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Wednesday 11 July 2018

उच्च शिक्षण संस्थानों की बदहाली…

डॉ. नीरज मील 



भारत में विकास की थोथी राजनीति करने वाले तो नेताओं की कमी है और ही पार्टियों की। मजे की बात ये है कि हकीकत क्या है? इसे जानने की इच्छा भारत की जनता को है किसी जागरूकता फैलाने वालों को। आज हम देश को उस दौर में घसीट रहे हैं जिसमें देश में शिक्षा है और शिक्षा व्यवस्था। देश में शिक्षा क्यों नहीं है ये एक अलग एवं संजीदगी भरा गम्भीर किन्तु अति-उच्च किस्म का मुद्दा है। शिक्षा व्यवस्था भी उचित रूप से नहीं है। दोनों ही स्थितियां क्यों पनपी? सबसे पहले तो मैं स्पष्ट कर दूँ कि वर्तमान शिक्षा व्यवस्था को भी जानबूझकर तहस-नहस किया जा रहा है ताकि राजनीति विरासत का व्यवसाय ही बना रहे। वैसे तो देश में चर्चित विश्वविद्यालयों में दो ही विश्वविद्यालय आते हैं एक तो एएमयू तो दूसरी जेएनयू लेकिन आज देश के अधिकतर विश्वविद्यालयों की हालत बदहाल ही बनी हुई है। जहां विश्वविद्यालयों से उच्च गुणवत्तापूर्ण शोध निष्कर्ष निकलने चाहिए वहां से मिडिया ने जब चाहा तब हिन्दू-मुस्लिम, देशद्रोही जैसे निष्कर्ष निकाले। किसी ने इनकी बदहाली को देश के पटल पर कभी नहीं रखा। काश, अगर देश की मिडिया एवं नेताओं ने इनकी सुध ली होती तो आज देश के विश्वविद्यालयों में बुनियादी सुविधाओं का अभाव होता और देश को कुछ तो फायदा होता।
देश में विरोध करना एक फैशन बन गया है या मजबूरी, पता लगा पाना सम्भव नहीं है। देश के विश्वविद्यालयों का भी यही हाल हैं। पढ़ाई होने, फीस ज्यादा वसूलने और विश्वविद्यालयों में शिक्षकों की कमी का विरोध अब सामान्य हालात हो चुके हैं। इसके अतिरिक्त विश्वविद्यालयों में शिक्षकों की नियुक्तियां भी राजनीतिक होने लगी हैं। योग्यता का निर्धारण और मापन के तरीके व्यक्तिगत हो चले हैं और चयन में भाई-भतीजावाद, भ्रष्टाचार एवं सिफारिशों ने पक्की जगह बना ली हैं। इन सबके बावजूद देश में मानव संसाधन मंत्रालय मूक दर्शक बनकर तमाशा ही देख रहा है। ऐसे में देश में केवल विश्वविद्यालय अनुदान आयोग बल्कि मानव संसाधन मंत्रालय भी अकर्मण्यता को प्राप्त कर चुके हैं। स्पष्ट है उक्त कारणों की वजह से ही हम विश्व के शीर्ष 100 विश्वविद्यालयों में से कहीं भी नजर नहीं रहे हैं। जिस देश में उच्च शिक्षा में चयन, उपाधि देने एवं नियुक्ति जैसी महत्वपूर्ण क्रियाओं में कोई मानक हो तो 100 क्या 1000 में भी नाम नहीं सकता। यहां यह सवाल उठना और उठाना अनिवार्य है कि ‘‘सरकारें बजट एवं नीतियों में उच्च शिक्षा के नाम पर खानापूर्ति कब रोकेंगी?’’ आज देश की हालत बहुत ज्यादा दयनीय हो चुकी हैं। कैसा लगेगा किसी को जब कोई जिस जीवनवृति(Career) के लिए पढ़ाई करते हो योग्य हो एवं जब हासिल करने की बारी आये तो उसे कोई और ले उड़े वो भी बिना मेहनत के और कम योग्यता के? लेकिन भारत में यह आम बात हो चुकी है।
विश्वविद्यालयों में बेतरतीबी का आलम कुछ यूँ पसरा पड़ा है कि कुलपति महोदय की नियुक्ति पूर्णतः राजनीतिक होने लगी है। ऐेसे कुलपति महोदय, विश्वविद्यालय में अपनी या अपने आकाओं की पसन्द के लोगों की नियुक्तियां ही करते हैं और इस तरह से हुई नियुक्तियां विश्वविद्यालय कर भला नहीं कर सकती। जब रजिस्ट्रार, परीक्षा नियन्त्रक एवं शिक्षक जिस विश्वविद्यालय में एडहाक(Adhoc) बेसिस हो वहां पर कक्षाएं लगती हैं, परीक्षाएं होती है और ही समय पर परिणाम पाते हैं। आज कमाबेश देश के हर विश्वविद्यालयों का यही हाल हैं। ऐसे में छात्र विश्वविद्यालय कुलपति का पुतला ही जलाएंगें और कक्षाओं की जगह हड़ताल पर ही बठैंगें। अब शिक्षा जैसी है उसको भी खत्म करने की कोशिश की जा रही है। अब यह आरोप नहीं साफ़ हो चुका है कि उच्च शिक्षा का स्तर बढ़ाने पर सरकार कोई प्रयास नहीं कर रही है। स्पष्ट है कि भ्रष्टाचार, उदासीनता और अकर्मण्यता का शिकार हो चुकी है उच्च शिक्षा। जो हाल विश्वविद्यालयों का है देश में वही हाल महाविद्यालयों का है। विश्वविद्यालयों एवं महाविद्यालयों से यहां आशय राज्य और केन्द्र दोनों के नियन्त्रण वालों से है।
20 मार्च 2017 को मानव संसाधन मंत्री प्रकाश जावड़ेकर ने लोकसभा में प्रश्नकाल के दौरान एक बयान देकर कहा था कि दिल्ली विश्वविद्यालय में एक साल के भीतर 9000 स्थाई शिक्षकों की नियुक्ति कर दी जायेगी लेकिन हर वर्ष की भांति दिल्ली विश्वविद्यालय एवं उसके संघटक महाविद्यालयों में आज भी अस्थाई शिक्षकों के भरोसे ही पढ़ाई हो रही है। इसकी वजह साफ है कि विश्वविद्यालय एवं संघटक महाविद्यालयों द्वारा एकीकृत चयन पद्धति अपनाकर अपने-अपने स्तर पर भर्ती का विज्ञापन निकाला जाना माना जा रहा है। वास्तव में होना यह चाहिए था कि मानव संसाधन मंत्रालय को ही एक स्वतन्त्र एजेन्सी से यह कार्य करवाना चाहिए था लेकिन एक बार फिर से मानव संसाधन मत्रालय ने अपनी अकर्मण्यता का नजारा पेश कर दिया। अब मानव संसाधन मंत्री जी ने एक और जुमला फैंका है और वो है प्रतिष्ठित संस्थानों का। बावजूद इसके सरकार ने अपनी विफलता(विश्वविद्यालयों महाविद्यालयों में बुनियादी सुविधाओं की अनुपलब्धता) पर कुछ नहीं कहा। ख़ैर, प्रतिष्ठित संस्थाओं का ये प्रयास मील का पत्थर तो उसी वक्त साबित कर दिया जब जियो इंस्टीट्यूट को इस लिस्ट में शामिल किया जिसका अभी तक जन्म हुआ है और सम्भावना है। उत्कृष्ट संस्थाओं में पूरे देश के कुल विद्यार्थियों का मात्र 1 प्रतिशत ही प्रवेश पा सकेंगे। अब यहां भी एक महत्वपूर्ण प्रश्न जवाब चाहता है कि महोदय, आपने एक फिसदी छात्रों को तो बेहतरीन उपलब्ध करा देंगें लेकिन शेष रहे 99 फीसदी के लिये क्या विचार किया? वास्तव में रैंकिग वह दानव है जो खराब शिक्षा को उच्च बताता है। मुझे पत्ता है यह भी उस आजाद विचार को धराशायी करने का षड़यन्त्र है जिसके तहत शिक्षा की प्रखर होती मांग को दबाया जायेगा।
हाल ही में दैनिक भास्कर अखबार में छपी ख़बर ने मुझे सोचने को मजबूर कर दिया कि आखि़र क्या वजह है जिसके कारण सरकारे शिक्षा और शिक्षा व्यवस्था के प्रति इतनी उदासीन हैं। ख़बर बिहार के एक महाविद्यालय की है जहां 24 हजार विद्यार्थी हैं लेकिन शिक्षकों की संख्या केवल 28 है। अब यहां भी कई सवाल मुह बाहें खड़े हैं कि सरकार ने इतने एडमिशन ही क्यों लिए जब छात्रों को पढ़ाने के लिए शिक्षक ही नहीं है। अर्थात् शिक्षक-छात्र अनुपात इतना गजब है कि गणित भी प्रकट करने से शरमा जाएं। आप देखिए कि यह अनुपात है 857 छात्रों को पढ़ाने के लिए एक शिक्षक की उपलब्धता। क्या ये भंयकर मजाक नहीं इस महाविद्यालय के छात्रों के लिए। ऐसे में आप अनुमान लगा सकते है कि ऐसे कालेजों में बेरोजगार और कैसे नागरिक निकलेंगें! सरकार का नारा है बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ। लेकिन बिहार के ही बेगुसराय जिले के एक महिला महाविद्यालय में गम्भीर हालात को देखकर  नारों के खोखलेपन की असलियत का पता लग जाएगा।  यहां पर साढ़े दस हजार छात्राओं के लिए केवल 9 प्राध्यापक। शर्म आनी चाहिए मुख्यमंत्री, शिक्षा मंत्री सभी को, क्या इसी तरह पढेंगी बेटियां? क्या एक प्राध्यापक 1167 छात्राओं को पढ़ा पायेंगें? बिहार में 2014 में बिहार लोक सेवा आयोग ने राज्य के सरकारी महाविद्यलयों में भर्ती के लिए विज्ञापन निकाला था लेकिन यह भर्ती आज 11 जुलाई 2018 तक नहीं हो सकी है। यह समस्या अकेले बिहार की ही नहीं है बल्कि देश के हर राज्य का यही हाल है। समस्या इतनी गम्भीर और बेलगाम हो चुकी है। इसलिए अब इसे कोई ठीक करेगा भी नहीं क्योंकि इससे प्रचार होगा और ही राजनीतिक फायदा। जब किसी अपने अयोग्य रिश्तेदारों और नातेदारोंको रोजी रोटी देनी होगी तब सोचा जायेगा। माननीय प्रकाश जावड़ेकर जी, देश को उत्कृष्ट संस्थाओं की जरूरत नहीं है बल्कि जरूरत है देश के विश्वविद्यालयों और महाविद्यालयों को शिक्षकों की, जो पढ़ा सकें। यहां यह कहना जरूरी होगा कि ये जरूरत पूरी करें शिक्षक भले ही उत्कृष्ट हो पर होने जरूरी हैं ताकि देश एक औसत पढ़ाई कर एक सम्मानजनक स्थिति पा सके। इसलिए क्यों न देश के तमाम सरकारी विश्वविद्यालयों महाविद्यलयों में स्थायी शिक्षकों की नियुक्ति का कार्य संघ लोक सेवा आयोग को दे दिया जाए ताकि उच्च शिक्षा में सुधार  हो सके। 
शिक्षा में सुधार और गुणवत्ता के लिए विश्व के शीर्ष संस्थानों का जितना बजट एक साल का है उतना तो भारत का कुल शिक्षा के लिए जारी बजट भी नहीं होता। जहां 2018 में भारत का शिक्षा बजट लगभग अस्सी हजार करोड का था, वहीं हावर्ड विश्वविद्यालय का एन्डावमेन्ट फण्ड है 2 लाख 47 हजार करोड, इसके अलावा येल यूनिवर्सिटी का कोष है 1लाख 82 हजार करोड़, स्टेनफार्ड विश्वविद्यालय का ये कोष है 1 लाख 70 हजार करोड़ से भी उपर है। जब देश के विश्वविद्यालयों एवं महाविद्यालयों को शिक्षक ही नहीं मिल रहें है तो इतनी राशि की उम्मीद करना भी आत्महत्या करना जैसा है। मुझे पूरा यकीन है कि देश के रहबर शिक्षा चाहे वो उच्च हो या निम्न बर्बाद करके ही दम लेंगें क्योंकि यहां भी डार्विन का अस्तित्व अर्थात संघर्ष का सिद्धान्त लागू होता है……....इंक़लाब जिन्दाबाद।

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