़रिए वित्त वर्ष 20-21 के लिए 2.10 लाख करोड़ रूपये की उम्मीद है। क्या यह ठीक वैसा ही नहीं है कि पैर का मॉस बेचकर शरीर को प्रोटीन पाउडर खिलाना! क्या विनिवेश के जरिये होने वाले निजीकरण से सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनियों में काम करने वालों का प्रदर्शन बेहतरीन हो जाएगा? एक तरफ सरकार दावा करती है कि विनिवेश से रोज़गार का सृज़न होगा! लेकिन जिस तरह से रेलवे के निजीकरण की घोषणाओं का स्वागत हुआ है और कुछ रेल किराए पर देने के बाद उनमें भर्तिया एवं नियुक्तियां कब हुई और किसकी हुई हमारे लिए कुछ कह पाना भले ही संभव न हो लेकिन सरकार का मनोबल बढ़ा होगा!

इंडिया में सरकारों की एक ख़ूबी यह भी है कि उनकी समर्थक जनता हर फ़ैसला का समर्थन करती है विरोध नहीं। वरना 23 सरकारी कंपनियों के विनिवेश का फ़ैसला हंगामा मचा सकता था। अब ऐसी आशंका एक न आने वाले स्वप्न की बात हो गई है। इसी के चलते इंडिया में सरकारों की दूसरी खूबी यह है कि अपने फ़ैसले वापस नहीं लेती। ये आज भी एक शोध का विषय है कि सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनियों के विनिवेश जैसे फैसलों में भी सरकारों के समर्थक कम क्यों नहीं होते? फिलहाल भी कुछ ऐसी ही स्थिति रह रही होगी कि वे ख़ुशी से झूम रहे होंगे। हम अब समर्थक लोगों लोगों से अब  इस तरह के फ़ैसले के समर्थन में स्वागत मार्च निकालने की उम्मीद तो कर ही सकते हैं इसलिए अगर निकट भविष्य में ऐसा हो भी जाए तो अचरज वाला नहीं कहा जाएगा। हाँ इससे एक संदेश यह जरुर जायेगा अब शहीद-ऐ-आज़म के उस ख्वाब की आमजन की नजरों में कोई वजूद नहीं है जिसमें हर युवा से देश-हित में सवाल करने की कशमकश थी। अब तो सवाल ये है कि जनता सरकार के फ़ैसले पर संदेह क्यों करें? अब ये मानसिक नसबंदी नहीं तो और क्या है? वैसे भी मंदिर के शिलान्यास के बाद तो जनता को हर वो सकूं मिल ही जाएगा जिसका जन आपार प्रतीक्षा कर रही थी।

वाकई विनिवेश के द्वारा आत्मनिर्भर इंडिया बनने वाला है। विनिवेश को आमतौर पर एक बजट माना जा रहा है जो बेमानी तो है ही साथ ही में सामजिक अंकेक्षण की दृष्टि से भी सामाजिक लागत को बढ़ाने वाला है और सुशासन की परिकल्पना से बिल्कुल परे है। ऐसे में क्या विनिवेश को लोकतांत्रिक सरकार द्वारा बजट मानना एक भयंकर लापरवाही नहीं है?  मैं फिर दोहराता हूँ कि “न तो ये मानना उचित है कि सरकारी उपक्रम बेचकर सरकार विकास कर सकती है और न ही घाटे में चल रहे सरकारी उपक्रमों को निजीकरण से जनता को फायदा होगा।” एक सवाल खड़ा होता है हर किसी के मनमस्तिष्क में कि ‘क्या निजीकरण अच्छा नहीं है’ इसका सीधा और सरल जवाब निजी चिकित्सालयों और स्कूलों में भली-भांति देखा और समझा जा सकता है। इसे में यह सवाल उठना लाज़मी है कि “तो क्या सरकार लोककल्याणकारी नहीं है?” तो जब सरकार जनहित के बजाए व्यापारी हित साधने लग जाए तो समझ लेना चाहिए कि न तो सरकार आमजन हितकारी है और न ही उसकी नीतियाँ। बेचकर अर्थ अर्जन करने से बेहतर है संसाधनों से सामजिक लाभ अर्जित करना। किसी भी देश में सार्वजनिक उपक्रमों की उन्नति अरूर लाभकारी अवस्था देश के नागरिकों के नैतिक विकास के बिना नामुमकिन है और नैतिक विकास शिक्षा से ही संभव है अक्षरज्ञान से नहीं। निश्चित तौर पर अब लोकतंत्र में सरकारी फैसलों पर इसीलिए सवाल उठना और उठाना बंद हो गए हैं.....!


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