डॉ. नीरज मील
देश में आलोचना करना जैसे फैशन सा बन गया है। इसी के चलते के नीति निर्माण और
प्रशासन के संचालन के लिए प्रमुख रूप से जिम्मेदार सिविल सेवा में भर्ती को लेकर
मोदी सरकार द्वारा उठाया गया बड़ा कदम भी इसी आलोचना का शिकार हो गया है। मैं
समझता हूँ आलोचनाएं होनी भी चाहिए। लेकिन वही आलोचना होनी चाहिए जो अच्छी हो एवं
उच्च गुणवत्ता वाली हो। आलोचना सार्थक भी तभी होती है जब उसमें सुझाव परिलक्षित
होते हैं। स्तरहीन की गयी आलोचना किसी के लिए भी लाभकारी नहीं हो सकती हैं। लेकिन
देश में चल रहे आलोचना के इस फैशन से बात बनने की बजाए बिगड़ रही है। देश के
कार्मिक एवं प्रशिक्षण विभाग ने भारत सरकार में संयुक्त सचिव पद के स्तर पर सीधी
भर्ती के लिए आवेदन आमंत्रित किए हैं। केंद्र सरकार ने सोमवार को एक अख़बार में
विज्ञप्ति जारी करके कई मंत्रालयों में ज्वॉइंट सेक्रेटरी पदों के लिए आम लोगों से
आवेदन भेजने की बात कही है। सरकार का यह कदम बहुत अच्छा माना जा सकता है बशर्ते ऐसी भर्ती में पूर्ण
ईमानदारी और पारदर्शिता हो क्योंकि इससे सरकारी दायरे के बाहर मौजूद प्रतिभा को
सरकार के काम करने के तौर-तरीकों को समझने का मौका मिलेगा। इसके साथ ही उन्हें अपने अनुभव के क्षेत्र में काम करने का मौका भी मिलेगा।
सरकारी तंत्र में ज्वॉइंट सेक्रेटरी के स्तर पर फ़ैसले लिए जाते हैं। अब तक जो भी फ़ैसले लिए जाते थे, वे बंद कमरों में फ़ील्ड में काम कर रहे सरकारी
अधिकारियों द्वारा दिए गए इनपुट के आधार पर होते थे। हालांकि देश में आज़ादी के बाद
सबसे ज्यादा ह्रास नैतिक मूल्यों में ही आया है इसलिए ये भर्तियाँ ईमानदारी और
पारदर्शिता वाली हो इसकी कोई गारंटी नहीं है।
इस प्रकार की अवधारणा के साथ नियुक्ति के लिए फिलहाल कृषि, वित्तीय सेवाएं, शिपिंग, वाणिज्य जैसे दस विभाग चुने गए हैं। यह माना गया है कि जब इन विभागों में जब
विशेषज्ञता रखने वाले लोग आएंगे जिन्हें संबंधित क्षेत्रों की समस्याओं का पूरा
ज्ञान होगा तो वे रणनीतिक फ़ैसले ले पाएंगे और उन्हें ये भी महसूस होगा कि इस
क्षेत्र के विकास के लिए वो जो सोचते हैं, उसे कार्यान्वित कर पाएंगे। बाहर से प्रतिभा तलाश
करने की ज़रूरत, देश के नौकरशाहों को इस कदम का स्वागत करना चाहिए। सरकार ने कहा है कि हमारा मकसद भारत को विकास के रास्ते पर लाना है और उसे गति
देना भी। इस कोशिश में अगर हमें ऐसे लोग मिल सकते हैं जो इस उद्देश्य को पूरा कर
सकते हैं। स्पष्ट है कि अगर ऐसा होता है तो ये राष्ट्र के हित में है और जो भी
राष्ट्र हित में है वो सिविल सेवा के हित में भी होगा।
सरकार मेधावी एवं पेशेवर लोगों का
योगदान लेने की दिशा में आगे बढती हुई प्रतीत हो रही है। अब सरकार का ये फैसला
कितना कारगर साबित होगा? ये आने वाले भविष्य के गर्भ में है। लेकिन सरकार के इस सीधी
भर्ती के कदम के खिलाफ विपक्षी दलों एवं अन्य लोगों की ओर से कई प्रतिक्रियाएं
सामने आई हैं। कुछेक चिंताजनक हैं तो कुछेक निरीह बकवास भी हैं। पूरे प्रकरण को
समझने के लिए पहले नौकरशाही में भर्ती और उसकी कार्यप्रणाली को समझना आवश्यक है।
संयुक्त सचिव या उपसचिव स्तर के जिन वरिष्ठ प्रशासनिक पदों पर सीधे भर्ती की जो
बात हो रही है इससे पहले ये पद आइएएस, आइपीएस और अन्य केंद्रीय सेवाओं के लोगों में से
किसी को पदोन्नति देकर पदस्थापित किये जाते रहे हैं। उल्लेखनीय है इन लोगों की
आरंभिक भर्ती संघ लोक सेवा आयोग द्वारा सिविल सेवा परीक्षा के जरिये की जाती है।
ऐसे में एक चिंता यहां यह भी जाहिर हो रही है कि ये कदम सिविल सेवा में लगे लोगों
के हक़ पर कुठाराघात करने वाला है। इस बीच ये भी सच है 40 की उम्र के बाद इन सिविल
अधिकारियों में कार्य शिथिलता भी आम हो जाती है। हालांकि सिविल सेवा में चयन की
पद्धति को लेकर पूर्व में भी कई सवाल उठते रहे हैं। आजादी के 70 साल में सामाजिक, आर्थिक, व्यावसायिक और तकनीकी परिस्थितियां काफी बदली हैं। लेकिन इन सब के बावजूद संघ
लोक सेवा आयोग कोई आमूल-चूल परिवर्तन चयन पद्धति में नहीं कर पाया ये भी सत्य है।
इसी वजह से केवल उन व्यक्तियों का चयन ज्यादा हो पाया है जिनमें रटने की क्षमता
ज्यादा थी किन्तु समझ के लिहाज़ से एकदम शून्य थे। क्योंकि किसी भी विशेष विषय में अधिकतम
प्रश्नों की संख्या निश्चित होती है। वर्तमान समय विशेषज्ञता का है जबकि आयोग
द्वारा वर्तमान पैटर्न में विभिन्न सामाजिक, आर्थिक, वैज्ञानिक, तकनीकी और कानूनी-संवैधानिक बातों के रटने परीक्षण
होता तो है, लेकिन व्यक्ति की समझ को मापने वाला नहीं होता। लिहाज़ा किसी विषय विशेष में
विशेषज्ञता अर्थात दर्शनशास्त्र या भाषा-साहित्य अथवा भौतिक विज्ञान आदि विषय में
पारंगत व्यक्ति वाणिज्य विभाग के कामकाज में कैसे न्याय कर सकता है? ऐसे में कॉमर्स के साथ कानून
का भी ज्ञान भी चाहिए होता है। यही बात राजस्व, शिक्षा, कृषि, नागर विमानन, विश आदि विभागों पर भी काफी हद तक लागू होती है।
दूसरी बात, सिविल सेवा परीक्षा द्वारा कई बार कृषि, कानून, अंतरराष्ट्रीय अध्ययन या अन्य तकनीकी विषयों के विशेषज्ञ चयनित भी होते हैं, लेकिन यह सत्य है कि 10 या 15 साल फील्ड में सरकारी आदेश बजाते-बजाते उनकी
सम्पूर्ण विशेषज्ञता जंग खा जाती है। ऐसे में जब जरूरत होती है एक युवा, चुस्त और
अनुभवी नीति निर्धारक की तो सीधे भर्ती की परिकल्पना सामने आती है। लेकिन यहां एक
बड़ा प्रश्न ये खड़ा हो जाता है कि राष्ट्रहित के लिए सरकारी नीति निर्माण और शासन
में सरकारी क्षेत्र के बाहर कार्यरत को ही शामिल क्यों किया जाएं? यहां सिस्टम को
लेकर कई सवाल खड़े हो जाते है? ऐसे में सिर्फ इसी एक आधार पर उच्च पदों पर ऐसी
नियुक्ति को उचित नही ठहराया जा सकता। इसके बजाय आइएएस, आइपीएस और अन्य केंद्रीय सेवाओं और सरकारी तंत्र में लगे अस्थायी/संविदा पर
लगे भीतर और बाहर के सबसे अच्छे उपलब्ध उम्मीदवारों में खुली प्रतियोगिता के जरिये
उनकी सीधी भर्ती होनी चाहिए। अगर ऐसा नहीं हो पाता है तो फिर कांग्रेस, सीपीएम, राजद आदि राजनीतिक दल और दलों के नेताओं द्वारा इसे असंवैधानिक, मनुवादी या फिर आरएसएस के लोगों को भर्ती करने की साजिश करार दिया जाना उचित
ही प्रतीत होता है। इसके अतिरिक्त औद्योगिक घरानों के चहेतों को प्रशासनिक तंत्र
में घुसाने की जुगत से भी इनकार नहीं किया जा सकता है। कुछ ऐसा ही रवैया कई
बुद्धिजीवियों ने भी अपनाया है। माना कि प्रशासन में दक्ष एवं अनुभवी लोगों की
सीधी भर्ती की अवधारणा नई नहीं है। 2003 में सिविल सेवा से संबंधित सुरिंदरनाथ कमेटी और 2004 में पीसी होता कमेटी,
2005 में कांग्रेस के वरिष्ठ नेता वीरप्पा मोइली की अध्यक्षता में गठित दूसरे
प्रशासनिक सुधार आयोग आदि सभी इस आशय की शिफारिश भी की थी। लेकिन क्या गारंटी है
कि गैर-सरकारी लोगों को इस सम्बन्ध में पूर्ण ज्ञान हो ही? हर चयन पद्धति के
अपने-अपने दोष हैं और कुछ गुण भी लेकिन कालान्तर में गुण छुप जाते हैं दोष उभर आते
हैं। गारंटी तो ली या दी ही नहीं जा सकती वर्तमान परिपेक्ष में। हम किसी भी
प्रणाली को इस आधार पर भारत के संदर्भ में
उचित नहीं ठहरा सकते कि अमेरिका या ब्रिटेन में सफल है। किसी भी व्यवस्था के सफल
होने या न होने में सीधा-सीधा उस व्यवस्था में लगे लोगों का चरित्र ही जिम्मेदार
होता है। यहां आचार्य विनोबा भावे का एक कथन चरितार्थ हो रहे हैं कि “कोई भी
व्यवस्था भले ही वो कितनी ही उच्च गुणवत्ता वाली या भली ही क्यों न हो उसकी सफलता
या असफलता उस व्यवस्था में लगे लोगों द्वारा ही तय होगी।” सही भी है देश में
नैतिकता लुप्त होने के कगार पर है ऐसे में हमें व्यवस्था नहीं दिशा बदलने की जरूरत
है। हमे लोग नहीं चरित्र बदलना है और वो तब बदलेगा जब देश का नागरिक चरित्रवान
होगा और चरित्रवान नागरिक तब होगा जब देश में शिक्षा मिलेगी डिग्रियां या
प्रमाण-पत्र नहीं। और अंत में शिक्षा तब होगी जब देश का शीर्ष नेतृत्व चाहेगा। फ़िलहाल,
देश में शिक्षा की स्थापना दूर की कौड़ी साबित हो रही है। खैर, पेशेवरों की
नौकरशाहों के रूप में सीधी भर्ती एक सही कदम हो सकता है, बशर्ते सरकार ऐसी भर्ती में पक्षपात की आशंका को दूर कर स्वस्थ एवं पारदर्शी
चयन की गारंटी दे। इसके लिए एक संस्थागत और पारदर्शी प्रक्रिया अपनाए जाने की
जरूरत है। विवाद से बचने के लिए सरकार सिविल सेवा परीक्षा आयोजित करने वाले
यूपीएससी को ही सीधी भर्ती के साक्षात्कार की जिम्मेदारी सौंप सकती है। ऐसे में
सरकार का ये कदम निश्चित ही यू टर्न वाला होगा …… इंक़लाब जिंदाबाद।
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