डॉ. नीरज मील
कल यानी 2 अक्टूबर को दिल्ली जाने
वाली सड़कों पर किसानों की सरकार के खिलाफ हो रही हल्ला बोल को रोकने के लिए केंद्र
सरकार के इशारे पर पुलिस जवानों ने पानी की तेज बौछारें डाली, लाठियां भांजी व गोलियां
बरसाई। निश्चित तौर पर यह देश के लिए एक शर्मनाक दिन था अर्थात 2 अक्टूबर का दिन देश
के लिए काला दिन साबित हुआ है और इस काले दिन की सरकार की काली करतूतों हर एक नागरिक
अगर इस नजरिए से नहीं देखता है तो वह निश्चित तौर पर ना केवल अन्नदाता के प्रति गद्दारी
कर रहा है बल्कि देश के प्रति भी गद्दारी कर रहा है। अफ़सोस तो इस बात का भी है डायनामिक
बताने वाली ये सरकार किसानों के लिए एक भी ट्वीट तक नहीं की। क्या केंद्रीय राज्य मंत्री
गजेंद्र सिंह शेखावत का ये बयान बकवास नहीं है कि किसान क्रांति यात्रा राजनीति से
प्रेरित है ? इस बयान से उन्होंने अपनी बुद्धि की अल्पता का प्रदर्शन कर दिया क्योंकि क्या राजनीति से प्रेरित यात्रा में चार
लाख से ज्यादा किसान आ सकते हैं ? नहीं । देश की मिडिया शरणाथियों की गोदी मीडिया हो
गई है अभी उतरप्रदेश में 2 दिन पहले एक पुलिस के हाथों से एनकाउंटर में
एक असामाजिक व्यक्ति मारा गया तो जैसे देश में आपातकाल आ गया हो ऐसा माहौल बना दिया
गया लेकिन अब किसान पीटते हुए, गोली खाते हुये ना मिडिया को दिख रहे हैं और ना तथाकथित
बुद्धिजीवियों को!
भारतीय किसान यूनियन के झंडे तले ये
किसान अलग-अलग राज्यों से जुटे। यूपी बॉर्डर पर दिल्ली में घुसने का इंतज़ार करते ट्रैक्टरों
में बैठी महिलाएं अपनी-अपनी भाषा में लगभग एक ही बात कहती हैं- क़र्ज़माफ़ी, बिजली
का बिल, गन्ने का भुगतान और किए वादों को पूरा करो। इस रैली में आप किसी भी राज्य से
आए किसान से उनकी मांगों के बारे में पूछें तो स्वामीनाथन आयोग की सिफ़ारिशों का ज़िक्र
ज़रूर करते हैं। अब से 14 बरस पहले 2004 में स्वामीनाथन की अध्यक्षता में 'नेशनल कमिशन
ऑन फ़ॉरमर्स' बना था। इस आयोग ने किसानों की
बेहतरी के लिए कुछ सिफारिशें की थीं, मुख्य सिफारिशें कम दाम में अच्छी क्वालिटी के बीज,किसानों के लिए
ज्ञान चौपाल, महिला किसानों को क्रेडिट कार्ड,प्राकृतिक आपदाओं से निपटने के लिए कृषि
जोखिम फंड,फ़सल उत्पादन मूल्य से 50 फ़ीसदी ज़्यादा दाम, बेकार पड़ी ज़मीन को भूमिहीन
किसानों में बांटना, वनभूमि को कृषि से इतर कामों के लिए कॉरपोरेट को न दें, सबको मिले
फसल बीमा की सुविधा, एग्रिकल्चर रिस्क फंड बनाया जाए जैसी सिफारिशों के साथ और भी हैं
जिनका ज़िक्र संभवत: सिर्फ़ चुनावी मंचों पर हुआ। स्वामीनाथन आयोग की ये सिफारिशें
अब तक सरकारी फाइलों में ही सीमित हैं। फ़सल उगाने वाले किसान के लिए ज़मीन पर हालात
नहीं बदले।
किसान क्रांति यात्रा, किसान आंदोलन:
भारतीय किसान यूनियन के अध्यक्ष नरेश टिकैत ने कहा, ''अगर हम अपनी समस्याओं के बारे
में अपनी सरकार को नहीं बताएंगे तो किसे बताएंगे? क्या हम पाकिस्तान या बांग्लादेश
चले जाएं?" देखा जाए तो अब हालत और हालात
काफी बदत्तर हो चुके हैं । किसान दिल्ली नही जा सकते क्योंकि दिल्ली अब उनकी नही रही!
धीरे धीरे हरियाणा पश्चिम यू पी भी नही रहेगा! किसानों के लिए उनके खेत भी नही रहेगें! मरने के लिए रस्सी व पेड़ जरूर सरकार दे देगी! किसान
दिल्ली में सरकार से लड़ रहे है। क्या यह सरकार और देश के लिए शर्मनाक नहीं हैं कि किसान
सरकार के सामने याचना करने जाएं और उनकी सुने बगैर ही उन पर पुलिस के जवानों से पानी
की तेज बौछारें डलवाई जाएं, उम्रदराज सम्मानित किसानों पर लाठियां भंजवाई जाएं और फिर
गोलियां दागी जाएं ! कहां किसानों की आय दोगुनी होनी थी कहां पुलिसवाले सीधे उनपर निशाना
लगा रहे हैं। ग़रीब किसानों पर शर्मनाक है ये कार्रवाई। आखिर क्या वजह है कि सरकारें
किसान की सुनना ही नहीं चाहती? सिर्फ इसलिए कि वो प्रत्यक्ष रूप से राजनीतिक पार्टियों
को चंदा नहीं देते? या फिर इसलिए कि इस विरोध में केवल जाट किसान होते हैं? हालातों
और कृत्यों के मध्यनज़र स्थिति साफ आज़ादी के बाद से ही सरकारें किसान और आदिवासियों
के विरुद्ध षड्यंत्र करती ही नज़र आई हैं क्योंकि किसान व आदिवासी प्राकृतिक हैं, इस
देश के मूल है जबकि सरकारें लोकतंत्र के नाम पर पूंजीपतियों एवं शरणार्थियों के लिए
बनती हैं। क्योंकि कितनी अजीब बात है कि सरकार किसानों पर अत्याचार करने के लिए तो
सारी तैयारी समय कर लेती है और होने वाले विरोध प्रदर्शन को कुचलने और राजधानी में
प्रवेश करने से रोकने का भी पुख्ता इंतज़ाम कर लेती है लेकिन किसानों की समस्याओं को न तो सुनने के
लिए सरकार के पास समय होता है और न सरकार किसानों की समस्याओं का निराकरण करना चाहती
है ।
मुझे यह लिखने में कोई शर्म नहीं आ
रही है और न ही कोई हिचकिचाहट हो रही कि जो अन्नदाता के खिलाफ है वह देश के खिलाफ भी
है। इस बात में कोई अतिशयोक्ति नहीं है कि अन्नदाता की स्थिति बहुत खराब हो चुकी है,
उसे अपनी उपज का मूल्य मिल पाता है और ना ही उपज को उपजाने के लिए उत्तम साधन। आलम
यह है कि देश में अगर कहीं भी कोई हार होती है तो वह सबसे पहले होती है देश के किसानों
की। उसके बाद देश में कामगार मजदूरों की जबकि हकीकत यह है कि देश किसान और मजदूर ही
असली आधार है। इसलिए अब देश के नौजवानों को जागना होगा और देश की सरकारों से सवाल करना
होगा कि आखिर क्यों इतने सालों तक अन्नदाता को रुलाया जाता रहा है? क्यों कामगारों
के शोषण की कहानियां दिन-ब-दिन बढ़ती जा रही है? और क्यों उन लोगों की कहानियां सुनाई
जाती रही है जो न इस देश के हैं और न ही इस देश से कोई ताल्लुकात रखते हैं। आखिर क्या
वजह है कि शरणार्थी ही इस देश में राज करते आ रहे हैं ? इन सभी सवालों का जवाब हम सब
को खोजना होगा और इन सभी सवालों के मद्देनजर हमें हर एक बात बोलना होगा, लिखना होगा
और अपनी आवाज़ को बुलंद करना ही होगा।
प्रदर्शन में बैठे राकेश टिकैत कहते
हैं, ''गन्ना भुगतान को 14 दिन में करने का वादा था। आठ महीने हो गए, कुछ न हुआ। 10 साल पुराने ट्रैक्टर
बंद कर दिए हैं। देश के संगठन अलग हो सकते हैं, लेकिन सारे किसानों के मुद्दे एक ही
हैं। अभी किसानों का दर्द है। भारत सरकार डॉक्टर है, इलाज के लिए आए हैं, दवाई लेने
आए हैं, लेकिन दवाई नहीं मिल रही है। हमारी मांगें केंद्र सरकार से ज़्यादा है। आश्वासन
चार साल से मिल रहे हैं, लेकिन काम नहीं हो रहा।
सरकार कोई भी हो, ढंग का काम नहीं हो रहा।'' वास्तव में राकेश टिकैत सही ही कह रहे हैं गन्ना के भुगतान का वायदा 14
दिनों में होने का हुआ था लेकिन भुगतान हुए आठ माह हो गए हैं क्योंकि देश से रूपये
तो तथाकथित उद्योगपति लेकर फरार हो रहे हैं।
10 साल पुराने ट्रैक्टर इसलिए बंद किये जा रहे हैं क्योंकि कंपनियों ने ट्रैक्टर
ज्यादा बना दिया इसलिए अब यह सरकार की ही जिम्मेदारी हैं कि वो ट्रैक्टर बिकवाये। हिन्दोस्तां
में सरकारें किसानों का और आदिवासियों का इलाज़ करने के लिए ही तो बनती आई हैं। अजीब लोकतंत्र है देश में तूतीकोरिन में पर्यावरण
को प्रदूषित कर रहा पूंजीपति का कारखाना उचित है लेकिन खेत में 10 साल पुराना ट्रैक्टर
जरूर प्रदूषण करता नज़र आ रहा है। देश में सबसे
असफल उद्योगपति जिस पर लगभग दो लाख करोड़ का बैंकों से कर्ज़ा है और सुई भी बनाने का
तजुर्बा नहीं है लेकिन फिर भी सरकार अनुभवी व सार्वजनिक क्षेत्र की कम्पनी को छोड़कर
उसे ही राफेल बनाने का ठेका दे रही है । जबकि सरकार के पास किसानों के मात्र 85 हज़ार करोड़ का
ऋण माफ़ करने के लिए बजट नहीं है।
सुरक्षा बलो के अनुसार किसान राष्ट्रीय
राजधानी में प्रवेश चाहते हैं, बैरिकेडिंग तोड़कर आगे बढ़ने की कोशिश हुई तब पर पानी छोड़ा गया और आसु गैस के गोले लेकिन सोशल
मिडिया पर आ रही तस्वीरों में साफ़ दिखाई दे रहा है कि वो सब कुछ हुआ है देश के अन्नदाताओं
के साथ जो कतई बर्दास्त नहीं किया जा सकता।
यहाँ यह सवाल उठना लाजमी है कि क्या इससे पहले किसी भी प्रदर्शन में बैरकेडिंग
लांघने की या तोड़ने की जुर्रत नहीं हुई क्या? बिलकुल अखबारों और टेलीविजन चैनलों के
रिकॉर्ड के अनुसार जरूर हुई है लेकिन किसी
पर भी लाठी चार्ज या फायरिंग नहीं हुई है फिर चाहे वो ब्यापारी या अधिकारी-कर्मचारी अथवा कोई अन्य हो। हाँ किसान
आन्दोलनों अथवा प्रदर्शनों को ख़त्म करने के लिए जरूर गोलियां ठंडी की गयी हैं। सच तो
ये है कि सरकारें आदिवासियों और किसानों की सुनना कब की ही बंद कर चुकी है। किसान वर्ग
से नौकरी-पेशा वर्ग में नौकरी कर रहे लोगों में से लोग नौकरी में अपना अस्तित्व बचाने
की क़वायद की जगह अपने हक़हूकूक के लिये आवाज़ उठायेंगे तो प्रॉब्लम ख़त्म हो जायेगी।
सिर्फ़ अस्तित्व बचाने की क़वायद में वो लोग अपने आत्मसम्मान को ही खो रहे हैं। सरकारें
भी किसानों के बच्चों से हीं किसानों पर गोली चलवाने का काम कर रही हैं जो सरकारों
का पूंजीवादीयों से आपार प्रेम नंगा करता है और किसानों से दुश्मनी को दर्शाता है। अब गोलियों का चलना और कुछ किसानों का शहीद होना हर किसान आंदोलन की नियति है खुद नहीं
खेतों को बर्बाद करते आवारा सांडों को इकट्ठे कर उन्हें गोलियों के सामने किया करो..
इंक़लाब ज़िंदाबाद।
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