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Friday 29 June 2018

राष्ट्रीय कलंक: मैला ढ़ोने की प्रथा

                                                               
 डॉ. नीरज मील   



जाति की राजनीती या राजनीति की जाति बात एक ही है. आज हिन्दुस्तान में जातिगत भेदभाव खत्म हो जाना चाहिए था लेकिन खत्म होने के स्थान पर ये बढ़ा है. माननीय उच्चतम न्यायालय  आदेशों और संसद द्वारा बनाए गए कानूनों के बाद भी मैला ढ़ोना और जातिगत व्यवस्था खत्म हो पाना भी मौजूदा भारतीय लोकत्रंत की एक विफलता है. मैला ढ़ोने का काम तो आज भी बदस्तूर जारी है जबकि ये एक कानूनी तौर पर गंभीर जुर्म भी है. पिछले दिनों टीवी में आई एक रिपोर्ट के अनुसार लखनाऊ में  सर से मैला ढ़ोने की एक की एक रिपोर्ट दिखाई गयी जो कि शर्मनाक भी है. स्वच्छ भारत अभियान के तहत शौचालय को ले कर देशभर में खूब चर्चा हो रही है. जहाँ सत्ता पक्ष  स्वच्छ भारत अभियान को ले कर वाहवाही लूट रहा है, हर रोज नए-नए दावे और आंकड़े पेश हो रहे हैं तो दूसरी ओर उत्तर प्रदेश के बाराबंकी, राजस्थान के हनुमानगढ़, बिहार, झारखंड, पंजाब सहित अन्य क्षेत्रों द्वारा केवल इन दावों की कलई खोली जा रही है रही है बल्कि इस अभियान के बहाने लगाए गए टैक्स और पानी की तरह बहाये जा रहे धन की आलोचना भी की जा रही है.
            देश में मैला ढ़ोने की यह घटना कोई अनोखी या बिरली नहीं है. देश के कई हिस्सों कमोबेश यह प्रथा आज भी है. यह न केवल लखनऊ के बाराबंकी का मामला है बल्कि अनेक रूपों में देश के हर हिस्से में उपलब्ध है. मैला ढ़ोने  का काम विरासत से मिलता है. किसी से मैला ढुलवाने पर कानूनी तौर पर 2 लाख रूपये  जुर्माने और 2 साल  की सजा का प्रावधान भी है बावजूद इसके यह प्रथा आज भी जारी है. इन सब के बीच, मानवता एवं देश को शर्मसार करने वाली सिर पर मैला ढोने की प्रथा का कहीं कोई जिक्र तक नहीं हो रहा है. तथाकथित बुद्धिजीवी केवल हिन्दू-मुस्लिम एवं मंदिर-मस्जिद की परिचर्चा में व्यस्त हैं। हालांकि मैला ढोने की इस प्रथा को खत्म करने का कागजी अभियान बहुत पुराना है. आजादी के बाद 1948 में इसे खत्म करने की मांग पहली बार महाराष्ट्र में हरिजन सेवक संघ की ओर से उठाई गई थी. तब से ले कर आज तक, इस प्रथा को खत्म करने की जुबानी कोशिश में कोई कमी नहीं रही है. कानून बने, लेकिन सब धरे के धरे रह गए हैं. यह प्रथा खत्म होने का नाम नहीं ले रही है.
     क्या ये भारत के संविधान पर करारा तमाचा नहीं हैक्या ये प्रशासन की अकर्मण्यता नहीं हैक्या ये समाज के दिवालियापन का सबूत नहीं है? क्या ये मनुष्य द्वारा मनुष्य के शोषण की कहानी नहीं है? या फिर मनुष्य के द्वारा मनुष्य का मैला ढ़ोने को भी स्वच्छ भारत का अभिन्न एवं अविच्छिन्न हिस्सा मान लिया जाए? ऐसे हज़ारों सवाल हैं जिनका आज किसी भी दिशा से कोई भी जवाब मिल पाना सम्भव नजर नहीं रहा है. आज मैं एक सवाल उन दलित नेताओ से "भी" पूछना चाहता हूँ, जो दलितों की राजनीति कर करोड़पति तो बन गए लेकिन मैला ढ़ोने  एवं ढुलवाने के विरुद्ध क़ानून बनने के 24 साल बाद भी ये सब बंद क्यों नहीं करा पाए? माना दूसरे से कम ही उम्मीद है पर आप तो अपने जाति का कष्ट क्यों नहीं समझते? स्पष्ट है कि केवल जाति के नाम पर धंधा चला रखा है और कोई भी धंधा बूरा नहीं होता। दुनिया के सब से बडे़ लोकतंत्र में यह प्रथा एक कलंक है. जहाँ एक तरफ जब दुनिया की सब से बड़ी अर्थव्यवस्था इस समय बुरे दौर से गुजर रही है और दूसरी तरफ सरकारी दस्तावेजों में ही सही, भारत ने एक सम्मानित विकास दर को प्राप्त कर आगे बढ़ रहा है और विदेशी निवेशकों के लिए हमारा देश लाभकारी बन गया है, ऐसे में भारत में मनुष्य समुदाय के लोगों द्वारा मैला अपने सिर पर ढोने के लिए अभिशप्त हैं, बड़े शर्म की बात और  बेहद दुखद है. विकास की बुलंदियों का दावों की हवा निकालती ये प्रथाएं आज भी समाज और देश में बदस्तूर जारी हैं. इनका बेबाकी से जारी रहना केवल स्वास्थ्य की दृष्टि से बल्कि देश के आंतरिक ताने-बाने के लिए भी घातक है.
बहरहाल, 2001 के सरकारी आंकड़ों के अनुसार, इन शुष्क शौचालयों की सफाई के काम में तब लगभग 7 लाख लोग लगे हुए थे, जबकि गैर सरकारी आंकड़ा 12 लाख बताता है. लेकिन 2011 की जनगणना के आंकड़े की मानें तो 10 सालों के बाद भी हमारे देश के 13 लाख लोग सिर पर मैला ढोने और अस्थायी शौचालयों की सफाई के काम में लगे हुए हैं. 2002-07 तक की 10वीं पंचवर्षीय योजना में मैला ढोने की प्रथा को खत्म करने का लक्ष्य निर्धारण किया गया था. कैग रिपोर्ट के अनुसार, 600 करोड़ रुपए व्यय किए जाने के बाद भी परियोजना अपने लक्ष्य को प्राप्त नहीं कर पाई. इस की वजह सामाजिक जटिलता को बताया गया.
स्पष्ट है स्थिति जस की तस बनी हुई है और सरकार जश्न मना रही है, हालांकि जश्न की वजह अस्पष्ट है.देश आंकड़ों में जी रहा है या आंकड़ों से चल रहा है कहना मुनासिब नहीं है. मैला ढोने के कार्य से जुड़े श्रमिकों के पुनर्वास के लिए स्व-रोजगार योजना के पहले के वर्षों में 100 करोड़ रुपए के आसपास आवंटित किया गया था. जबकि 2014-15 और 2015-16 में इस योजना पर कोई भी व्यय नहीं हुआ था. 2016-17 के बजट में केवल 10 करोड़ रुपए का आवंटन किया गया था, लेकिन वर्ष के संशोधित अनुमानों में इसमें भी कटौती कर इसे 1 करोड़ रुपए पर ले आए थे. इस वर्ष के बजट अनुमान में केवल 5 करोड़ रुपए की राशि प्रदान की गई. यह चौंकाने वाला है क्योंकि इस उपेक्षित क्षेत्र में बहुत कुछ किए जाने की जरूरत है. अगर खतरनाक परिस्थितियों में काम करते हुए मारे गए अब तक के सीवर श्रमिकों के ज्ञात मामलों को मुआवजा देने की ही हम बात करें तो इसके लिए तत्काल 120 करोड़ रुपए की आवश्यकता होगी. यह ध्यान देने योग्य बात है कि यह केवल इस उपेक्षित क्षेत्र में आवश्यक कई जरूरी खर्चों में से एक है. सरकार को सामाजिक न्याय के इस उच्च प्राथमिकता वाले मुद्दे पर अदालत के निर्देशों और अपने स्वयं के विधेयकों के कार्यान्वयन में सुधार में अब और अधिक समय बर्बाद नहीं करना चाहिए, विशेषकर इस समय जब स्वच्छ भारत के स्वच्छता श्रमिकों के योगदान को मान्यता और सम्मान की आवश्यकता है.
यह गैर जमानती कानून है. इस के अलावा, आर्थिक मदद के साथ आवास सुविधा और बच्चों को छात्रवृत्ति, अन्य कोई पेशा अपनाने के लिए कर्ज प्रशिक्षण दे कर उन के पुनर्वास का भी प्रावधान किया गया. लेकिन विडंबना यह है कि सरकारी महकमे में इतना भ्रष्टाचार है कि सरकारी योजनाओं का लाभ उठाने के लिए लोग आगे आते ही नहीं हैं.नतीजतन, 1993 में और फिर 2013 में बनाए गए कानून के तहत सिर पर मैला ढोने की प्रथा पर कानूनन प्रतिबंध के बावजूद आज की तारीख में भी यह प्रथा देश के विभिन्न हिस्सों में बदस्तूर जारी है. पिछले 22 सालों में इस कानून के तहत किसी को सजा नहीं हुई है. शायद 13 लाख लोगों का मुद्दा राष्ट्रीय मुद्दा नहीं बन पाया है. यही जमीनी हकीकत है. जब तक जातिवाद का सफाया नहीं होगा तब तक स्वच्छ भारत की बात भी कैसे हो सकती है?
विडंबना ही कही जाएगी हम एक ओर सूचना और प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में आत्म निर्भर होकर अंतरिक्ष में नए आयाम स्थापित कर रहे हैं तो दूसरी ओर शौच के मामले में आज भी आदिकाल की व्यवस्था को ही अंगीगार किये हुए हैं इक्क्सवीं सदी के इस युग में आज जरूरत है कि सरकार जागे और देश को इस गंभीर और अमानवीय प्रथा से  मुक्त  प्रयास करें। समय रहते हमे इस  दिशा में सोचना होगा और कार्य करना होगा अन्यथा यह प्रथा हमे बार बार शर्मसार करती रहेगी। ........इंक़लाब ज़िंदाबाद।        
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