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Tuesday 18 December 2018

सम्पूर्ण कर्जमाफी वर्तमान की महत्ती आवश्यकता है।

डॉ. नीरज मील 'निःशब्द'



इंडिया की राजनीति मुश्किल दौर से गुज़र रही है। लेकिन कांग्रेस पार्टी के लिए 17 दिसंबर का दिन बेहद ख़ास रहा और भाजपा के लिए अच्छा। मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ में कांग्रेस के मुख्यमंत्रियों ने शपथ ली तो भाजपा को विपक्ष में बैठकर ऐश के साथ आराम करने का मौका मुफ्त में मिला है।
लेकिन इन चुनावों में कांग्रेस प्रमुख राहुल गांधी ने चुनावी अभियान में किसानों से वादा किया था कि कांग्रेस की सरकार बनती है तो दस दिनों के भीतर उनके क़र्ज़ माफ़ कर दिए जाएंगे। यही वादा कांग्रेस के लिए गले की फांस बन गया। कमलनाथ मध्य प्रदेश के 18वें मुख्यमंत्री बने हैं। मुख्यमंत्री का पद ग्रहण करते ही कमलनाथ ने 31 मार्च, 2018 तक लिए गए किसानों के दो लाख तक के फ़सली क़र्ज़ों को माफ़ करने की घोषणा कर दी। इसी घोषणा के साथ शुरू हो गई राजनीति  और इसमें हुई ठगी का शिकार हुआ है किसान। हालांकि कांग्रेस प्रमुख राहुल गांधी ने मुख्यमंत्री कमलनाथ के फ़ैसले पर ट्वीट करते हुए लिखा है, ''मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री ने क़र्ज़ माफ़ कर दिया है, दो और करने जा रहे हैं।''

घोषणा में सिर्फ एक शब्द 'फ़सली ऋण' ने  एक बार फिर सरकार का असली चेहरा किसानों के सामने कर दिया। कर्ज माफी सिर्फ झूठा वादा साबित हुआ। किसान के लिए दो तरह के लोन होते हैं ! एक होता है किसान क्रेडिट कार्ड दूसरा होता है फसली ऋण।किसान क्रेडिट कार्ड में जमीन रहण (गिरवी) रखकर दिया जाता है। जिसके पास जमीन है वो बैंक जाए और बैंक द्वारा तय प्रति बीघा/हेक्टेयर के हिसाब से अपना लोन ले लेता है। यह जिसके पास जितनी जमीन है उसके हिसाब से हजारों से लेकर कई लाख तक मिल जाता है। इसमें रिश्वत वगैरह के अलावा राजनीतिक हस्तक्षेप नहीं रहते हैं। ऐसा इसलिए क्योंकि शरणार्थियों की सरकार किसानों को जाल में फंसाने चाहती है ताकि ज़मीन पर उसका अप्रत्यक्ष हक़ बना रहे। दूसरा फसली ऋण सहकारी बैंकों के मार्फ़त दिया जाता है जिसके लिए पहले ग्राम सहकारी समिति जैसे किसी सिस्टम में सदस्यता लेनी होती है। फिर उसे सोसाइटी द्वारा की गई अनुशंषा के बाद फसली ऋण दिया जाता है। फसली ऋण अमूमन पहले साल में 30 हजार तक देते हैं जिसे अगले साल बढाकर 50 हजार तक कर दिया जाता है। इससे ज्यादा का फसली ऋण नहीं देख पाना असंभव सा है। फिर भी अगर किसी को इससे ज्यादा मिला है तो उसे पहुँच का मामला माना जायेगा।
इसलिए 'फ़सली ऋण' माफ करने के कुछ ही समय बाद भी किसान की स्थिति वही हो जाती है जो लोन माफी से पहले होती है। साफ है फ़सली कर्ज की माफी कोई हल नहीं हैं बल्कि किसानों को ठगने का एक राजनीतिक प्रोपेगेंडा है।
अब सवाल उठता है कि क्या कर्ज माफी कोई रास्ता है ? क्या यह उचित है ?आखिर क्यों राजनीतिक पार्टियां इस ऋण-माफी के माध्यम से किसानों को ठग कर उनका वोट हासिल कर लेती हैं? आखिर क्या वजह रहती है कि किसान को कर्ज लेना पड़ता है ? क्या कर्ज माफी की एकमात्र उपाय हैं ? ऐसे बहुत सारे सवाल है जो आप और आप जैसे तमाम आमजन के मन में उठ रहे हैं। इनका जवाब खोजना भी जरूरी है । वास्तव में अगर देखा जाए तो कर्ज मजबूरी में लिया जाता है लेकिन किसानों को क्यों मजबूर होना पड़ रहा है? सरकार को इस सवाल का जवाब खोजना चाहिए कि आखिर किसान को ऋण लेना क्यों पड़ रहा है?
असल मे लोकतंत्र की इस कथित मुख्यधारा ने किसान की स्थिति ऐसी कर दी है कि उसे खेती के लिए छोटी से छोटी चीज बाजार से खरीदनी पड़ रही है जिनके दाम हर साल न्यूनतम 10% की दर से बढ़ते जाते है और किसान की फसल की कीमतें स्थिर रहती है। फलस्वरूप कुल आगम, सीमांत लागत व औसत लागतों में वृद्धि हो रही है और आगम स्थिर परिणाम नुकसान भी बढ़ रहा है।

किसानों की यह स्थिति अचानक से नहीं हुई बल्कि सरकार द्वारा 50 वर्षों से कृषि की लगातार उपेक्षा और उदासीनता का परिणाम है। आखिर क्या क्या वजह है रही है कि सरकारें लगातार किसान और किसानियत की उपेक्षा करती आई है? जबकि हकीकत यह है कि आज भी देश की लगभग 60 फीसदी से अधिक आबादी रोजगार के लिए प्रत्यक्ष-परोक्ष रूप से कृषि क्षेत्र पर ही आश्रित है। शेष सेवा, विनिर्माण व अन्य क्षेत्र भी प्रत्यक्ष अप्रत्यक्ष रूप से कृषि पर ही आधारित है। गौर करें तो जिस वर्ष कृषि कमजोर रहती है यह क्षेत्र भी कमजोर रहते हैं। ऐसे में देश के न जाने वह कौन से अर्थशास्त्री हैं जो इस बात से अभी तक अनभिज्ञ है! अनभिज्ञ होना इस बात का पुख्ता सबूत है कि देश के तथाकथित नीति निर्धारक और शरणार्थी सरकारें जानबूझकर कृषि को बदहाली की ओर ले जा रहे हैं और ख़त्म करने पर तुले हैं क्योंकि कृषि मूलनिवासी अर्थात जमीन से जुड़े हुए लोगों की आय का जरिया होती है और सबसे महत्वपूर्ण व्यवसाय भी।
मैं लगातार यह बात कहता रहा हूं और अपने पिछले कई आलेखों में लिख भी चुका हूं कि आखिर क्यों कृषि को एक व्यवसाय का दर्जा नहीं दिया जाता? यह भी एक व्यवसाय है। जिस प्रकार एक मोची के लिए जूते बनाना उसका व्यवसाय है,दर्जी के लिए कपड़े सिलना उसका व्यवसाय है, उसी प्रकार से खेती भी किसान का व्यवसाय है। इसलिए आज सबसे पहला कदम सरकार को  कृषि को एक व्यवसाय का दर्जा देने का है। लेकिन अब तक सरकारे मुद्रा का एक तंत्र बनाकर, अनाज को सर्व कल्याण, धर्म आदि की भावनाओं में बहाकर लूट मचाने की अपनी फितरत से बाज नहीं आई है। जिसका परिणाम इस तंत्र द्वारा किसान को लूटा जाना ही रहा है। देश में दो पार्टियां बन गई एक जो लगातार देश के संसाधनों पर अदला-बदली लगाकर लूट को बदस्तूर जारी रखें हुए हैं। ये पार्टियां चुनाव के समय किसानों को संबल देने के नाम पर कर्ज माफी का ऐलान करती नजर आ रही है और सरकार बनने के बाद सिर्फ फसली ऋण की माफी कर किसानों को गुमराह कर रही है,जनता को गुमराह कर रही हैं। आखिर क्या वजह है कि सरकारें उद्योगपतियों के हजारों करोड़ रुपए का ऋण बिना किसी स्थाई सम्पत्तियों के गिरवी रखे दिए जा रही है और माफ भी कर रही हैं। जबकि किसानों के नहीं।
एक तरफ कॉरपोरेट हैं जिनका जब लोन माफ किया जा रहा होता है तब किसी कॉरपोरेट को यह कहते नहीं सुना कि लोन माफ करना उनकी समस्या का स्थायी समाधान नहीं है, सरकार को ऐसे करना चाहिए वैसे करना चाहिए ! बल्कि वो चटपट अधिकतम फायदा ले पड़ते हैं सरकार से ! दूसरी तरफ किसान हैं जिनके जब कर्जमाफी की बात आती है तो ये मीडिया और बुद्धिजीवियों की तमाम जमातें हर तरह के सुझाव लेके बैठ जाते हैं। न्यूज़ चैनलों पर डिबेट्स की बाढ़ आ जाती है और स्थाई हिंदू-मुस्लिम मुद्दा गायब। पूरे देश को यह बताना शुरू हो जाता है कि कर्ज-माफी स्थाई समाधान नहीं है। ऐसे नहीं करना चाहिए, वैसे करना चाहिए आदि आदि ! लेकिन कोई भी स्थाई समाधान जो कि कृषि उपज के मूल्य निर्धारण का हक़ किसानों को देना है, की कोई बात नहीं करता। इस बीच किसानों को कर्जमाफी का अधिकतम फायदा मिलने के बजाय सरकार द्वारा देय न्यूनतम फायदा भी नहीं मिल पाता। यही वजह है कि किसान फिर ठगा जाता है।

स्थाई समाधान के लिए सरकारें  क्यों नहीं अपने तंत्र का इस्तेमाल करते हुए कृषि उपज के उत्पादन को नियंत्रित करती? ताकि मांग व पूर्ति में साम्य बिठाया जा सके। क्यों नहीं वे मांग के अनुरूप उत्पादन करवा कर किसानों को उचित मूल्य दिलवा दे? क्यों नहीं वे किसानों को उनकी उपज का मूल्य निर्धारण का हक ही दे दे ताकि कृषि में भी पूर्ण प्रतियोगिता आ सके और किसान को सामान्य लाभ मिल सके? क्यों नहीं कृषि को व्यवसाय का दर्जा दे दिया जाए? ऐसे तमाम सवाल हैं जो सरकार की प्रासंगिकता और भूमिका पर सवाल खड़े करते हैं व संशय प्रकट करते हैं। जाहिर है कि सरकारें ऐसा कुछ भी नहीं करना चाहती जिससे किसान और किसान यंत्र का भला हो। वर्तमान वस्तु स्थिति को देखते हुए यही निष्कर्ष निकलता है कि बाकी के समाधान बाद में लेकिन पहले किसानों की संपूर्ण कर्जा माफी जायज है और समय की आवश्यकता है। यह सम्पूर्ण देश मे लागू होनी ही चाहिए। राजनीतिक पार्टियां जनसंख्या के अनुपात में प्रतिनिधित्व तय करें और किसानों को आज़माना बन्द करें। इंक़लाब ज़िन्दाबाद।
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2 comments:

  1. हमारे मन के विचारों को शब्द देने के लिए सआदर धन्यवाद देना

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  2. True analysis sir ji. All political parties only want dictatorship on farmers and not want to provide fix solution to farmers. If agriculture will come in profession then market ( demand & supply ) will determine the price. But any government do not want fix or final solutions for farmers problems.

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