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Monday 4 March 2019

इंडिया की न्याय प्रणाली का सच...क्या इंडिया की न्यायपालिका दोषपूर्ण है?


               



        क्या सुप्रीम कोर्ट, हाईकोर्ट की कोई सामाजिक भागीदारी है? क्या ये संस्थाएं सामाजिक हित में फैसले लेती हैं? क्या यह संस्थाएं निष्पक्ष है? नमस्कार मैं डॉ. नीरज मील और आप बने हुए हैं ज्वलंत मुद्दों की असली व सटीक तहकीकात के साथ सच तक पहुंचने के लिए तह तक चैनल पर। इस एपिसोड में हम सुप्रीम कोर्ट व हाईकोर्ट की देश में प्रासंगिकता यानी जरूरत पर विश्लेषण करेंगे । इस विश्लेषण के द्वारा यह भी जानने का प्रयास करेंगे कि क्या सुप्रीम कोर्ट व हाईकोर्ट का वर्तमान स्वरूप में होना लोकतंत्र को खत्म करना नहीं है। आखिर सच क्या है जाने से पहले जानते हैं सुप्रीम कोर्ट हाईकोर्ट के अस्तित्व के बारे में।
1. इंडिया की न्यायपालिका अंग्रेजों द्वारा उपनिवेश काल यानी शासनकाल में बनी कॉमन लॉ उस पर आधारित है ।
2. इंडिया में कुल 24 उच्च न्यायालय हैं जिनका क्षेत्राधिकार राज्य अथवा राज्य व केंद्र शासित प्रदेशों के एक समूह तक होता है।
3. उच्च न्यायालय अर्थात हाईकोर्ट में जजों की नियुक्ति इंडिया में बिना किसी प्रतियोगी परीक्षा के राष्ट्रपति व राज्य के राज्यपालों द्वारा की जाती है।
4. इंडिया में न्याय के लिए 12 लेवल डिफाइन और डिटरमाइंड है।
5. न्यायपालिका संविधान में क्या स्थिति रहती है ? इसे मेहता, प्रताप, भानु, हसन व्यास, श्रीधर, सुदर्शन द्वारा प्रकाशित इंडियन किविंग कांस्टिट्यूशन: आईडियाज, प्रैक्टिस एंड कंट्रोवर्सीज नामक पुस्तक में the innner conflicts of constitutionism शीर्षक आर्टिकल में किया गया है। जिसके अनुसार-
 The Judiciary interprets the constitution as its final arbiter.अर्थात न्यायपालिका संविधान की व्याख्या अपने अंतिम मध्यस्थ के रूप में करती है।
6. न्यायपालिका को विस्तृत रूप से व्याख्या अंकित करते हुए भट्टाचार्य विश्वजीत नई 15 नवंबर 2015 को Supreme Court shows government its LOC पर कहा है कि it is its duty as mandated by the constitution to be its watchdog...अर्थात संविधान के अनुसार न्यायपालिका का न्याय के लिए प्रहरी के रूप में निगरानी रखना एक कर्तव्य है।
      क्या सामाजिक सरोकार वाले बिंदु पर किसी कोर्ट ने संज्ञान लिया है? नहीं, अगर ऐसा होता तो किसान आंदोलन अनिर्णित नहीं रहते। खैर, यह तो थी बड़ी बड़ी बातें अब बात करते हैं, जजों की योग्यता की। एक जज होने की योग्यता,

सुप्रीम कोर्ट के लिए
*अधिकतम आयु 65 वर्ष (अनुच्छेद 124)
*कम से कम 5 साल हाई कोर्ट के जज के रूप में अनुभव अथवा 10 वर्षों तक सुप्रीम कोर्ट में वकालत

हाई कोर्ट के जज के लिए

10 वर्षों तक जुडिशल ऑफिस में कार्यानुभव अथवा 10 वर्षों तक हाई कोर्ट में वकील का अनुभव ।
साफ है कि हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट के जज के लिए न तो किसी प्रतियोगी परीक्षा पास करने की जरूरत होती है और ना ही जनता द्वारा चुने जाने की फिक्र। ऐसे में क्या यह सबसे बड़ा सवाल नहीं है कि जब किसी संस्था के प्रधानों की नियुक्ति ही बिना किसी चयन पद्धति के आधार पर और सिर्फ और सिर्फ सिफारिशों के आधार पर हो तो संस्था लोकतंत्र के महत्वपूर्ण निर्णय कैसे ले सकती है!
 क्या सिफारिशों के आधार पर की गई नियुक्ति या तानाशाही का प्रमाण नहीं होता? अगर हां तो फिर लोकतंत्र कहां रह जाता है?
क्या सिफारिशों के द्वारा जजों की नियुक्तियां जातिवाद, परिवारवाद, भाई-भतीजावाद और भ्रष्टाचार से अछूती रह सकती हैं ? पिछले ट्रेन को देखकर आप नतीजा जान सकते हैं।
      क्या हाल ही में 10 लाख से अधिक आदिवासियों को जंगलों से खदेड़ कर शरणार्थी के रूप में जीवन व्यतीत करने हेतु मजबूर करने जैसे निर्णय जातीय वर्चस्व को कायम रखने वाले नहीं है?
     अंग्रेज व्यापारियों द्वारा लूट के तंत्र को बदस्तूर जारी रखने की खुली वकालत करना किस तरह का न्याय है?
     क्या वर्तमान परिपेक्ष में संसाधनों की केंद्रीकृत लूट में पूंजी पतियों की मदद करना ही सुप्रीम और हाई कोर्ट के गठन का लक्ष्य है?
सर्वोच्च न्यायालय द्वारा 19 फरवरी 2013 को जारी एक रिपोर्ट के अनुसार सुप्रीम कोर्ट में 58,519 केस लंबित थे जिनमें से लगभग 21,000 केस तो 2011 के पहले के हैं । क्या यह जनता की विश्वास की प्रासंगिकता को धता बताने वाले तथ्य नहीं है? क्या सुप्रीम कोर्ट के पूर्व मुख्य न्यायाधीश एचएस कपाड़िया का यह बयान महत्वपूर्ण नहीं है जो टाइम्स ऑफ इंडिया में 16 अगस्त 2012 को छुपा था-
"इंडिया एकमात्र ऐसा देश है जहां केवल 167000 की आबादी होने के बावजूद मुझ जैसे पारसी समुदाय के व्यक्ति को देश के मुख्य न्यायाधीश के पद पर नियुक्त किया जाता है।"

क्या यह बयान सुप्रीम कोर्ट में जातिवाद, परिवारवाद, भाई-भतीजावाद की पुष्टि नहीं करता? क्या यह सवा अरब की आबादी वाले देश में शरणार्थियों को तवज्जो की पुष्टि  नहीं है?

मेरी फाइंडिंग्स के अनुसार वर्तमान व भूत के परिपेक्ष में तह तक जाकर यही निष्कर्ष निकलता है कि हाईकोर्ट, सुप्रीम कोर्ट जैसी संस्थाएं जनता की विश्वास को अर्जित करने में बिल्कुल भी समर्थ नहीं रही है या यूं कहें कि जनता में विश्वास करना इन संस्थाओं का कभी मकसद रहा ही नहीं। अतः मेरी इन संस्थाओं में कतई कोई आस्था नहीं है, और आपकी? जवाब जरूर खो जाएगा। फिलहाल के लिए इतना ही मिलते हैं एक नए मुद्दे की तह तक जाने के लिए आप बने रहे तह तक।

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