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Sunday 20 May 2018
Friday 18 May 2018
Thursday 17 May 2018
छप्पन इंच से गुलामी की ओर बढती लाचारी...!
डॉ. नीरज मील
dr.neerajmeel@gmail.com
IMAGE SOURCE:httpwww.indiasamvad.co.inadminstoryimageNarendra_Modinarendramodipic.jpg
विविधता में एकता की मिसालें भारत में काफी दी जाती रही हैं। लेकिन ये कैसा देश है यह तय कर पाना हर किसी के लिए अब टेढ़ी खीर ही साबित हो रहा है। हाल ही में देश में कर्नाटक चुनाव चर्चित विषय रहा है। कर्नाटक चुनावों के तुरंत बाद दो घटनाएं घटित हुई है जिन्होंने देश को एक बार फिर झकझोर कर रख दिया है। लेकिन बावजूद इसके हर कलम खामोश है, कोई प्राइम टाइम नहीं है, कोई न्यूज रूम संवेदना तक प्रकट नहीं कर रहा है।
वैश्विक स्तर पर चीनी यात्रा का राजनीतिक विश्लेषण
डॉ. नीरज मील
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने हाल ही में चीन यात्रा
की। चीन की यात्रा कैसी रही और क्या गुल खिलाएगी? चीन
कैसा है? यह हम सब अच्छी तरह जानते हैं। लेकिन कूटनीतिक रूप से यह जरूरी होता है कि प्रधानमंत्री देश के प्रतिनिधित्व
के रूप में वहां जाए। जहां संबंध थोड़े तल्ख हैं
ऐसे में चीन की यात्रा करना भी बेहद जरूरी था। चीन की जो फितरत है वह हमेशा भारत के प्रति एक के
अलग तरीके की रही है। अन्य देशों की बात की जाए
तो चीन ने हमेशा भारत के साथ वह सलूक किया है जो कोई दुश्मन के साथ भी नहीं करता। चीन करोड़ों अरबों रुपए का व्यापार भारत में होता
है। यह चीन को भी पता है कि अगर अपना व्यापार भारत से
रुक जाए या अब बंद हो जाए तो हम कहां जाएंगे? आप भी देखें, सबसे ज्यादा जो सामान
हम काम में लेते हैं वह चीन का ही सामान होता है।
राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन का सामजिक अंकेक्षण
डॉ. नीरज मील
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लोकतंत्र में सरकार द्वारा शोषण की कहानी
-डॉ. नीरज मील
राजस्थान में बहुत से विभागों में सरकार द्वारा अल्प मानदेय पर संविदा पर कार्यरत युवाओं का एक बड़ा तबका है I जो इस आस में अपनी सेवाएं बदस्तूर जारी रखे हुए हैं कि कभी वह दिन भी आएगा जब हम भी स्थाई होंगे I ऐसा नहीं है कि संविदा पर कार्यरत लोग स्थाई नहीं होते I ऐसा भी नहीं है कि इन लोगों ने इस धारणा के साथ संविदा नौकरी ज्वाइन की थी कि सरकार देर-सवेर स्थाई कर ही देगी I इनकी स्थायीकरण की आशा इसलिए जायज है जब सरकार ने इनको हर बार यानी कि कई बार चाहे वह चुनाव की वजह से हो या फिर राजनीतिक महत्वकांक्षा की वजह से सरकार ने इनमें यह धारणा घर कर दी थी I पूर्ववर्ती सरकार द्वारा जुलाई 2013 में 10,20 एवं 30 अंकों का बोनस देकर इनको सरकारी नौकरी अथवा स्थायीकरण का ख्वाब दिखाया गया I लेकिन अफसोस और विडंबना यही रही कि आज दिनांक तक हजारों की तादाद में युवा भीड़ संविदा पर और अल्प मानदेय के लिए ही नौकरी कर रही हैI भाजपा की सुशासन का दावा करने वाली सरकार ने इन भर्तियों को एतद् रद्द कर दिया गया I वास्तव में देखा जाए तो यह सरकार द्वारा पोषित अथवा सरकार द्वारा प्रायोजित एक शोषण की प्रक्रिया है जो हर राज्य में बड़े पैमाने पर जारी है I यही आर्थिक शोषण अगर कोई प्राइवेट क्षेत्र से करें तो सरकार उस पर अपना शिकंजा इस तरह से करती है जैसे एक कोतवाल चोर पर I लेकिन यहां शिकंजा कसने वाली भी सरकार है और शोषण करने वाली भी सरकार I पूछने वाला कोई नहीं है लोकतंत्र में ऐसी जवाबदेही का नजारा बहुत बार देखने को मिलता है I अब एक आदमी अगर 10 साल से संविदा पर नौकरी कर रहा है तो इसमें उस व्यक्ति का क्या दोष है I शायद कुछ भी नहीं, एक बेरोजगार हमेशा एक रोजगार की तलाश में रहता है I उसे एक रोजगार की जरूरत होती है जो उसे एक काम दिला सके और काम के बदले सम्मानजनक मानदेय I यह सही है कि जब संविदा में पैसे कम होते हैं तो लोग क्यों आते हैं? यह कहने को बड़ा ही सीधा और सरल सवाल हो सकता हैI लेकिन एक बेरोजगार के पास इन सवालों का कोई औचित्य नहीं हैI सवाल तो और भी बहुत है लेकिन वे सवाल ही रह जाते हैं I अगर इसकी तह तक जाएं उन संविदा कार्मिकों के दिल से इस प्रश्न का उत्तर जानने का प्रयास करें I हम देखेंगे या पाएंगे कि वास्तव में उनके साथ जो हो रहा है वह न केवल अन्यायपूर्ण है बल्कि बर्बरतापूर्ण भी है I
भारत में बैंकिंग की वर्तमान दिशा और दुर्दशा!
-डॉ. नीरज मील ‘नि:शब्द’
कुछ दिनों पूर्व पंजाब नेशनल बैंक सहित कई बैंकों
के मामले उजागर होने के बाद वित्त मंत्रालय की नींद भी टूट गयी है। वित्त मंत्रालय
ने हाल ही में सख्त निर्देश भी प्रसारित कर दिए हैं। जारी ताज़ा दिशा निर्देशों के
मुताबिक़ सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों को संभावित धोखाधड़ी से बचने के लिए 50 करोड़
रूपये से उपर के सभी ऋणों अर्थात् जो ऋण एनपीए(नॉन परफोर्मिंग असेंट) की श्रेणी
में आते हैं की जांच करने और यह जांच सीबीआई के साथ सांझा करने को कहा गया है। साथ
ही बैंकों को यह भी निर्देश दिए गए हैं कि वे अपने ऑपरेशनल और टेक्निकल सिस्टम को
भी दुरस्त करें।
ज़िन्ना के जिन्न पर सियासत बंद करो।
-डॉ. नीरज मील ‘नि:शब्द’
अल्लादीन के चिराग की एक काल्पनिक कहानी हम सबने सुनी होगी। उसमे एक जिन्न
होता है। जिन्न अपने आक़ा के लिए काम करता है। भारत की राजनीती में भी कई काल्पनिक
जिन्न हैं। हर राजनैतिक दल का अलग अलग राग होता है और अलग-अलग जिन्न। ऐसे में इस
तरह के कुछ तराने सामूहिक भी होते हैं। ये जिन्न ही इनके औजार हैं। उनमें से
प्रमुख रूप से एक है धर्म तो दूसरा है जाति। जहां जाति से काम नहीं चलता वहां धर्म
काम में आता है। इसी से जुड़ा एक और जिन्न है जो कभी-कभार ही बाहर निकलता है और वह
है जिन्ना।
जनाक्रोश की अभिव्यक्ति : देश की जरुरत
-डॉ.
नीरज मील ‘नि:शब्द’
29 अप्रैल 2018 को कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी के नेतृत्व में दिल्ली
अवस्थित रामलीला मैदान में एक जन आक्रोश रैली का आयोजन किया गया। इस आयोजन में राष्ट्र के प्रत्येक कोने से कांग्रेस
कार्यकर्ताओं का जमावड़ा रहा। इसी रैली पर यह
आज का आलेख आधारित है। मेरे हिसाब से
लेखक को हमेशा स्वतंत्र लेखनी के साथ आगे बढ़ना चाहिए। इस आलेख में मैं यह प्रयास करूंगा। जन आक्रोश रैली को संबोधित करते हुए भारतीय जनता पार्टी को
न केवल आड़े हाथों लिया कोंग्रेस अध्यक्ष ने इस रैली के माध्यम से भारतीय जनता
पार्टी को सीधी चुनौती भी दे डाली। उन्होंने कहां
की भारत की धर्मनिरपेक्षता पर हर भारतीय को गर्व रहा है। तात्कालिक परिस्थितियों पर तंज कसते हुए राहुल गांधी ने
कहा कि पिछले 4 साल में भाजपा के
राज में भारत की विकास व प्रगति की रफ्तार मानो थम गयी है। आम जनता विशेषकर गरीब आदमी का सरकार से विश्वास उठ गया है। उन्होंने यह भी आरोप लगाया कि नोटबंदी और जीएसटी से
भारत के आर्थिक ढांचे को तो नुकसान पहुंचा ही है बल्कि इस नुकसान के साथ-साथ
ग्रामीण अर्थव्यवस्था तो चारों खाने चित आई है। लघु उद्योग के चौपट होने की बात भी कही। मजदूरों में मजदूरी के अवसर खत्म होने, इंडिया और
भारत के बीच की दूरी बढ़ने एवं भ्रष्टाचार पर भी लगाम न कसने का आरोप भी राहुल
गांधी द्वारा इस रैली के माध्यम से लगाया गया। कुल मिलाकर यह रैली कार्यकर्ताओं में जोश भरने के लिए
आयोजित की गई थी। जितनी उम्मीद थी
उससे कम भीड़ हुई। वास्तव में
राहुल गांधी का भाषण सुनने में बड़ा ही मधुर और आरोपों के दरमियां बहुत ही उम्दा
साबित हुआ। लेकिन इस बीच यह
भाषण कितना अच्छा रहा? कितना बुरा रहा? कितना प्रभावी रहा? और कितना अप्रभावी रहा?
ये भी एक चर्चा का विषय बन गया। लेकिन निष्पक्ष
मुल्यांकन करें तो हमें देखना चाहिए कि उन्होंने विशेष सुझाव क्या दिए? विपक्ष के
नेता के रूप में, विपक्ष की पार्टी के नेता के रूप में या फिर अपने आप को भावी
प्रधानमंत्री पद के लिए प्रस्तुत करने की दृष्टि से! जो भी हो लेकिन सुझाव पक्ष
नदारद ही रहा। ऐसी दशा में हम
निष्कर्ष के रूप में यह नहीं कह सकते कि उनका भाषण अच्छा था या आरोप अच्छे थे या फिर तमाम प्रकार की बातें। लेकिन यह सच है कि राज कांग्रेस का हो या फिर भारतीय
जनता पार्टी का, बेरोजगारों की कोई सुध लेने वाला नहीं है। देश में बेरोज़गारी की स्थिति इतनी भयावह है कि एक चपरासी
पद के लिए भी पोस्ट ग्रेजुएट क्या पीएचडी किया हुआ भी कतार में लगा हुआ दिखाई दे
रहा है। सत्ता में शामिल
लोग इस बात से बेफिक्र हैं कि युवाओं को क्या चाहिए। युवाओं को जो चाहिए उसके बारे में कोई सोचना ही नहीं चाहता। सरकार जो कर रही हैं उससे युवाओं को कोई फायदा नहीं। ऐसी स्थिति में भी सत्तासीनों को नसीहतें गढ़ते ही
देखा गया है। कभी पकोड़ों से देश को रोज़गार मिल जाता है तो कभी जिओ से। सत्ता में शामिल लोग खुद बलात्कारियों की हिमाकत
करते नजर आते हैं। हर आर्थिक व
सामाजिक समस्या को हिंदू मुसलमान के चश्मे से देखने की नसीहतें गढ़ी जाती है या फिर
कुछ और परोस दिया जाता है कि सब कुछ उसी के पीछे लगा दिया जाता है। देश अपनेआप बदल रहा है वास्तव में देखा जाए तो 2014 में जनता द्वारा
सारे रिकोर्ड, धारणाएं ताक़ पर रखते हुए एक पार्टी को पूर्ण बहुमत की अवधारणा के
चलते मोदी सरकार की ताजपोशी की थी। लेकिन वर्तमान
परिपेक्ष में देखें और जनता के दिल की टटोलने की कोशिश करें तो जनता न इस सरकार से
खुश हैं और उन्हें कांग्रेस को सत्ता सौपने के मूड में। ऐसे में क्या कहा जाए है? वर्तमान में देश में दो ही
पार्टियां नजर आती है एक भारतीय जनता पार्टी तो दूसरी कांग्रेस। कहने को मुल्क में बहु-दल योजना है लेकिन यहां पर
सिर्फ द्विदल व्यवस्था ही नजर आ रही है।
वैसे भारत कभी भी किसी राजनीतिक दल का गुलाम नहीं रहा है
लेकिन भारत के लोगों के पास विकल्प भी नहीं हैं। राहुल गांधी ने अपने भाषण में कहा कि भारत में 1952 के आम चुनाव
जिनमें पंडित जवाहरलाल नेहरू जैसी महान शख्सियत का मुकाबला करने के लिए 400 से ज्यादा
राजनीतिक दलों का गठन हो गया था और उनमें से 70 से अधिक ने इन चुनाव में हिस्सा लिया था। तब पंडित नेहरू ने कहा था कि भारत में लोकतंत्र उतना
ही मजबूत होगा जितना परस्पर विरोधी विचारधाराएं देश के विकास और निर्माण के लिए
विकल्प प्रस्तुत करेंगे लेकिन इनका आधार केवल अहिंसात्मक रास्ता ही होना चाहिए। जैसे-जैसे समय बीता वैसे-वैसे स्थितियां व परिस्थितियां
भी बदली। आज हम इस दौर
में आ खड़े हुए जहां पर सोशल मीडिया या फिर न्यूज़ चैनलों के माध्यम से बात की जाए
तो देश से असली मुद्दे ही गायब हैं। हिंदू-मुस्लिम
जैसी भ्रांतियां सबके सामने आम है। कभी कांग्रेस कठुआ के बलात्कार की घटना को लेकर
देशभर में प्रदर्शन कर रही है तो वहीं कांग्रेस गीता के बलात्कार को लेकर चुप्पी
साध बैठती है। यही हालत भारतीय
जनता पार्टी की ही नजर आती है।
सवाल भाजपा या कांग्रेस का नहीं है सवाल भारत के
युवाओं का है। अब उन्हें सोचना
होगा, सवाल करना सीखना होगा। आंखें मूंद कर
किसी बात पर विश्वास करने से बचना होगा और हमें धर्म के अफीम से खुद को महफूज रखना
होगा। प्रधानमंत्री
नरेंद्र मोदी ने भी रविवार को मन की बात कार्यक्रम में रमजान और बुद्ध की बात की
लेकिन वे भूल गए कि धर्म विभेद पैदा कर सकता है खत्म नहीं। अब प्रश्न ये उठाना लाज़मी है कि इस तरह जब एक प्रधानमंत्री
सीधे संवाद में देश की जनता को रमजान और बुद्ध इसी तरह के अन्य इसी तरह के अन्य
वर्गीकरण करना कहाँ तक उचित हैं? क्या ये नागरिकों को धर्म अथवा आस्था अथवा अन्य
विषय पर बांटा नहीं गया?
अब हमें ही यह
देखना होगा, समझना होगा और विभेद करना सीखना होगा कि क्या सही है क्या गलत? क्या
उचित है क्या अनुचित? वैसे यह काम शिक्षा का है लेकिन चूँकि देश में शिक्षा
प्रणाली या शिक्षा व्यवस्था ऐसी है नहीं जो शिक्षा दे सकें। देश की शिक्षा व्यवस्था तो सिर्फ नौकरी करने के बारे में सोचती है या सोचने की करने दे
सकती है, रोजगार पैदा नहीं करवा सकती। ऐसी स्थिति में हमें ही अतिरिक्त रूप से सीखना होगा और जो
विकास रूपी एजेंडे चलते हैं उन पर आंखें मूंदकर भरोसा करने से पहले उन्हें परखना
होगा। हो सकता है कि
कोई एक व्यक्ति ईमानदार हो लेकिन एक व्यक्ति के इमानदारी के चलते हम पूरे समूह पर
विश्वास कर ले यह असंभव बात है। ठीक यही बात
हमारे देश की राजनीतिक पार्टियों पर भी लागू होती है। खैर लोकतंत्र में मुद्दे उठते रहते हैं। हवाएं और अंगारें बनते रहते हैं। देशवासियों को नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में पूरी तरह
से न सही लेकिन कुछ हद तक विश्वास अब भी कायम है। लेकिन यह देखना होगा कि नरेंद्र मोदी का मतदाताओं पर क्या
असर होगा? क्या नरेंद्र मोदी एक विजन दे पायेंगे जिसकी देश को सख्त जरूरत है या
फिर आक्रोश में से कोई नयी किरण निकलेगी! अंतिम फैसला देश का मतदाता ही करेगा भले
ही प्रणाली कुछ भी हो।सबसे पहले भाजपा और कांग्रेस दोनों का शुक्रिया और फिर अंत में मैं तो देश के युवाओं और जनता से इतना
ही कहूँगा कि-
“खामोशियों की इतनी लम्बी तलब अच्छी नहीं साहेब.. ।
कुछ तो सोचिए ये मुल्क आपका भी तो है जनाब ।।”
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